महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-121
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फेनपस्य गोभिः कदाचन गोलोकादेत्य गिरिह्रदे स्त्रीरूपधारणेन विहरमाणानां गवामवलोकनम्।। 1 ।। फेनपस्य गोभिः स्वेषां गोलोकप्राप्त्युपायं पृष्टाभिस्ताभिस्ताः प्रति रन्तिदेवस्य सत्रे आत्मनां पशुत्वोपकल्पनस्य तदुपायत्वोक्तिः।। 2 ।। फेनपस्य स्वेष्वतिवत्सलतया यागीयपशुत्वे तदभ्यनुज्ञानस्य दुःसम्पादतां चिन्तयन्तीषु तासु कपिलाभिस्ताभ्यः स्वेषामेव गोषु श्रैष्ठ्यप्राप्तिरूपवराधिगमेन पेनपवधप्रतिज्ञानम्।। 3 ।।
भीष्म उवाच। | 13-121-1x |
कदाचित्कामरूपिण्यो गावः स्त्रीवेषमाश्रिताः। ह्रदे क्रीडन्ति संहृष्टा गायन्त्यः पुण्यलक्षणाः।।? | 13-121-1a 13-121-1b |
ददृशुस्तस्य गावो वै विस्मयोत्फुल्ललोचनाः। ऊचुश्च का यूयमिति स्त्रियो मानुषया गिरा।। | 13-121-2a 13-121-2b |
स्त्रिय ऊचुः। | 13-121-3x |
गाव एव वयं सर्वकर्मभिः शोभनैर्युताः। सर्वाः स्त्रीवेषधारिण्यो यथाकामं चरामेहे। | 13-121-3a 13-121-3b |
गाव ऊचुः। | 13-121-4x |
गवां गावः परं दैवं गवां गावः परा गतिः। कथयध्वमिहास्माकं केन वः सुकृतां गतिः।। | 13-121-4a 13-121-4b |
स्त्रिय ऊचुः। | 13-121-5x |
अस्माकं हविषा देवा ब्राह्मणास्तर्पितास्तथा। कव्येन पितरश्चैव हव्येनाग्निश्च तर्पितः।। | 13-121-5a 13-121-5b |
प्रजया च तथाऽस्माकं कृषिरभ्युद्धृता सदा। शकटैश्चापि संयुक्ता दशवाहशतेन वै।। | 13-121-6a 13-121-6b |
तदेतैः सुकृतैः स्फीतैर्वयं याश्चैव नः प्रजाः। गोलोकमनुसम्प्राप्ता यः परं कामगोचरः।। | 13-121-7a 13-121-7b |
यूयं तु सर्वा रोहिण्यः सप्रजाः सहपुङ्गवाः। अधोगामिन्य इत्येव पश्यामो दिव्यचक्षुषा।। | 13-121-8a 13-121-8b |
गाव ऊचुः। | 13-121-9x |
एवं गवां परं दैवं गाव एव परायणम्। स्वपक्ष्यास्तारणीया वः शरणाय गता वयम्।। | 13-121-9a 13-121-9b |
किमस्माभिः करणीयं वर्तितव्यं कथञ्चन। प्राप्नुयाम च गोलोकं भवाम न च गर्हिताः।। | 13-121-10a 13-121-10b |
स्त्रिय ऊचुः। | 13-121-11x |
वर्तते रन्तिदेवस्य सत्रं वर्षसहस्रकम्। तत्र तस्य नृपस्याशु पशुत्वमुपगच्छतः।। | 13-121-11a 13-121-11b |
ततस्तस्योपयोगेन पशुत्वे यज्ञसंस्कृताः। गोलोकान्प्राप्स्यथ शुभांस्तेन पुण्येन संयुताः।। | 13-121-12a 13-121-12b |
भीष्म उवाच। | 13-121-13x |
एतत्तासां वचः श्रुत्वा गवां संहृष्टमानसाः। गमनाय मनश्चक्रुरौत्सुक्यं चागमन्परम्।। | 13-121-13a 13-121-13b |
न हि नो भार्गवो दाता पशुत्वेनोपयोजनम्। यज्ञस्तस्य नरेन्द्रस्य वर्तते धर्मतस्तथा।। | 13-121-14a 13-121-14b |
वयं न चाननुज्ञाताः शक्ता गन्तुं कथञ्चन। अवोचन्नथ तत्रत्या भार्गवो वध्यतामयम्।। | 13-121-15a 13-121-15b |
एतत्सर्वा रोचयत न हि शक्यमतोऽन्यथा। लोकान्प्राप्तुं सहास्माभिर्निश्चयः क्रियतामयम्।। | 13-121-16a 13-121-16b |
न तु तासां समेतानां काचिद्धोरेण चक्षुषा। शक्नोति भार्गवं द्रष्टुं सत्कृतेनोपसंयुता।। | 13-121-17a 13-121-17b |
अथ पद्मसवर्णाभा भास्करांशुसमप्रभाः। जपालोहितताम्राक्ष्यो निर्मांसकठिनाननाः।। | 13-121-18a 13-121-18b |
रोहिण्यः कपिलाः प्राहुः सर्वासां वै समक्षतः। मेघस्तनितनिर्घोषास्तेजोभिरभिरञ्चिताः।। | 13-121-19a 13-121-19b |
वयं हि तं वधिष्यामः सुमित्रं नात्रं संशयः। सुकृतं पृष्ठतः कृत्वा किं नः श्रेयो विधास्यथ।। | 13-121-20a 13-121-20b |
गाव ऊचुः। | 13-121-21x |
कपिलाः सर्ववर्णेषु प्रधानत्वमवाप्स्यथ। गवां शतफला चैकां दत्त्वा फलमवाप्स्यति।। | 13-121-21a 13-121-21b |
भीष्म उवाच। | 13-121-22x |
एतद्गवां वचः श्रुत्वा कपिला हृष्टमानसाः। चक्रुः सर्वा भार्गवस्य सुमित्रस्य वधे मतिम्।। | 13-121-22a 13-121-22b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि एकविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 121 ।। |
13-121-2 तस्य फेनपस्य स्त्रियः प्रति।। 13-121-4 सुकृतां पुण्यकृताम्।। 13-121-6 शक्ताश्चापि तथा युक्ता इति थ.ध.पाठः।।
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