महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-161
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युधिष्ठिर उवाच। | 13-161-1x |
शतायुरुक्तः पुरुषः शतवीर्यश्चि वैदिके। कस्मान्म्रियन्ते पुरुषा बाला अपि पितामह।। | 13-161-1a 13-161-1b |
आयुष्मान्केन भवति अल्पायुर्वाऽपि मानवः। केन वा लभते कीर्तिं केन वा लभते श्रियम्।। | 13-161-2a 13-161-2b |
तपसा ब्रह्मचर्येण जपैर्होमैस्तथा परैः। जन्मना यदि वाऽचारात्तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 13-161-3a 13-161-3b |
भीष्म उवाच। | 13-161-4x |
अत्र तेऽहं प्रवक्ष्यामि यन्मां त्वमनुपृच्छसि। अल्पायुर्येन भवति दीर्घायुर्येनि मानवः।। | 13-161-4a 13-161-4b |
येन वा लभते कीर्तिं येन वा लभते श्रियम्। यथा च वर्तयन्पुरुषः श्रेयसा सम्प्रयुज्यते।। | 13-161-5a 13-161-5b |
आचाराल्लभते ह्यायुराचाराल्लभते श्रियम्। आचारात्कीर्तिमाप्नोति पुरुषः प्रेत्य चेह च।। | 13-161-6a 13-161-6b |
दुराचारो हि पुरुषो नेहायुर्विन्दते महत्। त्रसन्ति चास्य भूतानि तथा परिभवन्ति च।। | 13-161-7a 13-161-7b |
तस्मात्कुर्यादिहाचारं य इच्छेद्भूतिमात्मनः। अपि पापशरीरस्य आचारो हन्त्यलक्षणम्।। | 13-161-8a 13-161-8b |
आचारलक्षणो धर्मः सन्तश्चारित्रलक्षणाः। साधूनां च यथावृत्तमेतदाचारलक्षणम्।। | 13-161-9a 13-161-9b |
अप्यदृष्टं श्रवादेव पुरुषं धर्मचारिणम्। स्वानि कर्माणि कुर्वाणं तं जनाः कुर्वते प्रियम्।। | 13-161-10a 13-161-10b |
ये नास्तिका निष्क्रियाश्च गुरुशास्त्रातिलङ्घिनः। अधर्मज्ञा दुराचारास्ते भवन्ति गतायुषः।। | 13-161-11a 13-161-11b |
विशीला भिन्नमर्यादा नित्यं सङ्कीर्णमैथुनाः। अल्पायुषो भवन्तीह नरा निरयगामिनः।। | 13-161-12a 13-161-12b |
सर्वलक्षणहीनोऽपि समुदाचारवान्नरः। श्रद्दधानोऽनसूयुश्च शतं वर्षाणि जीवति।। | 13-161-13a 13-161-13b |
अक्रोधनः सत्यवादी भूतानामविहिंसकः। अनसूयुरजिह्मश्च शतं वर्षाणि जीवति।। | 13-161-14a 13-161-14b |
लोष्ठमर्दी तृणच्छेदी नखखादी च यो नरः। नित्योच्छिष्टः सङ्कुसुको नेहायुर्विन्दते महत्।। | 13-161-15a 13-161-15b |
ब्राह्मे मुहूर्ते बुध्येत धर्मार्थौ चानुचिन्तयेत्। उत्थाय चोपतिष्ठेत पूर्वां सन्ध्यां कृताञ्जलिः। एवमेवापरां सन्ध्यां समुपासीत वाग्यतः।। | 13-161-16a 13-161-16b 13-161-16c |
नेक्षेतादित्यमुद्यन्तं नास्तं यन्तं कदाचन। नोपसृष्टं न वारिस्थं न मध्यं नभसो गतम्।। | 13-161-17a 13-161-17b |
ऋषयो नित्यसन्ध्यत्वाद्दीर्घमायुरवाप्नुवन्।। | 13-161-18a |
`सदर्भपाणिस्तत्कुर्वन्वाग्यतस्तन्मनाः शुचिः।' तस्मात्तिष्ठेत्सदा पूर्वां पश्चिमां चैव वाग्यतः।। | 13-161-19a 13-161-19b |
ये न पूर्वामुपासन्ते द्विजाः संध्यां न पश्चिमाम्। सर्वांस्तान्धार्मिको राजा शूद्रकर्माणि कारयेत्।। | 13-161-20a 13-161-20b |
परदारा न गन्तव्याः सर्ववर्णेषु कर्हिचित्। नहीदृशमनायुष्यं लोके किञ्चन विद्यते।। | 13-161-21a 13-161-21b |
यादृशं पुरुषस्येह परदारोपसेवनम्। तादृशं विद्यते किञ्चिदनायुष्यं नृणामिह।। | 13-161-22a 13-161-22b |
यावन्तो रोमकूपाः स्युः स्त्रीणां गात्रेषु निर्मिताः। तावद्वर्षसहस्राणि नरकं पर्युपासते।। | 13-161-23a 13-161-23b |
मैत्रं प्रसाधनं स्नानमञ्जनं दन्तधावनम्। पूर्वाह्ण एव कुर्वीत देवतानां च पूजनम्।। | 13-161-24a 13-161-24b |
पुरीषमूत्रे नोदीक्षेन्नाधितिष्ठेत्कदाचन। नातिकल्यं नातिसायं न च मध्यंदिने स्थिते। नाज्ञातैः सह गच्छेत नैको न वृषलैः सह।। | 13-161-25a 13-161-25b 13-161-25c |
