महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-160
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति विप्रवचनस्यैहिकपारत्रिकश्रेयस्साधनत्वकथनम्।। 1 ।। तथाऽनशनस्य महातपस्त्वकथनम्।। 2 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-160-1x |
दानं बहुविधाकारं शान्तिः सत्यमहिंसितम्। स्वदारतुष्टिश्चोक्ता ते फलं दानस्य वाऽपि यत्।। | 13-160-1a 13-160-1b |
पितामहस्य विदितं किमन्यत्तपसो बलात्। तपसो यत्परं तेऽद्य तन्नो व्याख्यातुमर्हसि।। | 13-160-2a 13-160-2b |
भीष्म उवाच। | 13-160-3x |
तपसः प्रक्षयो यावत्ताल्लोको युधिष्ठिर। मतं ममात्र कौन्तेय तपो नानशनात्परम्।। | 13-160-3a 13-160-3b |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। भगीरथस्य संवादं ब्रह्मणश्च महात्मनः।। | 13-160-4a 13-160-4b |
अतीत्य सुरलोकं च गवां लोकं च भारत। ऋषिलोकं च सोऽगच्छद्भगीरथ इति श्रुतम्।। | 13-160-5a 13-160-5b |
तं तु दृष्ट्वा वचः प्राह ब्रह्मा राजन्भगीरथम्। कथं भगीरथाऽऽगास्त्वमिमं लोकं दुरासदम्।। | 13-160-6a 13-160-6b |
न हि देवा न गन्धर्वा न मनुष्या भगीरथ। आयान्त्यतप्ततपसः कथं वै त्वमिहागतः।। | 13-160-7a 13-160-7b |
भगीरथ उवाच। | 13-160-8x |
निश्शङ्कमन्नमददां ब्राह्मणोभ्यः शतं सहस्राणि सदैवतानाम्। ब्राह्मं व्रतं नित्यमास्थाय विद्व- न्न त्वेवाहं तस्य फलादिहागाम्।। | 13-160-8a 13-160-8b 13-160-8c 13-160-8d |
दशैकरात्रान्दशपञ्चरात्रा- नेकादशैकादशकान्क्रतूंश्च। ज्योतिष्टोमानां च शतं यदिष्टं फलेन तेनापि च नागतोऽहम्।। | 13-160-9a 13-160-9b 13-160-9c 13-160-9d |
यच्चावसं जाह्नवीतीरनित्यः शतं समास्तप्यमानस्तपोऽहम्। अदां च तत्राश्वतरीसहस्रं नारीपुरं न च तेनाहमागाम्।। | 13-160-10a 13-160-10b 13-160-10c 13-160-10d |
दशायुतानि चाश्वानां गोऽयुतानि च विंशतिम्। पुष्करेषु द्विजातिभ्यः प्रादां शतसहस्रशः।। | 13-160-11a 13-160-11b |
सुवर्णचन्द्रोत्तमधारिणीनां कन्योत्तमानामददं सहस्रम्। षष्टिं सहस्राणि विभूषितानां जाम्बूनदैराभरणैर्न तेन।। | 13-160-12a 13-160-12b 13-160-12c 13-160-12d |
दशार्बुदान्यददं गोसवेज्या- स्वेकैकशो दश गा ओकनाथ। समानवत्साः पयसा समन्विताः सुवर्णकांस्योपदुहा न तेन।। | 13-160-13a 13-160-13b 13-160-13c 13-160-13d |
आप्तोर्यामेषु नियतमेकैकस्मिन्दशाददम्। गृष्टीनां क्षीरदोग्ध्रीणां रोहिणीनां शतानि च।। | 13-160-14a 13-160-14b |
दोग्ध्रीणां वै गवां चापि प्रयुतानि दशैव ह। प्रादां दशगुणं ब्रह्मन्न तेनाहमिहागतः।। | 13-160-15a 13-160-15b |
वाजिनां बाह्लिजातानामयुतान्यददं दश। कर्काणां हेममालानां न च तेनाहमागतः।। | 13-160-16a 13-160-16b |
कोटीश्च काञ्चनस्याष्टौ प्रादां ब्रह्मन्दशान्वहम्। एकैकस्मिन्क्रतौ तेन फलेनाहं न चागतः।। | 13-160-17a 13-160-17b |
