महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-158
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भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति ब्रह्मस्वापहारस्यानर्थहेतुताया प्रमाणतया नृपचण्डलसंवादानुवादः।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-158-1x |
ब्राह्मणस्वानि ये मन्दा हरन्ति भरतर्षभ। नृशंसकारिणो योनिं कां ते गच्छन्ति मानवाः।। | 13-158-1a 13-158-1b |
भीष्य उवाच। | 13-158-2x |
पातकानां परं ह्येतद्ब्रह्मस्वहरणं बलात्। सान्वयास्ते विनश्यन्ति चण्डालाः प्रेत्य चेह च।। | 13-158-2a 13-158-2b |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनमम्। चण्डालस्य च संवादं क्षत्रबन्धोश्च भारत।। | 13-158-3a 13-158-3b |
राजोवाच। | 13-158-4x |
वृद्धरूपोऽसि चण्डाल बालवच्च विचेष्टसे। श्वखराणां रजःसेवी कस्मादुद्विजसे गवाम्।। | 13-158-4a 13-158-4b |
साधुभिर्गर्हितं कर्म चण्डालस्य विधीयते। कस्माद्गोरजसा ध्वस्तमङ्गं तोयेन सिञ्चसि।। | 13-158-5a 13-158-5b |
चण्डाल उवाच। | 13-158-6x |
ब्राह्मणस्य गवां राजन्प्रयान्तीनां रजः पुरा। सोममुद्ध्वंसयामास तं सोममपिबन्द्विजाः।। | 13-158-6a 13-158-6b |
भृत्यानामपि राज्ञस्तु रजसा ध्वंसितं मखे। तत्पानाच्च द्विजाः सर्वे क्षिप्रं नरकमाविशन्।। | 13-158-7a 13-158-7b |
दीक्षितश्च स राजाऽपि क्षिप्रं नरकमाविशत्। सह तैर्याजकैः सर्वैर्ब्रह्मस्वमुपजीव्य तत्।। | 13-158-8a 13-158-8b |
येऽपि तत्रापिबन्क्षीरं घृतं दधि च मानवाः। ब्राह्मणाः सहराजन्याः सर्वे नरकमाविशन्।। | 13-158-9a 13-158-9b |
जघ्नुस्ताः पयसा पुत्रांस्तथा पौत्रान्विधूय तान्। पशूनवेक्षमाणश्च साधुवृत्तेन दंपती।। | 13-158-10a 13-158-10b |
अहं तत्रावसं राजन्ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः। तासां मे रजसा ध्वस्तं भैक्षमासीन्नराधिप | 13-158-11a 13-158-11b |
चण्डालोऽहं ततो राजन्भुक्त्वा तदभवं नृप। ब्रह्मस्वहारी न नृपः सोऽप्रतिष्ठां गतिं ययौ।। | 13-158-12a 13-158-12b |
तस्माद्धरेन्न विप्रस्वं कदाचिदपि किञ्चन। न पश्येन्नानुमोदेच्च न हर्तुं किञ्चिदाहरेत्।। | 13-158-13a 13-158-13b |
ब्रह्मस्वं रजसा ध्वस्तं भुक्त्वा मां पश्य यादृशम्। तस्मात्सोमोऽप्यविक्रेयः पुरुषेण विपश्चिता।। | 13-158-14a 13-158-14b |
एतद्धि धनमुत्कृष्टं द्विजानामविशेषतः। विक्रयं त्विह सोमस्य गर्हयन्ति मनीषिणः।। | 13-158-15a 13-158-15b |
ये चैनं क्रीणते तात ये च विक्रीणते जनाः। ते तु वैवस्वतं प्राप्य रौरवं यान्ति सर्वशः।। | 13-158-16a 13-158-16b |
सोमं तु रजसा ध्वस्तं विक्रीणन्विधिपूर्वकम्। श्रोत्रियो वार्धुषी भूत्वा नचिरं स विनश्यति।। | 13-158-17a 13-158-17b |
नरकं त्रिंशतं प्राप्य स्वविष्ठामुपजीवति। ब्रह्मस्वहारी नरकान्यातनाश्चानुभूय तु। मलेषु च कृमिर्भूत्वा श्वविष्ठामुपजीवती।। | 13-158-18a 13-158-18b 13-158-18c |
श्वचर्यामतिमानं च सखिदारेषु विप्लवम्। तुलयाधारयद्धर्मो ह्यतिमानोऽतिरिच्यते।। | 13-158-19a 13-158-19b |
