महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-117
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति गोलोकस्य ब्रह्मलोकादप्युपरितनत्वे ब्रह्मणो वरदानस्य कारणत्वकथनम्।। 1 ।।
`*युधिष्ठिर उवाच। | 13-117-1x |
सुराणामसुराणां च भूतानां च पितामह। प्रभुः स्रष्टा च भगवान्मुनिभिः स्तूयते भुवि।। | 13-117-1a 13-117-1b |
तस्योपरि कथं ह्येष गोलोकः स्थानतां गतः। संशयो मे महानेष तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।। | 13-117-2a 13-117-2b |
भीष्म उवाच। | 13-117-3x |
मनोवाग्बुद्धयस्तावदेकस्थाः कुरुसत्तम। ततो मे शृणु कार्त्स्न्येन गोमहाभाग्यमुत्तमम्।। | 13-117-3a 13-117-3b |
पुण्यं यशस्यमायुष्यं तथा स्वस्त्ययनं महत्। कीर्तिर्विहरता लोके गवां यो गोषु भक्तिमान्।। | 13-117-4a 13-117-4b |
श्रूयते हि पुराणेषु महर्षीणां महात्मनाम्। संस्थाने सर्वलोकानां देवानां चापि सम्भवे।। | 13-117-5a 13-117-5b |
देवतार्थेऽमृतार्थे च यज्ञार्थे चैव भारत। सुरभिर्नाम विख्याता रोहिणी कामरूपिणी।। | 13-117-6a 13-117-6b |
सङ्कल्प्य मनसा पूर्वं रोहिणी ह्यमृतात्मना। घोरं तपः समास्थाय निर्मिती विस्वकर्मणा।। | 13-117-7a 13-117-7b |
पुरुषं चासृजद्भूस्तेजसा तपसा च ह। देदीप्यमानं वपुषा समिद्धमिव पावकम्।। | 13-117-8a 13-117-8b |
सोऽपश्यदिष्टरूपां तां सुरभिं रोहिणीं तदा। दृष्ट्वैव चातिविमनाः सोऽभवत्काममोहितः।। | 13-117-9a 13-117-9b |
तं कामार्तमथो ज्ञात्वा स्वयंभूर्लोकभावनः। माऽऽर्तो भव तथा चैष भगवानभ्यभाषत।। | 13-117-10a 13-117-10b |
ततः स भगवांस्तत्र मार्ताण्ड इति विश्रुतः। चकार नाम तं दृष्ट्वा तस्यार्तीभावमुत्तमम्।। | 13-117-11a 13-117-11b |
सोऽददाद्भगवांस्तस्मै मार्ताण्डाय महात्मने। सुरूपां सुरभिं कन्यां तपस्तेजोमयीं शुभाम्।। | 13-117-12a 13-117-12b |
यथा मयैष चोद्भूतस्त्वं चैवषा च रोहिणी। मैथुनं गतवन्तौ च तथा चोत्पत्स्यति प्रजा।। | 13-117-13a 13-117-13b |
प्रजा भविष्यते पुण्या पवित्रं परमं च वाम्। न चाप्यगम्यागमनाद्दोषं प्राप्स्यसि कर्हिचित्।। | 13-117-14a 13-117-14b |
त्वत्प्रजासम्भवं क्षीरं भविष्यति परं हविः। यज्ञेषु चाज्यभागानां त्वत्प्रजामूलजो विधिः।। | 13-117-15a 13-117-15b |
प्रजाशुश्रूषवश्चैव ये भविष्यन्ति रोहिणि। तव तेनैव पुण्येनि गोलोकं यान्तु मानवाः।। | 13-117-16a 13-117-16b |
इदं पवित्रं परममृषभं नाम कर्हिचित्। यद्वै ज्ञात्वा द्विजा लोके मोक्ष्यन्ते योनिसङ्करात्।। | 13-117-17a 13-117-17b |
एतत्क्रियाः प्रवर्तन्ते मन्त्रब्राह्मणसंस्कृताः। देवतानां वितॄणां च हव्यकव्यपुरोगमाः।। | 13-117-18a 13-117-18b |
तत एतेन पुण्येन प्रजास्तव तु रोहिणि। ऊर्ध्वं ममापि लोकस्य वत्स्यन्ते निरुपद्रवाः।। | 13-117-19a 13-117-19b |
भद्रं तेभ्यश्च भद्रं ते ये प्रजासु भवन्ति वै। युगन्धराश्च ते पुत्राः सन्तु लोकस्य धारणे।। | 13-117-20a 13-117-20b |
यान्यान्कामयसे लोकांस्ताँल्लोकाननुयास्यसि। सर्वदेवगणश्चैव तव यास्यन्ति पुत्रताम्। तव स्तनसमुद्भूतं पिबन्तोऽमृतमुत्तमम्।। | 13-117-21a 13-117-21b 13-117-21c |
एवमेतान्वरान्सर्वानगृह्णात्सुरभिस्तदा। ब्रुवतः सर्वलोकेशान्निर्वृतिं चागमत्पराम्।। | 13-117-22a 13-117-22b |
सृष्ट्वा प्रजाश्च विपुला लोकसन्धारणाय वै। ब्रह्मणा समनुज्ञाता सुरभिर्लोकमाविशत्।। | 13-117-23a 13-117-23b |
एवं वरप्रदानेन स्वयंभोरेव भारत। उपरिष्टाद्गवां लोकः प्रोक्तस्ते सर्वमादितः।।' | 13-117-24a 13-117-24b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः।। 117 |
एतदाद्येकादशाध्याया दाक्षिणात्यकोशेष्वेव दृश्यन्ते। 13-117-3 मनोवाग्बुद्धयः मनोवाग्बुद्धीरेकस्थाः कुरु।। 13-117-10 आर्तो मा भवेत्यभ्यभाषत।।
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