महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-108
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इन्द्रम्प्रति ब्रह्मणा गोदानफलप्रशंसनम्।। 1 ।।
पितामह उवाच। | 13-108-1x |
योऽयं प्रश्नस्त्वया पृष्टो गोप्रदानादिकारितः। नान्यः प्रष्टास्ति लोकेस्मिंस्त्वत्तोन्यो हि शतक्रतो? | 13-108-1a 13-108-1b |
सन्ति नानाविधा लोका यांस्त्वं शक्र न पश्यसि। पश्यामि यानहं लोकानेकपत्न्यश्च याः स्त्रियः।। | 13-108-2a 13-108-2b |
कर्मभिश्चापि सुशुभैः सुव्रता ऋषयस्तथा। सशरीरा हि तान्यान्ति ब्राह्मणाः शुभबुद्धयः।। | 13-108-3a 13-108-3b |
शरीरन्यासमोक्षेण मनसा निर्मलेन च। स्वप्नभूतांश्च ताँल्लोकान्पश्यन्तीहापि सुव्रताः।। | 13-108-4a 13-108-4b |
ते तु लोकाः सहस्राक्ष शृणु यादृग्गुणान्विताः। न तत्र क्रमते कालो न जरा न च पावकः।। | 13-108-5a 13-108-5b |
तथा नास्त्यशुभं किञ्चिन्न व्याधिस्तत्र न क्लमः। यद्यच्च गावो मनसा तस्मिन्वाञ्छन्ति वासव।। | 13-108-6a 13-108-6b |
तत्सर्वं प्रापयन्ति स्म मम प्रत्यक्षदर्शनात्। कामगाः कामचारिण्यः कामात्कामांश्च भुञ्जते।। | 13-108-7a 13-108-7b |
वाप्यः सरांसि सरितो विविधानि वनानि च। गृहाणि पर्वताश्चैव यावद्द्रव्यं च किञ्चन।। | 13-108-8a 13-108-8b |
मनोज्ञं सर्वभूतेभ्यस्तद्वनं तत्र दृश्यते। ईदृशान्विद्दि ताँल्लोकान्नास्ति लोकस्तथाविधः।। | 13-108-9a 13-108-9b |
तत्र सर्वसहाः क्षान्ता वत्सला गुरुवर्तिनः। अहङ्कारैर्विरहिता यान्ति शक्र नरोत्तमाः।। | 13-108-10a 13-108-10b |
यः सर्वमांसानि न भक्षयीत पुमान्सदा भावितो धर्मयुक्तः। मातापित्रोरर्चिता सत्ययुक्तः शुश्रुषिता ब्राह्मणानामनिन्द्यः।। | 13-108-11a 13-108-11b 13-108-11c 13-108-11d |
अक्रोधनो गोषु तथा द्विजेषु धर्मे रतो गुरुशुश्रूषकश्च। यावज्जीवं सत्यवृत्ते रतश्च दाने रतो यः क्षमी चापराधे।। | 13-108-12a 13-108-12b 13-108-12c 13-108-12d |
मृदुर्दान्तो देवपरायणश्च सर्वातिथिश्चापि यथा दयावान्। ईदृग्गुणो मानवस्तं प्रयाति लोकं गवां शाश्वतं चाव्ययं च।। | 13-108-13a 13-108-13b 13-108-13c 13-108-13d |
न पारदारी पश्यति लोकमेतं न वै गुरुघ्नो न मृषा सम्प्रलापी। सदापवादी ब्राह्मणेष्वात्तवैरो दोषैरन्यैर्यश्च युक्तो दुरात्मा।। | 13-108-14a 13-108-14b 13-108-14c 13-108-14d |
न मित्रध्रुङ्नैकृतिकः कृतघ्नः शठोऽनुजुर्धर्मविद्वेषकश्च। न ब्रह्महा मनसाऽपि प्रपश्ये- द्गवां लोकं पुण्यकृतां निवासम्।। | 13-108-15a 13-108-15b 13-108-15c 13-108-15d |
एतत्ते सर्वमाख्यातं नैपुण्येन सुरेश्वर। गोप्रदानरतानां तु फलं शृणु शतक्रतो।। | 13-108-16a 13-108-16b |
दायाद्यलब्धैरर्थैर्यो गाः क्रीत्वा सम्प्रयच्छति। धर्मार्जितान्धैः क्रीतान्स लोकानाप्नुतेऽक्षयान्।। | 13-108-17a 13-108-17b |
यो वै द्यूते धनं जित्वा गाः क्रीत्वा सम्प्रयच्छति। स दिव्यमयुतं शक्र वर्षाणां फलमश्नुते।। | 13-108-18a 13-108-18b |
दायाद्याद्याः स्म वै गावो न्यायपूर्वैरुपार्जिताः। प्रदद्यात्ताः प्रदातॄणां सम्भवन्त्यपि च ध्रुवाः।। | 13-108-19a 13-108-19b |
