महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-203
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कृष्णेन पुत्रार्थं कैलासे तपश्चरणम्।। 1 ।। तत्र कृष्णदर्शनाय नारदादीनामागमनम्।। 2 ।। कृष्णेन स्वमुखनिःसृताग्निना तत्पर्वतस्य भस्मीकरणम्।। 3 ।। तथा पुनः प्रसन्नदृष्ट्या गिरेरुज्जीवनम्।। 4 ।। तथा नारदादीन्प्रति तत्कारणकथनम्।। 5 ।।
भीष्म उवाच। | 13-203-1x |
अयं नारायणः श्रीमान्पुत्रार्थे व्रतकाङ्क्षया। दीक्षितोऽभून्महाबाहुः पुरा द्वादशवार्षिकम्।। | 13-203-1a 13-203-1b |
दीक्षितं केशवं द्रष्टुमभिजग्मुर्महर्षयः। सेवित्वा च महात्मानः प्रीयमाणं जनार्दनम्।। | 13-203-2a 13-203-2b |
नारदः पर्वतश्चैव कृष्णद्वैपायनस्तथा। देवलः काश्यपश्चैव हस्तिकाश्यप एव च। जमदग्निश्च राजेन्द्र धौम्यो वाल्मीकिरेव च।। | 13-203-3a 13-203-3b 13-203-3c |
अपरेऽपि तपःसिद्धाः सत्यव्रतपरायणाः। शिष्यैरनुगताः सर्वे ब्रह्मविद्भिरकल्मषैः।। | 13-203-4a 13-203-4b |
केशवस्तानभिगतान्प्रीत्या सम्परिगृह्य च। तेषामतिथिसत्कारं पूजनार्थं कुलोचितम्। देवकीतनयो हृष्टो देवतुल्यमकल्पयत्।। | 13-203-5a 13-203-5b 13-203-5c |
उपविष्टेषु सर्वेषु विष्टरेषु तदाऽनघ। विश्वस्तेष्व्नभितुष्टेषु केशवार्चनया पुनः।। | 13-203-6a 13-203-6b |
परस्परं कथा दिव्याः प्रावर्तन्त मनोरमाः। विष्णोर्नारायणस्यैव प्रसादात्कथयामि ताः।। | 13-203-7a 13-203-7b |
तस्यैव व्रतचर्यायां मुनिभिर्विस्मितं पुरा। यत्र गोवृषभाङ्कस्य प्रभावोऽभून्महात्मनः।। | 13-203-8a 13-203-8b |
यत्र देवी महादेवमपृच्छत्संशयान्पुरा। कथयामास सर्वांस्तान्देव्याः प्रियचिकीर्षया।। | 13-203-9a 13-203-9b |
उमापत्योश्च संवादं शृणु तात मनोरमम्। वर्णाश्रमाणां धर्मश्च तत्र तात समाहितः।। | 13-203-10a 13-203-10b |
ऋषिधर्मश्च निखिलो राजधर्मस्च पुष्कलः। गृहस्थधर्मश्च शुभः कर्मपाकफलानि च।। | 13-203-11a 13-203-11b |
देवगुह्यं च विविधं दानधर्मविधिस्तथा। विधानमत्र प्रोक्तं यद्यमस्य नियमस्य च।। | 13-203-12a 13-203-12b |
यमलोकविधानं च स्वर्गलोकगतिस्तथा। प्राणमोक्षविधिश्चैव तीर्थचर्या च पुष्कला।। | 13-203-13a 13-203-13b |
मोक्षधर्मविधानं च साङ्ख्ययोगसमन्वितम्। स्त्रीधर्मश्च स्वयं देव्या देवदेवाय भाषितः।। | 13-203-14a 13-203-14b |
एवमादि शुभं सर्वं तत्र तात समाहितम्। रुद्राण्याः संशयप्रश्नो यत्र तात प्रवर्तते।। | 13-203-15a 13-203-15b |
धन्यं यशस्यमायुष्यं धर्म्यं च परमं हितम्। पुष्टियोगमिमं दिव्यं कथ्यमानं मया शृणु।। | 13-203-16a 13-203-16b |
इतिहासमिमं दिव्यं पवित्रं परमं शुभम्। सायं प्रातः सदा सम्यक् श्रोतव्यं च बुभूषता।। | 13-203-17a 13-203-17b |
भीष्म उवाच। | 13-203-18x |
ततो नारायणो देवः संक्लिष्टो व्रतचर्यया। वह्निर्विनिःसृतो वक्त्रात्कृष्णस्याद्भुतदर्शनः।। | 13-203-18a 13-203-18b |
अग्निना तेन महता निःसृतेन मुखाद्विभोः। पश्यतामेव सर्वेषां दग्ध एव नगोत्तमः।। | 13-203-19a 13-203-19b |