पन्था देयो ब्राह्मणाय गोभ्यो राजभ्य एव च। वृद्धाय भारतप्ताय गर्भिण्यै दुर्बलाय च।। | 13-161-26a 13-161-26b |
प्रदक्षिणं च कुर्वीत परिज्ञातान्वनस्पतीन्। चतुष्पदान्मङ्गलांश्च मान्यान्वृद्धान्द्विजानपि।। | 13-161-27a 13-161-27b |
मध्यंदिने निशाकाले अर्धरात्रे च सर्वदा। चतुष्पथं न सेवेत उभे सन्ध्ये तथैव च।। | 13-161-28a 13-161-28b |
उपानहौ न वस्त्रं च धृतमन्यैर्न धारयेत्। ब्रह्मचारी च नित्यं स्यात्पादं पादेन नाक्रमेत्।। | 13-161-29a 13-161-29b |
अमावास्यां पौर्णमास्यां चतुर्दश्यां च जन्मनि। अष्टम्यामथ द्वादश्यां ब्रह्मचारी सदा भवेत्।। | 13-161-30a 13-161-30b |
वृथा मांसं न खादेनि पृष्ठमांसं तथैव च। आक्रोशं परिवादं च पैशुन्यं च विवर्जयेत्।। | 13-161-31a 13-161-31b |
नारुन्तुदः स्यान्न नृशंसवादी न हीनतो वरमभ्याददीत। ययाऽस्य वाचा पर उद्विजेत न तां वदेद्रुशतीं पापलोक्याम्।। | 13-161-32a 13-161-32b 13-161-32c 13-161-32c |
अतिवादबाणा मुखतो निःसरन्ति यैराहतः शोचति रात्र्यहानि। परस्य वा मर्मसु ये पतन्ति तान्पण्डितो नावसृजेत्परेषु।। | 13-161-33a 13-161-33b 13-161-33c 13-161-33d |
संरोहत्यग्निना दग्धं वनं परशुना हतम्। वाचा दुरुक्तं बीभत्सं न संरोहति वाक्क्षतम्।। | 13-161-34a 13-161-34b |
कर्णिनालीकनाराचान्निर्हरन्ति शरीरतः। वाक्शल्यस्तु न निर्हर्तुं शक्यो हृदिशयो हि सः।। | 13-161-35a 13-161-35b |
हीनाङ्गानतिरिक्ताङ्गान्विद्याहीनान्वयोधिकान्। रूपद्रविणहीनांश्च सत्यहीनांश्च नाक्षिपेत्।। | 13-161-36a 13-161-36b |
नास्तिक्यं वेदनिन्दां च परनिन्दां च कुत्सनम्। द्वेषस्तम्भाभिमानं च तैक्ष्ण्यं च परिवर्जयेत्।। | 13-161-37a 13-161-37b |
परस्य दण्डं नोद्यच्छेत्क्रुद्धो नैनं निपातयेत्। अन्यत्रि पुत्राच्छिष्याच्च शिक्षार्थं ताडनं स्मृतं।। | 13-161-38a 13-161-38b |
न ब्राह्म्णान्परिवदेन्नक्षत्राणि न निर्दिशेत्। तिथिं पक्षस्य न ब्रूयात्तथाऽस्यायुर्न रिष्यते।। | 13-161-39a 13-161-39b |
`अमावास्यामृते नित्यं दन्तधावनमाचरेत्। इतिहासपुराणानि दानं वेदं च नित्यशः। गायत्रीमननं नित्यं कुर्यात्सन्ध्यां समाहितः।।' | 13-161-40a 13-161-40b 13-161-40c |
कृत्वा मूत्रपुरीषे तु रथ्यामाक्रम्य वा पुनः। पादप्रक्षालनं कुर्यात्स्वाध्याये भोजने तथा।। | 13-161-41a 13-161-41b |
त्रीणि देवाः पवित्राणि ब्राह्मणानामकल्पयन्। अदृष्टमद्भिर्निर्णिक्तं यच्च वाचा प्रशस्यते।। | 13-161-42a 13-161-42b |
यावकं कृसरं मांसं शष्कुलीं पायसं तथा। आत्मार्थंतं न प्रकर्तव्यं देवार्थं तु प्रकल्पयेत्।। | 13-161-43a 13-161-43b |
नित्यमग्निं परिचरेद्भिक्षां दद्याच्च नित्यदा। दन्तकाष्ठे च सन्ध्यायां मलोत्सर्गे च मौनगः।। | 13-161-44a 13-161-44b |
न चाभ्युदितसायी स्यात्प्रायश्चित्ती तथा भवेत्। मातापितरमुत्थाय पूर्वमेवाभिवादयेत्। आचार्यमथवाऽप्यन्तं तथाऽऽयुर्विदन्ते महत्।। | 13-161-45a 13-161-45b 13-161-45c |
वर्जयेद्दन्तकाष्ठानि वर्जनीयानि नित्यशः। भक्षयेच्छास्त्रदृष्टानि पर्वस्वपि विवर्जयेत्। उदङ्मुखश्च सततं शौचं कुर्यात्समाहितः।। | 13-161-46a 13-161-46b 13-161-46c |
अकृत्वा देवपूजां च नाचरेद्दन्तधावनम्। अकृत्वा देवपूजां च नान्यं गच्छेत्कदाचन। अन्यत्र तु गुरुं वृद्धं धार्मिकं वा विचक्षणम्।। | 13-161-47a 13-161-47b 13-161-47c |
अवलोक्यो न चादर्शो मलिनो बुद्धिमत्तरैः। न चाज्ञातां स्त्रियं गच्छेद्गर्भिणीं वा कदाचन।। | 13-161-48a 13-161-48b |