प्रतिगृह्य तु यो दद्याद्गाः संशुद्धेनि चेतसा। तस्यापीहाक्षयाँल्लोकान्ध्रुवान्विद्धि शचीपते।। | 13-108-20a 13-108-20b |
जन्मप्रभृति सत्यं च यो ब्रूयान्नियतेन्द्रियः। गुरुद्विजसहः क्षान्तस्तस्य गोभिः समा गतिः।। | 13-108-21a 13-108-21b |
न जातु ब्राह्मणो वाच्यो यदवाच्यं शचीपते। मनसा गोषु न द्रुह्येद्गोवृत्तिर्गोनुकम्पकः।। | 13-108-22a 13-108-22b |
सत्ये धर्मे च निरतस्तस्य शक्र फलं शृणु। गोसहस्रेण समिता तस्य धेनुर्भवत्युत।। | 13-108-23a 13-108-23b |
क्षत्रियस्य गुणैरतैरन्वितस्य फलं शृणु। सप्तार्धशततुल्या गौर्भवतीति विनिश्चयः।। | 13-108-24a 13-108-24b |
वैश्यस्यैते यदि गुणास्तस्य पञ्चशतं भवेत्। शूद्रस्यापि विनीतस्य चतुर्भागफलं स्मृतम्।। | 13-108-25a 13-108-25b |
एतच्चैनं योऽनुतिष्ठेत युक्तः सत्ये रतो गुरुशुश्रूषया च। दक्षः क्षान्तो देवतार्थी प्रशान्तः शुचिर्बुद्धो धर्मशीलोऽनहंवाक्।। | 13-108-26a 13-108-26b 13-108-26c 13-108-26d |
महत्फलं प्राप्यते सद्द्विजाय दत्त्वा दोग्ध्रीं विधिनाऽनेन धेनुम्। नित्यं दद्यादेकभक्तः सदा च सत्ये स्थितो गुरुशुश्रुषिता च।। | 13-108-27a 13-108-27b 13-108-27c 13-108-27d |
वेदाध्यायी गोषु यो भक्तिमांश्च नित्यं दत्त्वा योऽभिनन्देत गाश्च। आजातितो यश्च गवां नमेत इदं फलं शक्र निबोध तस्य।। | 13-108-28a 13-108-28b 13-108-28c 13-108-28d |
यत्स्यादिष्ट्वा राजमूये फलं तु यत्स्यादिष्ट्वा बहुना काञ्चनेन। एततुल्यं फलमप्याहुरग्र्यं सर्वे संन्तस्त्वषयो ये च सिद्धाः।। | 13-108-29a 13-108-29b 13-108-29c 13-108-29d |
योऽग्रं भक्तं किञ्चिदप्राश्य दद्या- द्गोभ्यो नित्यं गोव्रती सत्यवादी। शान्तोऽलुब्धो गोसहस्रस्य पुण्यं संवत्सरेणाप्नुयात्सत्यशीलः।। | 13-108-30a 13-108-30b 13-108-30c 13-108-30d |
यदकेभक्तमश्नीयाद्दद्यादेकं गवां च यत्। दशवर्षाण्यनन्तानि गोव्रती गोनुकम्पकः।। | 13-108-31a 13-108-31b |
एकेनैव च भक्तेन यः क्रीत्वा गां प्रयच्छति। यावन्ति तस्या रोमाणि सम्भवन्ति शतक्रतो।। | 13-108-32a 13-108-32b |
तावच्छतानां स गवां फलमाप्नोति शाश्वतम्। ब्राह्मणस्य फलं हीदं क्षत्रियस्य तु वै शृणु।। | 13-108-33a 13-108-33b |
पञ्चवार्षिकमेवं तु क्षत्रियस्य फलं स्मृतम्। ततोऽर्धेन तु वैश्यस्य शूद्रो वैश्यार्धतः स्मृतः।। | 13-108-34a 13-108-34b |
यश्चात्मावेक्रयं कृत्वा गाः क्रीत्वा सम्प्रयच्छति। यावत्संदर्शयेद्गां वै स तावत्फलमश्नुते।। | 13-108-35a 13-108-35b |
रोम्णि रोम्णि महाभाग लोकाश्चास्याक्षयाः स्मृताः सङ्ग्रामेष्वर्जयित्वा तु यो वै गाः सम्प्रयच्छति। आत्मविक्रयतुल्यास्ताः शाश्वता विद्धि कौशिक।। | 13-108-36a 13-108-36b 13-108-36c |
अभावे यो गवां दद्यात्तिलधेनुं यतव्रतः। दुर्गात्स तारितो धेन्वा क्षीरनद्यां प्रमोदत्ते।। | 13-108-37a 13-108-37b |
न त्वेवासां दानमात्रं प्रशस्तं पात्रं कालो गोविशेषो विधिश्च। कालज्ञानं विप्रगवान्तरं हि दुःखं ज्ञातुं पावकादित्यभूतम्।। | 13-108-38a 13-108-38b 13-108-38c 13-108-38d |
