महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-266
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कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति महेश्वरादिनामनिर्वचनपूर्वकं शिवमहिमोक्तिः।। 1 ।।
वासुदेव उवाच। | 13-266-1x |
युधिष्ठिर महाबाहो महाभाग्यं महात्मनः। रुद्राय बहुरूपाय बहुनाम्ने निबोध मे।। | 13-266-1a 13-266-1b |
वदन्त्युग्रं महादेवं तथा स्थाणुं महेश्वरम्। एकाक्षं त्र्यम्बकं चैव विश्वरूपं शिवं तथा।। | 13-266-2a 13-266-2b |
द्वे तनू तस्य देवस्य वेदज्ञा ब्राह्मणा विदुः। घोरामन्यां शिवामन्यां ते तनू बहुधा पुनः।। | 13-266-3a 13-266-3b |
उग्रा घोरा तनुर्याऽस्य सोऽग्निर्विद्युत्स भास्करः। शिवा सौम्या च या त्वस्य धर्मस्त्वापोथ चन्द्रमाः।। | 13-266-4a 13-266-4b |
आत्मनोऽर्धं तु तस्याग्निः सोमोऽर्धं पुनरुच्यते। ब्रह्मचर्यं चरत्येका शिवा चास्य तनुस्तथा।। | 13-266-5a 13-266-5b |
याऽस्य घोरतमा मूर्तिर्जगत्संहरते तथा। ईश्वरत्वान्महत्त्वाच्च महेश्वर इति स्मृतः।। | 13-266-6a 13-266-6b |
यन्निर्दहति यत्तीक्ष्णो यदुग्रो यत्प्रतापवान्। मांसशोणितमज्जादो यत्ततो रुद्र उच्यते।। | 13-266-7a 13-266-7b |
देवानां सुमहान्यच्च यच्चास्य विषयो महान्। यच्च विश्वं जगत्पाति महादेवस्ततः स्मृतः।। | 13-266-8a 13-266-8b |
धूम्ररूपा जटा यस्माद्धूर्जटीत्यत उच्यते।। | 13-266-9a |
स मेधयति यन्नित्यं सर्वान्वै सर्वकर्मभिः। शिवमिच्छन्मनुष्याणां तस्मादेष शिवः स्मृतः।। | 13-266-10a 13-266-10b |
दहत्यूध्वं स्थितो यच्च प्राणान्नॄणां स्थिरश्च यत्। स्थिरलिङ्गश्च यन्नित्यं तस्मात्स्थाणुरिति स्मृतः।। | 13-266-11a 13-266-11b |
यदस्य बहुधा रूपं भूतं भव्यं भवत्तथा। स्थावरं जङ्गमं चैव बहुरूपस्ततः स्मृतः।। | 13-266-12a 13-266-12b |
विश्वेदेवाश्च यत्तस्मिन्विश्वरूपस्ततः स्मृतः। सहस्राक्षोऽयुताक्षो वा सर्वतोक्षिमयोपि वा। चक्षुषः प्रभवं तेजः सर्वतश्चक्षुरेव तत्।। | 13-266-13a 13-266-13b 13-266-13c |
सर्वथा यत्पशून्पाति तैश्च यद्रमते सह। तेषामधिपतिर्यच्च तस्मात्पशुपतिः स्मृतः।। | 13-266-14a 13-266-14b |
नित्येन ब्रह्मचर्येण लिङ्गमस्य यदा स्थितम्। `भक्तानुग्रहणार्थाय गूढलिङ्गस्ततः स्मृतः।' महयत्यस्य लोकश्च प्रियं ह्येतन्महात्मनः।। | 13-266-15a 13-266-15b 13-266-15c |
विग्रहं पूजयेद्यो वै लिङ्गं वाऽपि महात्मनः। लिङ्गं पूजयिता नित्यं महतीं श्रियमश्नुते।। | 13-266-16a 13-266-16b |
ऋषयश्चापि देवाश्च गन्धर्वाप्सरसस्तथा। लिङ्गमेवार्चयन्ति स्म यत्तदूर्ध्वं समास्थितम्। | 13-266-17a 13-266-17b |
पूज्यमाने ततस्तस्मिन्मोदते स महेश्वरः। सुखं ददाति प्रीतात्मा भक्तानां भक्तवत्सलः।। | 13-266-18a 13-266-18b |
एष एव श्मशानेषु देवो वसति निर्दहन्। यजन्ते ये जनास्तत्र वीरस्थाननिषेविणः।। | 13-266-19a 13-266-19b |
विषमस्थः शरीरेषु स मृत्युः प्राणिनामिह। स च वायुः शरीरेषु प्राणपालः शरीरिणाम्।। | 13-266-20a 13-266-20b |
तस्य घोराणि रूपाणि दीप्तानि च बहुनि च। लोके यान्यस्य पूज्यन्ते विप्रास्तानि विदुर्बुधाः।। | 13-266-21a 13-266-21b |
नामधेयानि देवेषु बहून्यस्य यथार्थवत्। निरुच्यन्ते महत्त्वाच्च विभुत्वात्कर्मभिस्तथा।। | 13-266-22a 13-266-22b |
वेदे चास्य विदुर्विप्राः शतरुद्रीयमुत्तमम्। व्यासेनोक्तं च यच्चापि उपस्थानं महात्मनः।। | 13-266-23a 13-266-23b |
प्रदाता सर्वलोकानां विश्वसाक्षी निरामयः। ज्येष्ठभूतं वदन्त्येनं ब्राह्मणा ऋषयोऽपरे।। | 13-266-24a 13-266-24b |
प्रथमो ह्येष देवानां मुखादग्निमजीजनत्। ग्रहैर्बहुविधैः प्राणान्संरुद्धानुत्सृजत्यपि।। | 13-266-25a 13-266-25b |
विमोक्षयति तुष्टात्मा शरण्यः शरणागतान्। आयुरारोग्यमैश्वर्यं हितं कामांश्च पुष्कलान्।। | 13-266-26a 13-266-26b |
स ददाति मनुष्येभ्यः स एवाक्षिपते पुनः। शक्रादिषु च देवेषु तस्य चैश्वर्यमुच्यते।। | 13-266-27a 13-266-27b |
स एव स्थापको नित्यं त्रैलोक्यस्य शुभाशुभे। ऐश्वर्याच्चैव कामानामीश्वरः पुनरुच्यते।। | 13-266-28a 13-266-28b |
महेश्वरश्च लोकानां महातामीश्वरश्च सः। बहुभिर्विविधै रूपैर्विश्वं व्याप्तमिदं जगत्। तस्य देवस्य यद्वक्त्रं समुद्रे वडंवामुखण्।। | 13-266-29a 13-266-29b 13-266-29c |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि षट्षष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 266 ।। |
13-266-4 सा अग्निविद्युत्समप्रभेति क.ट.थ.पाठः।।
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