दारसङ्ग्रहणात्पूर्वं नाचरेन्मैथुनं बुधः। अन्यथा त्ववकीर्णः स्यात्प्रायश्चित्तं सदाऽऽचरेत्।। | 13-161-49a 13-161-49b |
नीदीक्षेत्परदारांश्च रहस्येकासनो भवेत्। इन्द्रियाणि सदा यच्छेत्स्वग्ने शुद्धमना भवेत्।। | 13-161-50a 13-161-50b |
उदक्शिरा न स्वपेत तथा प्रत्यक्शिरा न च। प्राक्शिरास्तु स्वपेद्विद्वांस्तथा वै दक्षिणाशिराः।। | 13-161-51a 13-161-51b |
न भग्ने नावशीर्णो च शयने प्रस्वपीत च। नान्तर्धानेन संयुक्ते न च तिर्यक्कदाचन।। | 13-161-52a 13-161-52b |
न चापि गच्छेत्कार्येण समयाद्वाऽपि नास्तिकैः। आसनं तु पदाऽऽकृष्य न प्रसज्जेत्तथा नरः।। | 13-161-53a 13-161-53b |
न नग्नः कर्हिचित्स्नायान्न निशायां कदाचन। स्नात्वा च नावमृज्येत गात्राणि सुविचक्षणः। न निशायां पुनः स्नायादापद्यग्निद्विजान्तिके।। | 13-161-54a 13-161-54b 13-161-54c |
न चानुलिम्पेदस्नात्वा वासश्चापि न निर्धुनेत्। आर्द्र एव तु वासांसि नित्यं सेवेत मानवः।। | 13-161-55a 13-161-55b |
स्रजश्च नावकृष्येत न बहिर्धारयीत च। उदक्यया च सम्भाषां न कुर्वीत कदाचन।। | 13-161-56a 13-161-56b |
नोत्सृजेत पुरिषं च क्षेत्रे मार्गस्य चान्तिके। उभे मूत्रपुरीषे तु नाप्सु कुर्यात्कदाचन।। | 13-161-57a 13-161-57b |
देवालयेऽथ गोवृन्दे चैत्ये सस्येषु विश्रमे। भोक्ष्यं भुक्त्वा क्षुतेऽध्वानं गत्वा मूत्रपुरीषयोः। द्विराचामेद्यथान्यायं हृद्गतं तु पिबन्नपः।। | 13-161-58a 13-161-58b 13-161-58c |
अन्नं बुभुक्षमाणस्तु त्रिमुखेन स्पृशेदपः। भुक्त्वा चान्नं तथैव त्रिर्द्विः पुनः परिमार्जयेत्।। | 13-161-59a 13-161-59b |
प्राङ्मुखो नित्यमश्नीयाद्वाग्यतोऽन्नमकुत्सयन्। प्रस्कन्दयेच्च मनसा भुक्त्वा चाग्निमुपस्पृशेत्।। | 13-161-60a 13-161-60b |
आयुष्यं प्राङ्मुखो भुङ्क्ते यशस्यं दक्षिणामुखः। धन्यं पश्चान्मुखो भुङ्क्त ऋतं भुङ्क्त उदङ्मुखः।। | 13-161-61a 13-161-61b |
`अग्रासनो जितक्रोधो बालपूर्वस्त्वलङ्कृतः। घृताहुतिविशुद्धान्नं हुताग्निश्च क्षिपन्ग्रसेत्।।' | 13-161-62a 13-161-62b |
अग्निमालभ्य तोयेन सर्वान्प्राणानुपस्पृशेत्। गात्राणि चैव सर्वाणि नाभिं पाणितले तथा।। | 13-161-63a 13-161-63b |
नाधितिष्ठेत्तुषं जातु केशभस्मकपालिकाः। अन्यस्य चाप्यवस्नातं दूरतः परिवर्जयेत्।। | 13-161-64a 13-161-64b |
शान्तिहोमांश्च कुर्वीत सावित्राणि च धारयेत्। निषष्णश्चापि खादेन न तु गच्छन्कदाचन।। | 13-161-65a 13-161-65b |
मूत्रं नोत्तिष्ठता कार्यं न भस्मनि न गोव्रजे। आर्द्रपादस्तु भुञ्जीत नार्द्रपादस्तु संविशेत्।। | 13-161-66a 13-161-66b |
आर्द्रपादस्तु भुञ्जानो वर्षाणां जीवते शतम्। त्रीणि तेजांसि नोच्छिष्ट आलभेत कदाचन। अग्निं गां ब्राह्मणं चैव तता ह्यायुर्न रिष्यते।। | 13-161-67a 13-161-67b 13-161-67c |
त्रीणि ज्योतींषि नोच्छिष्ट उदीक्षेत कदाचन। सूर्याचन्द्रमसौ चैव नक्षत्राणि च सर्वशः।। | 13-161-68a 13-161-68b |
ऊर्ध्वं प्राणा ह्युत्क्रमन्ति यूनः स्थविर आगते। प्रत्युत्थानाभिवादाभ्यां पुनस्तान्प्रतिपद्यते।। | 13-161-69a 13-161-69b |
अभिवादयीत वृद्धांश्च दद्याच्चैवासनं स्वयम्। कृताञ्जलिरुपासीत गच्छन्तं पृष्ठतोऽन्वियात्।। | 13-161-70a 13-161-70b |
न चासीतासने भिन्ने भिन्नकांस्यं च वर्जयेत्। नैकवस्त्रेण भोक्तव्यं न नग्नः स्नातुमर्हति।। | 13-161-71a 13-161-71b |
स्पप्तव्यं नैव नग्नेन न चोच्छिष्टोपि संविशेत्। उच्छिष्टो न स्पृशेच्छीर्षं सर्वे प्राणास्तदाश्रयाः।। | 13-161-72a 13-161-72b |
