महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-176
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भीष्मेण युदिष्ठिरंप्रति हिंसाया मांसभक्षणस्य च गर्हणम्।। 1 ।।
वैशम्पायन उवाच। | 13-176-1x |
ततो युधिष्ठिरो राजा शरतल्पे पितामहम्। पुनरेव महाराज पप्रच्छ वदतांवरः।। | 13-176-1a 13-176-1b |
युधिष्ठिर उवाच। | 13-176-2x |
ऋषयो ब्राह्मणा देवाः प्रशंसन्ति महामते। अहिंसालक्षणं धर्मं वेदप्रामाण्यदर्शनात्।। | 13-176-2a 13-176-2b |
कर्मणा न नरः कुर्वन्हिंसां पार्थिवसत्तम। वाचा च मनसा चैवं ततो दुःखात्प्रमुच्यते।। | 13-176-3a 13-176-3b |
भीष्म उवाच। | 13-176-4x |
चतुर्विधेयं निर्दिष्टा ह्यहिंसा ब्रह्मवादिभिः। एकैकतोऽपि विभ्रष्टा न भवत्यरिसूदन।। | 13-176-4a 13-176-4b |
यथा सर्वश्चतुष्पाद्वै त्रिभिः पादैर्न तिष्ठति। तथैवेयं महीपाल कारणैः प्रोच्यते त्रिभिः।। | 13-176-5a 13-176-5b |
यथा नागपदेऽन्यानि पदानि पदगामिनाम्। सर्वाण्येवापिधीयन्ते पदजातानि कौञ्जरे।। | 13-176-6a 13-176-6b |
एवं लोकेष्वहिंसा तु निर्दिष्टा धर्मतः पुरा। कर्म्णा लिप्यते जन्तुर्वाचा च मनसाऽपि च।। | 13-176-7a 13-176-7b |
पूर्वं तु मनसा त्यक्त्वा त्यजेद्वाचाऽथ कर्मणा। `हिंसां तु नोपयुञ्जीत तथा हिंसा चतुर्विधा।। | 13-176-8a 13-176-8b |
काये मनसि वाक्येऽपि दोषा ह्येते प्रकीर्तिताः'। [न भक्षयति यो मांसं त्रिविधं स विमुच्यते।। | 13-176-9a 13-176-9b |
त्रिकारणं तु निर्दिष्टं श्रूयते ब्रह्मवादिभिः। मनो वाचि तथाऽऽस्वादे दोषा ह्येषु प्रतिष्ठिताः।।] | 13-176-10a 13-176-10b |
न भक्षयन्त्यतो मांसं तपोयुक्ता मनीषिणः। दोषांस्तु भक्षणे राजन्मांसस्येह निबोध मे।। | 13-176-11a 13-176-11b |
पुत्र मांसोपमं जानन्खादते यो विचेतनः। मांसं मोहसमायुक्तः पुरुषः सोऽधमः स्मृतः।। | 13-176-12a 13-176-12b |
पितृमातृसमायोगे पुत्रत्वं जायते यथा। हिंसां कृत्वाऽवशः पापो भूयिष्ठं जायते तथा।। | 13-176-13a 13-176-13b |
रसश्च हृदि जिह्वाया ज्ञानं प्रज्ञायते यथा। तथा शास्त्रेषु नियतं रागो ह्यास्वादिताद्भवेत्।। | 13-176-14a 13-176-14b |
संस्कृतासंस्कृताः पक्वा लवणालवणास्तथा। प्रजायन्ते यथा भावास्तथा चित्तं निरुध्यते।। | 13-176-15a 13-176-15b |
भेरीमृदङ्गशब्दांश्च तन्त्रीशब्दांश्च पुष्कलान्। निषेविष्यन्ति वै मन्दा मांसभक्षाः कथं नराः।। | 13-176-16a 13-176-16b |
`परेषां धनधान्यानां हिसकाः स्तावकास्तथा। प्रशंसकाश्च मांसस्य नित्यं स्वर्गे बहिष्कृताः।। | 13-176-17a 13-176-17b |
अचिन्तितमनिर्दिष्टमसङ्कल्पितमेव च। रसगृद्ध्याऽभिभूता ये प्रशंसन्ति फलार्थिनः।। | 13-176-18a 13-176-18b |
प्रशंसा ह्येव मांसस्य दोषकल्पफलान्विता।। | 13-176-19a |
`भस्म विष्ठा कृमिर्वाऽपि निष्ठा यस्येदृशी ध्रुवा। स कायः परपीडाभिः कथं धार्योविपश्चिता।। | 13-176-20a 13-176-20b |
जीवितं हि परित्यज्य बहवः साधवो जनाः। स्वमांसैः परमांसानि परिपाल्य दिवं गताः।। | 13-176-21a 13-176-21b |
एवमेषा महाराज चतुर्भिः कारणैः स्मृता। अहिंसा तव निर्दिष्टा सर्वधर्मानुसंहिता।। | 13-176-22a 13-176-22b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि षट्सप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 176 ।। |
13-176-4 मनसा वचसा कर्मणा भक्षणेनेति चतुर्विधा हिंसा। तत्र एकेन त्यक्ता सर्वात्मना त्यक्ता न भवति।। 13-176-6 नागपदे गजपदे क्षुद्रपदानामिव सर्वेषां धर्माणां समावेशो भवति अहिंसायाम्। कौञ्जरे पदे दत्ते सति सर्वाणि पदानि यथा पिधीयन्ते एवं हिंसायां सर्वे धर्माः पिधीयन्ते।। 13-176-13 यथा त्रीपुंयोगे नान्तरीयकं पुत्रजन्म एवं हिंसकस्य भूयिष्ठं पापयोनौ जन्मेत्यर्थः।।
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