मृगपक्षिगणाकीर्णः श्वापदैरपि सङ्कुलः। वृक्षगुल्मलताकीर्णो मथितो दीनदर्शनः।। | 13-203-20a 13-203-20b |
पुनः स दृष्टमात्रेण हरिणा सौम्यचेतसा। स बभूव गिरिः क्षिप्रं प्रफुल्लद्रुमकाननः।। | 13-203-21a 13-203-21b |
सिद्धचारणसङ्घैश्च प्रसन्नैरुपशोभितः। मत्तवारणसंयुक्तो नानापक्षिगणैर्युतः। तदद्भुतमचिन्त्यं च सर्वेषामभवद्भृशम्।। | 13-203-22a 13-203-22b 13-203-22c |
तं दृष्ट्वा हृष्टरोमाणः सर्वे मुनिगणास्तदा। विस्तिताः परमायत्ताः साध्यसाकुललोचनाः। न किञ्चिदब्रुवंस्तत्र शुभं वा यदि वेतरत्।। | 13-203-23a 13-203-23b 13-203-23c |
ततो नारायणो देवो मुनिसङ्घे तु विस्मिते। तान्समीक्ष्यैव मधुरं बभाषे पुष्करेक्षणः।। | 13-203-24a 13-203-24b |
किमर्थं मुनिसङ्घेऽस्मिन्विस्मयोऽयमनुत्तमः। एतन्मे संशयं सर्वे याथातथ्येन नन्दिताः। ऋषयो वक्तुमर्हन्ति निश्चयेनार्थकोविदाः।। | 13-203-25a 13-203-25b 13-203-25c |
केशवस्य वचः श्रुत्वा तुष्टुवुर्मुनिपुङ्गवाः। भवान्सृजति वै लोकान्भवान्संहरति प्रजाः। भवाञ्शीतं भवानुष्णं भवान्सत्यं भवान्क्रतुः।। | 13-203-26a 13-203-26b 13-203-26c |
भवानादिर्भवानन्तो भवतोऽन्यन्न विद्यते। स्थावरं जङ्गमं सर्वं त्वमेव पुरुषोत्तम।। | 13-203-27a 13-203-27b |
त्वत्तः सर्वमिदं तात लोकचक्रं प्रवर्तते। त्वमेवार्हसि तद्वक्तुं मुखादग्निविनिर्गमम्।। | 13-203-28a 13-203-28b |
एतन्नो विस्मयकरं बभूव मधुसूदन। ततो विगतसंत्रासा भवाम पुरुषोत्तम। यदिच्छेत्तत्र वक्तव्यं कुतोऽस्माकं नियोगतः।। | 13-203-29a 13-203-29b 13-203-29c |
श्रीभगवानुवाच। | 13-203-30x |
नित्यं हितार्थं लोकानां भवद्भिः क्रियते तपः। तस्माल्लोकहितं गुह्यं श्रूयतां कथयामि वः।। | 13-203-30a 13-203-30b |
असुरः साम्प्रतं कश्चिदहितो लोकनाशनः। मायास्त्रकुशलश्चैव बलदर्पसमन्वितः।। | 13-203-31a 13-203-31b |
बभूव स मया बद्धो लोकानां हितकाम्यया। पुत्रेण मे वधो दृष्टस्तस्य वै मुनिपुङ्गवाः।। | 13-203-32a 13-203-32b |
तदर्थं पुत्रमेवाहं सिसृक्षुर्वनमागतः। आत्मनः सदृशं पुत्रमहं जनयितुं व्रतैः।। | 13-203-33a 13-203-33b |
एवं व्रतपरीतस्य तपस्तीव्रतया मम। अथात्मा मम देहस्थः सोग्निर्भूत्वा विनिःसृतः।। | 13-203-34a 13-203-34b |
विनिःसृत्य गतो द्रष्टुं क्षणेन च पितामहम्। ब्रह्मणा मन्मथोऽनङ्गः पुत्रत्वेन प्रकल्पितः। अनुज्ञातश्च तेनैव पुनरायान्ममान्तिकम्।। | 13-203-35a 13-203-35b 13-203-35c |
एवं मे वैष्णवं तेजो मम वक्त्राद्विनिःसृतम्। तत्तेजसा निर्मथितः पुरतोऽयं गिरिः स्थितः।। | 13-203-36a 13-203-36b |
दृष्ट्वा दाहं गिरेस्तस्य सौम्यभावतया मम। पुनः स दृष्टमात्रेण गिरिरासीद्यथा पुरा।। | 13-203-37a 13-203-37b |
एतद्गुह्यं यथातथ्यं कथितं वः समासतः। भवन्तो व्यथिता येन विस्मिताश्च तपोधनाः।। | 13-203-38a 13-203-38b |
ऋषीणामेवमुक्त्वा तु तान्पुनः प्रत्यभाषत।। | 13-203-39a |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि त्र्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 203 ।। |
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