केशग्रहं प्रहारांश्च सिरस्येतान्विवर्जयेत्। न संहाताभ्यां पाणिभ्यां कण्डूयेदात्मनः शिरः। न चाभीक्ष्णं शिरःस्नायात्तथा स्यायुर्न रिष्यते।। | 13-161-73a 13-161-73b 13-161-73c |
शिरःस्नातस्तु तैलैश्च नाङ्गं किञ्चिदपि स्पृशेत्। तिलपिष्टं न चाश्नीयाद्गतसर्वरसं तथा।। | 13-161-74a 13-161-74b |
नाध्यापयेत्तथोच्छिष्टो नाधीयीत कदाचन। वाते च पूतिगन्धे च मनसाऽपि न चिन्तयेत्।। | 13-161-75a 13-161-75b |
अत्र गाथा यमोद्गीताः कीर्तयन्ति पुराविदः। आयुरस्य निकृन्तामि प्रज्ञामस्याददे तथा।। | 13-161-76a 13-161-76b |
उच्छिष्टो यः प्राद्रवति स्वाध्यायं चाधिगच्छति। यश्चानध्यायकालेऽपि मोहादभ्यस्यति द्विजः।। | 13-161-77a 13-161-77b |
तस्य वेदः प्रणश्येत आयुश्चि परिहीयते। तस्माद्युक्तो ह्यनध्याये नाधीयीत कदाचन।। | 13-161-78a 13-161-78b |
प्रत्यादित्यं प्रत्यनलं प्रतिगां च प्रतिद्विजान्। ये मेहन्ति च पन्थानं ते भवन्ति गतायुषः।। | 13-161-79a 13-161-79b |
उभे मूत्रपुरीषे तु दिवा कुर्यादुदङ्मुखः। दक्षिणाभिमुखो रात्रौ तथा हन्युर्न रिष्यते।। | 13-161-80a 13-161-80b |
त्रीन्कृशान्नावजानीयाद्दीर्घमायुर्जिजीविषु। ब्राह्मणं क्षत्रियं सर्पं सर्वे ह्याशीविषास्त्रयः।। | 13-161-81a 13-161-81b |
दहत्याशीविषः क्रुद्धो यावत्पश्यति चक्षुषा। क्षत्रियोपि दहेत्क्रुद्धो यावत्स्पृशति तेजसा।। | 13-161-82a 13-161-82b |
ब्राह्म्णिस्तु कुलं हन्याद्ध्यानेनावेक्षितेन च। तस्मादेतत्त्रयं यत्नादुपसेवेत पण्डितः।। | 13-161-83a 13-161-83b |
गुरुणा वैरनिर्बन्धो न कर्तव्यः कदाचन। अनुमान्यः प्रसाद्यश्च गुरुः क्रुद्धो युदिष्ठिर।। | 13-161-84a 13-161-84b |
सम्यङ्मिथ्याप्रवृत्तेऽपि वर्तितव्यं गुराविह। गुरुनिन्दा दहत्यायुर्मनुष्याणां न संशयः।। | 13-161-85a 13-161-85b |
दूरादावसथान्मूत्रं दूरात्पादावसेचनम्। उच्छिष्टोत्सर्जनं चैव दूरे कार्यं हितैषिणा।। | 13-161-86a 13-161-86b |
रक्तमाल्यं न धार्यं स्याच्छुक्लं धार्यं तु पण्डितैः। वर्जयित्वा तु कमलं तथा कुवलयं प्रभो।। | 13-161-87a 13-161-87b |
रक्तं शिरसि धार्यं तु तथा वानेयमित्यपि। काञ्चनीयाऽपि माला या न सा दुष्यति कर्हिचित्।। | 13-161-88a 13-161-88b |
स्नातस्य वर्णकं नित्यमार्द्रं दद्याद्विशांपते।। | 13-161-89a |
विपर्ययं न कुर्वीत वाससो बुद्धिमान्नरः। तथा नान्यधृतं धार्यं न चातिविकृतं तथा।। | 13-161-90a 13-161-90b |
अन्यदेव भवेद्वासः शयनीये नरोत्तम। अन्यद्रथ्यासु देवानामर्चायामन्यदेव हि।। | 13-161-91a 13-161-91b |
प्रियङ्गुचन्दनाभ्यां च बिल्वेन स्थगरेण च। पृथगेवानुलिम्पेत केसरेण च बुद्धिमान्।। | 13-161-92a 13-161-92b |
उपवासं च कुर्वीत स्नातः शुचिरलङ्कृतः। `नोपवासं वृथा कुर्याद्धनं नापहरेदिह।।' | 13-161-93a 13-161-93b |
पर्वकालेषु सर्वेषु ब्रह्मचारी सदा भवेत्। समानमेकपात्रे तु भुञ्जेन्नान्नं जनेश्वर।। | 13-161-94a 13-161-94b |
नावलीढमवज्ञातमाघ्रातुं भक्षयेदपि। तथा नोद्धृतसाराणि प्रेक्षतामप्रदाय च।। | 13-161-95a 13-161-95b |
नासंनिविष्टो मेधावी नाशुचिर्नि च सत्यु च। प्रतिषिद्धान्नं धर्मेषु भक्ष्यान्भुञ्जीत पृष्ठतः।। | 13-161-96a 13-161-96b |
पिप्पलं च वटं चैव शणशाकं तथैव च। उदुम्बरं न खादेश्च भवार्थी पुरुषो नृप।। | 13-161-97a 13-161-97b |
आजं गव्यं च यन्मांसं मायूरं चैव वर्जयेत्। वर्जयेच्छुष्कमांसं च तथा पर्युषितं च यत्।। | 13-161-98a 13-161-98b |
न पाणौ लवणं विद्वान्प्राश्नीयान्न च रात्रिषु। दधिसक्तून्न दोषायां पिबेन्मधु च नित्यशः।। | 13-161-99a 13-161-99b |
