महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-162
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति ज्येष्ठकनिष्ठयोः परस्परस्मिन्वर्तनप्रकारादिकथनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-162-1x |
कथं ज्येष्ठः कनिष्ठेषु वर्तेत भरतर्षभ। कनिष्ठाश्च यथा ज्येष्ठे वर्तेरंस्तद्ब्रवीहि मे।। | 13-162-1a 13-162-1b |
भीष्म उवाच। | 13-162-2x |
ज्येष्ठवत्तात वर्तस्व ज्येष्ठोसि हि तथा भवान्। गुरोर्गरीयसी वृत्तिर्या च शिष्यस्य भारत।। | 13-162-2a 13-162-2b |
न गुरावकृतप्रज्ञे शक्यं शिष्येण वर्तितुम्। गुरौ हि सदृशी वृत्तिर्यथा शिष्यस्य भारत।। | 13-162-3a 13-162-3b |
अन्धः स्यादन्धवेलायां जडः स्यादपि वा बुधः। परिहारेण तद्ब्रूयाद्यस्तेषां स्याद्व्यतिक्रमः।। | 13-162-4a 13-162-4b |
प्रत्यक्षं भिन्नहृदया भेदयेयुर्यथाऽहिताः। `श्रियाऽभितप्तास्तद्भेदान्नभिन्नाः स्युः समाहिताः श्रियाऽभितप्ताः कौन्तेय भेदकामास्तथाऽरयः।। | 13-162-5a 13-162-5b 13-162-5c |
ज्येष्ठः कुलं वर्धयति विनाशयति वा पुनः। हन्ति सर्वमपि ज्येष्ठः प्रायो दुर्विनयादिह।। | 13-162-6a 13-162-6b |
अथ यो विनिकुर्वीत ज्येष्ठो भ्राता यवीयसः। अज्येष्ठः स्यादभागश्च नियम्यो राजभिश्च सः।। | 13-162-7a 13-162-7b |
निकृती हि नरो लोकान्पापान्गच्छत्यसंशयम्। विफलं तस्य पुत्रत्वं मोघं जनयितुः स्मृतम्।। | 13-162-8a 13-162-8b |
पित्रोरनर्थायक कुले जायते पापपूरुषः। अकीर्तिं जनयत्येव कीर्तिमन्तर्दधाति च।। | 13-162-9a 13-162-9b |
सर्वे चापि विकर्मस्था भागं नार्हन्ति सोदराः। ज्येष्ठोऽपि दुर्विनीतस्तु कनिष्ठस्तु विशेषतः। नाप्रदाय कनिष्ठेभ्यो ज्येष्ठः कुर्वीत वेतनम्।। | 13-162-10a 13-162-10b 13-162-10c |
अनुजस्य पितुर्दायो जङ्घाश्रमफलोऽध्वगः। स्वयमीहेत लब्धं तु नाकामो दातुमर्हति।। | 13-162-11a 13-162-11b |
भ्रातॄणामविभक्तानामुत्थानमपि चेत्सह। न पुत्रभागं विषमं पिता दद्यात्कदाचन। | 13-162-12a 13-162-12b |
न ज्येष्ठो वाऽवमन्येत दुष्कृतः सुकृतोऽपि वा। गुरूणामपराधो हि शक्यः क्षन्तव्य एव च।। | 13-162-13a 13-162-13b |
यदि स्त्री यद्यवरज श्रेयः पश्येत्तदाचरेत्। धर्मार्थः श्रेय इत्याहुस्त्रयो ज्ञाता विधायकाः।। | 13-162-14a 13-162-14b |
दशाचार्यानुपाध्याय उपाध्यायान्पिता दश। दश चैव पितॄन्माता सर्वां वा पृथिवीमपि। गौरवेणाभिभवति नास्ति मातृसमो गुरुः।। | 13-162-15a 13-162-15b 13-162-15c |
माता गरीयसी यच्च तेनैतां मन्यते गुरुम्। ज्येष्ठो भ्राता पितृसमो मृते पितरि भारत।। | 13-162-16a 13-162-16b |
स ह्येषां वृत्तिदाता स्यात्स चैतान्प्रतिपालयेत्। कनिष्ठास्तं नमस्येरन्सर्वे छन्दानुवर्तिनः।। | 13-162-17a 13-162-17b |
तमेव चोपजीवेरन्यथैव पितरं तथा। शरीरमेतौ सृजतः पिता मता च भारत।। | 13-162-18a 13-162-18b |
आचार्यशिष्टा या जातिः सा सत्या साऽजरामरा। ज्येष्ठा मातृसमा चापि भगिनी भरतर्षभ। | 13-162-19a 13-162-19b |
भ्रातुर्भार्या च तद्वत्स्याद्यस्या बाल्ये स्तनं पिबेत्।। | 13-162-20a |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि द्विषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। |
13-162-2 या च शिष्यस्य गुरौ वृत्तिस्तां वर्तस्व।। 13-162-4 तेषां गुरूणाम्।। 13-162-7 यवीयसः कनिष्ठान्।। 13-162-8 विदुलस्येव तत्पुष्पं मोघमिति झ.पाठः।। 13-162-10 ज्येष्ठः कुर्वीत यौतकमिति झ.पाठः।। 13-162-11 जङ्घाश्रम एव फलं धनं यस्य। अध्वगः प्रवासी। अनुपघ्नन्पितुर्दायं इति झ.पाठः।। 13-162-12 उत्थानं भोजनादौ विभागे वा।। 13-162-14 यदि स्त्री यदि वा कनिष्ठो दुष्कृतस्तथापि तस्य श्रेय आचरेत्।।
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