म्लानं मां विकलं पश्य विवर्णं हरिणं कृशम्। अतिमानेनि मां पश्य पापां गतिमुपागतम्।। | 13-158-20a 13-158-20b |
अहं वै विपुले तात कुले दनसमन्विते। पौराणे जन्मनि विभो ज्ञानविज्ञानपारगः।। | 13-158-21a 13-158-21b |
अभवं तत्र जानानो ह्येतान्दोषान्मदात्सदा। संरब्ध एव भूतानां पृष्ठमांसमभक्षयम्।। | 13-158-22a 13-158-22b |
सोऽहं वै विदितः सर्वैर्दूरगो वनिनो वने। साधूनां परिभावेप्सुर्विप्राणां गर्वितो धनैः। इमामवस्थां सम्प्राप्तः पश्य कालस्य पर्ययम्।। | 13-158-23a 13-158-23b 13-158-23c |
आदीप्तमिव चैलान्तं भ्रमरैरिव चार्दितम्। धावमानं सुसंरब्दं फश्य मां रजसाऽन्वितम्।। | 13-158-24a 13-158-24b |
स्वाध्यायैस्तु महात्पापं हरन्ति गृहमेधिनः। दानैः पृथग्विधैश्चापि विप्रजात्यां मनीषिणः।। | 13-158-25a 13-158-25b |
तथा पापकृतं विप्रमाश्रमस्तं महीपते। सर्वसङ्गविनिर्मुक्तं छन्दांस्युत्तारयन्त्युत।। | 13-158-26a 13-158-26b |
अहं हि पापयोन्यां वै प्रसूतः क्षत्रियर्षभ। निश्चयं नाधिगच्छामि कथं मुच्येयमित्युत।। | 13-158-27a 13-158-27b |
जातिस्मरत्वं च मम केनचित्पूर्वकर्मणा। शुभने येन मोक्षं वै प्राप्तुमिच्छाम्यहं नृप।। | 13-158-28a 13-158-28b |
त्वमिमं सम्प्रपन्नाय संशयं ब्रूहि पृच्छते। चण्डालत्वात्कथमहं मुच्येयमिति सत्तम।। | 13-158-29a 13-158-29b |
राजोवाच। | 13-158-30x |
चण्डाल प्रतिजानीहि येन मोक्षमवाप्स्यसि। ब्राह्मणार्थे त्यजन्प्राणान्गतिमिष्टामवाप्स्यसि।। | 13-158-30a 13-158-30b |
दत्त्वा शरीरं क्रव्याद्भ्यो रणाग्नौ द्विजहेतुकम्। हित्वा प्राणान्प्रमोक्षस्ते नान्यथा मोक्षमर्हसि।। | 13-158-31a 13-158-31b |
भीष्म उवाच। | 13-158-32x |
इत्युक्तः स तदा तेन ब्रह्मस्वार्थे परन्तप। हित्वा रणमुखे प्राणान्गतिमिष्टामवाप ह।। | 13-158-32a 13-158-32b |
तस्माद्रक्ष्यं त्वया पुत्र ब्रह्मस्वं भरतर्षभ। यदीच्छसि महाबाहो शाश्वतीं गतिमात्मनः।। | 13-158-33a 13-158-33b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अष्टपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 158 ।। |
13-158-4 रजःसेवी रजोगुण्ठितः।। 13-158-5 गोरजसा गोपरागेण प्रचलत्या धेनोरूधसः सकाशात्प्रसरन्त्यः क्षीरविप्रुषोऽत्र परागपर्यायेण रजःपदेनोच्यन्ते। ध्वस्तं व्याप्तं विप्रुण्मात्रेणापि ब्रह्मस्वेन देहस्निग्धत्वं माभूदिति भावः।। 13-158-6 रजः क्षीरं कर्तृ मार्गस्थवल्लीरूपं सोममुद्ध्वंसयामास नाशितवत्।। 13-158-10 ता गावः परैः पीतेन स्वपयसा तेषां पुत्रपौत्रान् पशून् दम्पती च जघ्नुः सद्योऽल्पायुषश्चक्रुः।। 13-158-16 एनं ब्रह्मस्वसृष्टम्।। 13-158-19 श्वचर्यां नीचसेवाम्। अतिमानी इतरद्वयापेक्षया अत्यन्तं पापीत्यर्थः। स्वस्वदारेषु विप्लवमिति ध.पाठः।। 13-158-22 भूतानामुपरि सदा संरब्द एव कुपित एवेत्यन्वयः।। 13-158-24 भ्रमरैस्तीक्ष्णतुण्डैरर्द्यमानमिव चेलान्तवद्दह्यमानमिव क्लिश्यन्तं मां पश्य। आदीप्तमिव चालातमिति थ.पाठः।।
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