सायं प्रातश्च भुञ्जीत नान्तराले समाहितः। वालेन तु न भुञ्जीत परश्राद्धं तथैव च।। | 13-161-100a 13-161-100b |
वाग्यतो नैकवस्त्रश्च नासंविष्टः कदाचन। भूमौ सदैव नाश्नीयान्नाशौचं न च शब्दवत्।। | 13-161-101a 13-161-101b |
तोयपूर्वं प्रदायान्नमतिथिभ्यो विशाम्पते। पश्चाद्भुञ्जीत मेधावी न चाप्यन्यमना नरः।। | 13-161-102a 13-161-102b |
समानमेकपङ्क्त्यां तु भोज्यमन्नं नरेश्वर। विषं हालाहलं भुङ्क्ते योऽप्रदाय सुहृज्जने।। | 13-161-103a 13-161-103b |
पानीयं पायसं सक्तून्दधि सर्पिर्मधून्यपि। निरस्य शेषमन्येषां न प्रदेयं तु कस्यचित्।। | 13-161-104a 13-161-104b |
भुञ्जानो मनुजव्याघ्र नैव शङ्कां समाचरेत्। दधि चाप्यनु पानं वै न कर्तव्यं भवार्थिना।। | 13-161-105a 13-161-105b |
आचम्य चैकहस्तेन परिस्राव्य तथोदकम्। अङ्गुष्ठं चरणस्याथ दक्षिणस्यावसेचयेत्।। | 13-161-106a 13-161-106b |
पाणिं मूर्ध्नि समाधाय स्पृष्ट्वा चाग्निं समाहितः। ज्ञातिश्रैष्ठ्यमवाप्नोति प्रयोगकुशलो नरः।। | 13-161-107a 13-161-107b |
अद्भिः प्राणान्समालभ्य नाभिं पाणितले तथा। स्पृशंश्चैव प्रतिष्ठेत न चाप्यार्द्रेण पाणिना।। | 13-161-108a 13-161-108b |
अङ्गुष्ठमूलस्य तले ब्राह्मं तीर्तमुदाहृतम्। कनिष्ठिकायाः पश्चात्तु देवतीर्थमिहोच्यते।। | 13-161-109a 13-161-109b |
अङ्गुष्ठस्य च यन्मध्यं प्रदेशिन्याश्च भारत। तेन पित्र्याणि कुर्वीत स्पृष्ट्वाऽऽपो न्यायतः सदा।। | 13-161-110a 13-161-110b |
परापवादं न ब्रूयान्नाप्रियं च कदाचन। न मन्युः कश्चिदुत्पाद्यः पुरुषेणि भवार्थिना।। | 13-161-111a 13-161-111b |
एतितैस्तु कथां नेच्छेद्दर्शनं च विवर्जयेत्। संसर्गं च न गच्छेत तथाऽऽयुर्विन्दते महत्।। | 13-161-112a 13-161-112b |
न दिवा मैथुनं गच्छेन्न कन्यां न च बन्धकीम्। न चास्नातां स्त्रियं गच्छेत्तथाऽऽयुर्विन्दते महत्।। | 13-161-113a 13-161-113b |
स्वेस्वे तीर्थे समाचम्य कार्ये समुपकल्पिते। त्रिः पीत्वाऽऽपो द्विः प्रमृज्य कृतशौचो भवेन्नरः।। | 13-161-114a 13-161-114b |
इन्द्रियाणि सकृत्स्पृश्य त्रिरभ्युक्ष्य च मानवः। कुर्वीत पित्र्यं दैवं च वेददृष्टेन कर्मणा।। | 13-161-115a 13-161-115b |
ब्राह्मणार्थे च यच्छौचं तच्च मे शृणु कौरव। प्रवृत्तं चाहितं चोक्त्वा बहुभोजनवत्तदा।। | 13-161-116a 13-161-116b |
सर्वशौचेषु ब्राह्मेण तीर्थेन समुपस्पृशेत्। निष्ठीव्य तु तथा क्षुत्वा स्पृश्यापो हि शुचिर्भवेत्।। | 13-161-117a 13-161-117b |
निष्ठिवने मैथुने च क्षुते अक्ष्याविमेचने। उदक्या दर्शने तद्वन्नग्नस्याचमनं स्मृतम्। स्पृशेत्कर्णं सप्रणवं सूर्यमीक्षेत्सदा तदा।। | 13-161-118a 13-161-118b 13-161-118c |
वृद्धो ज्ञातिस्तथा मित्रमनाथा च स्वसा गुरुः। कुलीनः पण्डित इति रक्ष्या निःस्वः स्वशक्तितः। गृहे वासयितव्यास्ते धन्यमायुष्यमेव च।। | 13-161-119a 13-161-119b 13-161-119c |
गृहे पारावता धार्याः शुकाश्च सहशारिकाः। `देवताप्रतिमाऽऽदर्शश्चन्दनाः पुष्पवल्लिकाः।। | 13-161-120a 13-161-120b |
शुद्धं जलं सुवर्णं च रजतं गृहमङ्गलम्।' गृहेष्वेते न पापाय यथा वै तैलपायिकाः।। | 13-161-121a 13-161-121b |
उद्दीपकाश्च गृध्रास्च कपोता भ्रमरास्तथा। निविशेयुर्यदा तत्र शान्तिमेव तदाऽऽचरेत्।। | 13-161-122a 13-161-122b |
अमङ्गल्यः सतां शापस्तथाऽऽक्रोशो महात्मनाम्। महात्मनोतिगुह्यानि न वक्तव्यानि कर्हिचित्। | 13-161-123a 13-161-123b |