स्वाध्यायाढ्यं शुद्धयोनिं प्रशान्तं वैतानस्थं पापभीरुं बहुज्ञम्। गोषु क्षान्तं नातितीक्ष्णं शरण्यं वृत्तिग्लानं तादृशं पात्रमाहुः। | 13-108-39a 13-108-39b 13-108-39c 13-108-39d |
वृत्तिग्लाने सीदति चातिमात्रं तुष्ट्यर्थं वा होम्यहेतोः प्रसूतेः। गुर्वर्थं वा बालसंवृद्धये वा धेनुं दद्याद्देशकाले विशिष्टे।। | 13-108-40a 13-108-40b 13-108-40c 13-108-40d |
अन्तर्ज्ञाताः सक्रयज्ञानलब्धाः प्राणैः क्रीतास्तेजसा यौतकाश्च। कृच्छ्रोत्सृष्टाः पोषणाभ्यागताश्च द्वारैरेतैर्गोविशेषाः प्रशस्ताः।। | 13-108-41a 13-108-41b 13-108-41c 13-108-41d |
बलान्विताः शीलवयोपपन्नाः सर्वाः प्रशंसन्ति सुगन्धवत्यः यथा हि गङ्गा सरितां वरिष्ठा तथाऽर्जुनीनां कपिला वरिष्ठा।। | 13-108-42a 13-108-42b 13-108-42c 13-108-42d |
तिस्रो रात्रीस्त्वद्भिरुपोष्य भूमौ तृप्ता गावस्तर्पितेभ्यः प्रदेयाः। वत्सैः पुष्टैः क्षीरपैः सुप्रचारा- स्त्र्यहं दत्त्वा गोरसैर्वर्तितव्यम्।। | 13-108-43a 13-108-43b 13-108-43c 13-108-43d |
दत्त्वा धेनुं सुव्रतां साधुदोहां कल्याणवत्सामपलायिनीं च। यावन्ति रोमाणि भवन्ति तस्या- स्तावन्ति वर्षामि भवन्त्यमुत्र।। | 13-108-44a 13-108-44b 13-108-44c 13-108-44d |
तथाऽनड्वाहं ब्राह्मणाय प्रदाय धुर्यं युवानं बलिनं विनीतम्। हलस्य वोढारमनन्तवीर्यं प्राप्नोति लोकान्दशधेनुदस्य।। | 13-108-45a 13-108-45b 13-108-45c 13-108-45d |
कान्ताराद्ब्राह्म्णान्गाश्च यः परित्राति कौशिक। क्षेमेण स विमुच्येत तस्य पुण्यफलं शृणु।। | 13-108-46a 13-108-46b |
अश्वमेधक्रतोस्तुल्यं फलं भवति शाश्वतम्। मृत्युकाले सहस्राक्ष यां वृत्तिमनुकाङ्क्षते।। | 13-108-47a 13-108-47b |
लोकान्बहुविधान्दिव्यान्यच्चास्य हृदि वर्तते। तत्सर्वं समवाप्नोति कर्मणैतेन मानवः।। | 13-108-48a 13-108-48b |
गोभिश्च समनुज्ञातः सर्वत्र च महीयते। यस्त्वेतेनैव कल्पेन गां वनेष्वनुगच्छति।। | 13-108-49a 13-108-49b |
तृणगोमयपर्णाशी निस्पृहो नियतः शुचिः। अकामं तेन वस्तव्यं मुदितेन शतक्रतो।। | 13-108-50a 13-108-50b |
मम लोके वसति स लोके वा यत्र चेच्छति।। | 13-108-51a |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अष्टाधिकशततमोऽध्यायः।। 108 ।। |
13-108-4 शरीरस्य न्यासः समाधिकाले। मोक्षः मरणे।। 13-108-15 नैकृतिको वञ्चकः। शठः समर्थोऽपि दारिद्र्यभाषी।। 13-108-21 गुरूणां द्विजानां वापराधं सहते इति गुरुद्विजसहः।। 13-108-22 गोवृत्तिरसङ्ग्रहपरः।। 13-108-24 सप्तार्धशतं पञ्चाशदधिकसप्तशतं।। 13-108-31 दशवर्षाणिच फलं वाजपेयस्य विन्दतीति ध.पाठः।। 13-108-32 यावन्ति तस्य प्रोक्तानि दिवसानि शतक्रतो इति ध.पाठः।। 13-108-35 संदर्शयेत्पश्येत्। यावद्ब्रह्माण्डे गोजातीयमस्ति तावतत्र वसेदित्यर्थः।। 13-108-37 अलाभे यो गवामिति ध. पाठः।। 13-108-41 अन्तर्जाताः सुक्रयज्ञानलब्धाः प्राणक्रीताः सोदकाः सोद्वहाश्चेति ध.पाठः।। 13-108-42 अर्जुनीनां गवाम्।। 13-108-45 कुलस्य कर्तारमनन्तवीर्यमिति ध.पाठः।।
अनुशासनपर्व-107 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-109 |