अगम्याश्च न गच्छेत राज्ञः पत्नीं सखीस्तथा| वैद्यानां बालवृद्धानां भृत्यानां च युधिष्ठिर | 13-161-124a 13-161-124b |
बन्धूनां ब्राह्मणानां च तथा शारणिकस्य च। सम्बन्धिनां च राजेन्द्र तथाऽऽयुर्विन्दते महत्।। | 13-161-125a 13-161-125b |
ब्राह्मणस्तपतिभ्यां च निर्मितं यन्निवेशनम्। तदा वसेत्सदा प्राज्ञो भवार्थी मनुजेश्वर।। | 13-161-126a 13-161-126b |
सन्ध्यायां न स्वपेद्राजन्विद्यां न च समाचरेत्। न भुञ्जीत च मेधावी तथाऽऽयुर्विन्दते महत्।। | 13-161-127a 13-161-127b |
नक्तं न कुर्यात्पित्र्याणि नक्तं चैव प्रसाधनम्। पानीयस्य क्रिया नक्तं न कार्या भूतिमिच्छता।। | 13-161-128a 13-161-128b |
वर्जनीयाश्चैव नित्यं सक्तवो निशि भारत। शेषाणि चावदातानि पानीयं चापि भोजने।। | 13-161-129a 13-161-129b |
सौहित्यं न च कर्तव्यं रात्रौ न च समाचरेत्। न भुक्त्वा मैथुनं गच्छेन्न धावेन्नातिहासकम्।' द्विजच्छेदं न कुर्वीत भुक्त्वा न च समाचरेत्।। | 13-161-130a 13-161-130b 13-161-130c |
महाकुले प्रसूतां च प्रशस्तां लक्षणैस्तथा। वयसाऽवरां सुनक्षत्रां कन्यामावोढुमर्हति।। | 13-161-131a 13-161-131b |
<अपत्यमुत्पाद्य ततः प्रतिष्ठाप्य कुलं तथा। पुत्राः प्रदेया जातेषु कुलधर्मेषु भारत।। | 13-161-132a 13-161-132b |
कन्या चोत्पाद्य दातव्या कुलपुत्राय धीमते। पुत्रा निवेश्याश्च कुलाद्भृत्या लभ्याश्च भारत।। | 13-161-133a 13-161-133b |
शिरःस्नातोथ कुर्वीत दैवं पित्र्यमथापि च।। | 13-161-134a |
तैलं जन्मदिनेऽष्टम्यां चतुर्दश्यां च पर्वसु।' नक्षत्रे न च कुर्वीत यस्मिञ्जातो भवेन्नरः। न प्रोष्ठपदयोः कार्यं तथाऽऽग्नेये च भारत।। | 13-161-135a 13-161-135b 13-161-135c |
दारुणेषु च सर्वेषु प्रत्यरिं च विवर्जयेत्। ज्योतिषे यानि चोक्तानि तानि सर्वाणि वर्जयेत्।। | 13-161-136a 13-161-136b |
प्राङ्मुखः श्मश्रुकर्माणि कारयेत्सुसमाहितः। उदङ्मुखो वा राजेन्द्र तथाऽऽयुर्विन्दते महत्।। | 13-161-137a 13-161-137b |
सामुद्रेणाम्यसा स्नानं क्षौरं श्राद्धेषु भोजनम्। अन्तर्वत्नीपतिः कुर्वन्न पुत्रफलमश्नुते।। | 13-161-138a 13-161-138b |
सतां गुरूणां वृद्धानां कुलस्त्रीणां विशेषतः।' परिवादं न च ब्रूयात्परेषामात्मनस्तथा। परिवादो ह्यधर्माय प्रोच्यते भरतर्षभ।। | 13-161-139a 13-161-139b 13-161-139c |
वर्जयेद्व्यङ्गिनीं नारीं तथा कन्यां नरोत्तम। समार्षां व्यङ्गिकां श्चैव मातुः सकुलजां तथा।। | 13-161-140a 13-161-140b |
वृद्धां प्रव्रजितां चैव तथैव च पतिव्रताम्। तथा निकृष्टवर्णा च वर्णोत्कृष्टां च वर्जयेत्। | 13-161-141a 13-161-141b |
अयोनिं च वियोनिं च न गच्छेत विचक्षणः। पिङ्गलां कुष्ठिनीं नारीं न त्वमुद्वोढुमर्हसि।। | 13-161-142a 13-161-142b |
अपस्मारिकुले जातां निहीनां चापि वर्जयेत्। श्वित्रिणां च कुले जातां क्षयिणां मनुजेश्वर।। | 13-161-143a 13-161-143b |
`सुरोमशामतिस्थूलां कन्यां मातृपितृस्थिताम्। अलज्जां भ्रातृजां तुष्टां वर्जयेद्रक्तकेशिनीम्।।' | 13-161-144a 13-161-144b |
लक्षणैरन्विता या च प्रशस्ता या च लक्षणैः। मनोज्ञां दर्शनीयां च तां भवान्वोढुमर्हति।। | 13-161-145a 13-161-145b |
महाकुले निवेष्टव्यं सदृशे वा युधिष्ठिर। अवरा पतिता चैव न ग्राह्या भूतिमिच्छता।। | 13-161-146a 13-161-146b |
अग्नीनुत्पाद्य यत्नेन क्रियाः सुविहिताश्च याः। वेदे च ब्राह्मणैः प्रोक्तास्ताश्च सर्वाः समाचरेत्।। | 13-161-147a 13-161-147b |
न चेर्ष्या स्त्रीषु कर्तव्या रक्ष्या दाराश्च सर्वशः। अनायुष्या भवेदीर्ष्या तस्मादीर्ष्यां विवर्जयेत्।। | 13-161-148a 13-161-148b |
अनायुष्यं दिवा स्वप्नं तथाऽभ्युदितशायिता। प्रातर्निशायां च तथा ये चोच्छिष्टा भवन्ति च।। | 13-161-149a 13-161-149b |
पारदार्यमनायुष्यं नापितोच्छिष्टता तथा। यत्नतो वै न कर्तव्यमत्याशश्चैव भारत।। | 13-161-150a 13-161-150b |
सन्ध्यां न भुञ्ज्यान्न स्नायेन्न पुरीषं समुत्सृजेत्। प्रयतश्च भवेत्तस्यां न च किञ्चित्समाचरेत्।। | 13-161-151a 13-161-151b |
ब्राह्मणान्पूजयेच्चापि तथा स्नात्वा नराधिप। देवांश्च प्रणमेत्स्नातो गुरूंश्चाप्यभिवादयेत्।। | 13-161-152a 13-161-152b |
अनिमन्त्रितो न गच्छेत यज्ञं गच्छेत दर्शकः। अनर्चिते ह्यनायुष्यं गमनं तत्र भारत।। | 13-161-153a 13-161-153b |
न चैकेन परिव्रज्यं न गन्तव्यं तथा निशि। नानापदि परस्यान्नमनिमन्त्रितमाहरेत्।। | 13-161-154a 13-161-154b |
एकोद्दिष्टं न भुञ्जीत प्रथमं तु विशेषतः। सपिण्डीकरणं वर्ज्यं सविधानं च मासिकम्।। | 13-161-155a 13-161-155b |
अनागतायां सन्ध्यायां पश्चिमायां गृहे वसेत्।। | 13-161-156a |
मातुः पितुर्गुरूणां च कार्यमेवानुशासनम्। हितं चाप्यहितं चापि न विचार्यं नरर्षभ।। | 13-161-157a 13-161-157b |
`क्षत्रियस्तु विशेषेण धनुर्वेदं समभ्यसेत्।' धनुर्वेदे च वेदे च यत्नः कार्यो नाराधिप।। | 13-161-158a 13-161-158b |
हस्तिपृष्ठेऽश्वपृष्ठे च रथचर्यासु चैव ह। यत्नवान्भव राजेन्द्र यत्नवान्सुवमेधते।। | 13-161-159a 13-161-159b |
अप्रधृष्यश्च शत्रूमां भृत्यानां स्वजनस्य च। प्रजापालनयुक्तश्च नारतिं लभते क्वचित्।। | 13-161-160a 13-161-160b |
युक्तिशास्त्रं च ते ज्ञेयं शब्दशास्त्रं च भारत। गान्धर्वशास्त्रं च कलाः परिज्ञेया नराधिप।। | 13-161-161a 13-161-161b |
पुराणमितिहासाश्च तथाऽऽख्यानानि यानि च। महात्मनां च चरितं श्रोतव्यं नित्यमेव ते।। | 13-161-162a 13-161-162b |
`मान्यानां माननं कुर्यान्निन्द्यानां निन्दनं तथा। गोब्राह्मणार्थे युध्येत प्राणानपि परित्यजेत्।। | 13-161-163a 13-161-163b |
न स्त्रीषु सज्जेद्द्रष्टव्यं शक्त्या दानरुचिर्भवेत्। न ब्राह्मणान्परिभवेत्कार्पण्यं ब्राह्मणैर्वृतम्। पतितान्नाभिभाषेत नाह्वयेत रजस्वलाम्।।' | 13-161-164a 13-161-164b 13-161-164c |
पत्नीं रजस्वलां चैव नाभिगच्छेन्न चाह्वयेत्। स्नातां चतुर्थे दिवसे रात्रौ गच्छेद्विचक्षणः।। | 13-161-165a 13-161-165b |
पञ्चमे दिवसे नारी षष्ठेऽहनि पुमान्भवेत्। `आषोडशादृतुर्मुख्यः पुत्रजन्मनि शब्दितः' | 13-161-166a 13-161-166b |
एतेन विधिना पत्नीमुपगच्छेत पण्डितः। ज्ञातिसम्बन्धिमित्राणि पूजनीयानि सर्वशः।। | 13-161-167a 13-161-167b |
यष्टव्यं च यथाशक्ति यज्ञैर्विविधदक्षिणैः। अत ऊर्ध्वमरण्यं च सेवितव्यं नराधिप।। | 13-161-168a 13-161-168b |
एष ते लक्षणोद्देश आयुष्याणां प्रकीर्तितः। शेषस्त्रैविद्यवृद्धेभ्यः प्रत्याहार्यो युधिष्ठिर।। | 13-161-169a 13-161-169b |
एष ते लक्षणोद्देश आयुष्याणां प्रकीर्तितः। शेषस्त्रैविद्यवृद्धेभ्यः प्रत्याहार्यो युधिष्ठिर।। | 13-161-170a 13-161-170b |
आचारो भूतिजनन आचारः कीर्तिवर्धनः। आचाराद्वर्धते ह्यायुराचारो हन्त्यलक्षणम्।। | 13-161-171a 13-161-171b |
आगमानां हि सर्वेषामाचारः श्रेष्ठ उच्यते। आचारप्रभवो धर्मो धर्मादायुर्विवर्धते।। | 13-161-172a 13-161-172b |
एतद्यशस्यमायुष्यं स्वर्ग्यं स्वस्त्ययनं महत्। अनुकम्प्य सर्ववर्णान्ब्रह्मणा समुदाहृतम्।। | 13-161-173a 13-161-173b |
य इदं शृणुयान्नित्यं यश्चापि परिकीर्तयेत्। स शुभान्प्राप्नुयाल्लोकान्सदाचारपरो नृप।। | |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि एकषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 161 ।। |
13-161-3 जपैर्होमैस्तथौषधैरिति झ.पाठः।। 13-161-5 वर्तयन् अनुतिष्ठन्।। 13-161-8 अलक्षणं कुष्ठापस्मारादिविरुद्धं लक्षणम्।। 13-161-10 श्रवात् श्रवणात्। तं पुरुषम्। जनाः साधवः।। 13-161-15 सङ्कुसुको दुर्जनः अस्थिरश्च। नित्योच्छिष्टः सूचकश्चेति क.थ.पाठः।। 13-161-17 उपसृष्टं राहुग्रस्तम्।। 13-161-29 उपानहौ च छत्रं च इति थ.पाठः।। 13-161-39 न रिष्यते न हिंस्यते।। 13-161-48 त्रीणि भोज्यानि। अदृष्टं शूद्रोदक्यादिभिः।। 13-161-52 अज्ञातामृतुमतीत्वेन कामुकत्वेन वा।। 13-161-52 अन्तर्धाने अत्यन्तमन्धकारे। संयुक्ते इतरेण स्त्र्यादिना।। 13-161-52 स्नात्वा वासो न निर्धुनेत् इति। न चैवार्द्राणि वासांसि इति च.झ.पाठः।। 13-161-60 प्रस्कन्दयेदन्नशेषं किञ्चित्त्यजेत्। भुक्त्वा च मनसाग्निमुपस्पृशेत्।। 13-161-61 ऋतं निःश्रेयसमिच्छन्निति शेषः।। 13-161-63 प्राणान्नासादीन् ऊर्ध्वच्छिद्राणि।। 13-161-64 अवस्नातं स्नानजलं। अन्यस्य चाप्युपस्थानं दूरतः परिवर्जयेत् इति क.थ.ध.पाठः।। 13-161-65 सावित्राणि मन्त्रविशेषान्। शान्तिहोमांश्च कुर्वीत पवित्राणि च कारयेत् इति क.थ.ध.पाठः।। 13-161-73 नरिष्यते हिंस्यते।। 13-161-74 शिरोभ्यक्तेन तैलेनेति क.थ.ध.पाठः।। 13-161-75 न चिन्तयेत् वेदम्।। 13-161-76 प्रजास्तस्याददे तथा इति झ.पाठः।। 13-161-85 मिथ्याप्रवृत्तेपि सम्यग्वर्तितव्यम्।। 13-161-90 विपर्ययमौत्तराधर्यम्। अपदशं दशाहीनम्। न चापदशमेव चेति झ.पाठः।। 13-161-93 उपवासं ब्रह्मचर्यम्।। 13-161-96 धर्मेषु श्राद्धादिषु।। 13-161-100 वालेन केशेन उपलक्षितम्। परश्राद्धं शत्रुश्राद्धम्।। 13-161-104 निरस्य पानीयादीन्विहाय। अन्येषां भक्षाणां शेषमन्यस्मै न देयम्।। 13-161-105 अधिकं तोयपानं तु न कर्तव्यं इति ङ.पाठः। शङ्कां जीर्यति न वेति। दधीति तक्रं त्वनुपानं कर्तव्यमेव। यथेष्टं भुंक्ष्व माभैषीस्तक्रं सलवणं पिबेति तस्य दृष्टार्थत्वोक्तेः।। 13-161-108 प्राणान्नासादीन्।। 13-161-113 नच वर्धकीम् इति ड.थ.ध.पाठः। नच नर्तकीम् इति क.पाठः।। 13-161-121 एते तैलपायिकादिवन्न पापाय। अभ्युदयायेत्यर्थः। पारावतादयः सर्वे पक्षिविशेषा एव।। 13-161-125 शारणिकस्य रक्षणार्थिनः। तथा नागरिकस्य चेति ध.पाठः।। 13-161-128 प्रसाधनं केशानां संस्कारादिकम्। पानीयस्य क्रिया स्नानं न नक्तं स्रायादिति गृहे रात्रौ शिरःस्नाननिषेधः।। 13-161-132 पुत्राः प्रदेया ज्ञानेष्विति झ.पाठः। ज्ञानेषु बहुज्ञाननिमित्तं पुत्रा देया विद्वत्सु समर्पणीयाः।। 13-161-133 कुलात्सत्कुलसम्बन्धेन। निवेश्या विवाह्याः। लभ्या लम्भनीयाः।। 13-161-135 तैलाभ्यञ्जनमष्टम्यामिति ङ.थ.पाठः। आग्नेये कृत्तिकायाम्।। 13-161-136 स्वनक्षत्राद्दिननक्षत्रं यावद्गणयित्वा नवभिर्भागे हृते पञ्चमी तारा प्रत्यरिः।। 13-161-140 व्यङ्गिनीं न्यूनाङ्गीम्। व्यङ्गिकां विरुद्धाङ्गेनाधिकेन युक्ताम्। समार्षा समानप्रवराम्।। 13-161-142 अयोनि अज्ञातकुलाम्। वियोनिं हीनकुलाम्।। 13-161-150 नापितोच्छिष्टता श्मश्रुकर्मोत्तरमस्नातता।। 13-161-153 दर्शको द्रष्टा।। 13-161-154 परिव्रज्यं देशान्तरे गन्तव्यम्।। 13-161-157 मातुः पितुश्च पुत्राणां कार्यमिति थ.पाठः।। 13-161-169 आयुष्याणामा**ष्कराणां कर्मणाम्। उद्देशः संक्षेपः।।
अनुशासनपर्व-160 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-162 |