वाजिनां श्यामकर्णानां हरितानां पितामह। प्रादां हेमस्रजां ब्रह्मन्कोटीर्दश च सप्त च।। | 13-160-18a 13-160-18b |
ईषादन्तान्महाकायान्काञ्चतस्रग्विभूषितान्। पद्मिनो वै सहस्राणि प्रादां दश च सप्त च।। | 13-160-19a 13-160-19b |
अलङ्कृतानां देवेश दिव्यैः कनकभूषणैः। रथानां काञ्चनाङ्गानां सहस्राण्यददं दश।। | 13-160-20a 13-160-20b |
सप्त चान्यानि युक्तानि वाजिभिः समलङ्कृतैः। दक्षिणावयवाः केचिद्वेदैर्ये सम्प्रकीर्तिताः।। | 13-160-21a 13-160-21b |
वाजपेयेषु दशसु प्रादां तेष्वपि चाप्यहम्। शक्रतुल्यप्रभावाणामिज्यया विक्रमेण ह।। | 13-160-22a 13-160-22b |
सहस्रं निष्ककण्ठानामददं दक्षिणामहम्। विजित्य भूपतीन्सर्वानर्थैरिष्ट्वा पितामह। अष्टभ्यो राजसूयेभ्यो न च तेनाहमागतः।। | 13-160-23a 13-160-23b 13-160-23c |
स्रोतश्च यावद्गङ्गायाश्छन्नमासीज्जगत्पते। दक्षिणाभिः प्रवृत्ताभिर्मम नागां च तत्कृते।। | 13-160-24a 13-160-24b |
वाजिनां च सहस्रे द्वे सुवर्णशतभूषिते। वरं ग्रामशतं चाहमेकैकस्यां तिथावदाम्।। | 13-160-25a 13-160-25b |
तपस्वी नियताहारः शममास्थाय वाग्यतः। दीर्घकालं हिमवति गङ्गार्थमचरं तपः।। | 13-160-26a 13-160-26b |
मूर्ध्ना हरं महादेवं प्रणम्याभ्यर्चयन्नृपः। न तेनाप्यहमागच्छं फलेनेह पितामह।। | 13-160-27a 13-160-27b |
शम्याक्षेपैरयजं यच्च देवा- ञ्शतैः क्रतूनामयुतैश्चापि यच्च। त्रयोदशद्वादशाहैश्च देव सपौण्डरीकैर्न च तेषां फलेन।। | 13-160-28a 13-160-28b 13-160-28c 13-160-28d |
अष्टौ सहस्राणि ककुद्मिनामहं शुक्लर्षभाणामददं द्विजेभ्यः। एकैकं वै काञ्चनं शृङ्गमेभ्यः पत्नीश्चैषामददं निष्ककण्ठीः।। | 13-160-29a 13-160-29b 13-160-29c 13-160-29d |
हिरण्यरत्ननिचयानददं रत्नपर्वतान्। धनधान्यैः समृद्धांश्च ग्रामाञ्शतसहस्रशः।। | 13-160-30a 13-160-30b |
शतं शतानां गृष्टीनामददं चाप्यतन्द्रितः। इष्ट्वाऽनेकैर्महायज्ञैर्ब्राह्मणेभ्यो न तेन च।। | 13-160-31a 13-160-31b |
एकादशाहैरयजं सदक्षिणै- र्द्विर्द्वादशाहैरश्वमेधैश्च देव। गवां धनैः षोडशभिश्च ब्रह्मं- स्तेषां फलेनेह न चागतोऽस्मि।। | 13-160-32a 13-160-32b 13-160-32c 13-160-32d |
निष्कैककण्ठमददं योजनायतं तद्विस्तीर्णं काञ्चनपादपानाम्। वनं चूतानां रत्नविभूषितानां नचैव तेषामागतोऽहं फलेन।। | 13-160-33a 13-160-33b 13-160-33c 13-160-33d |
तुरायणं हि व्रतमप्यधृष्य- मक्रोधनोऽकरवं त्रिंशदब्दान्। शतं गवामष्टशतानि चैव दिनेदिने ह्यददं ब्राह्मणेभ्यः।। | 13-160-34a 13-160-34b 13-160-34c 13-160-34d |
पयस्विनीनामथ रोहिणीनां तथैवान्याननडुहो लोकनाथ। प्रादां नित्यं ब्राह्मणेभ्यः सुरेश नेहागतस्तेन फलेन चाहम्।। | 13-160-35a 13-160-35b 13-160-35c 13-160-35d |
`शम्याक्षेपेण पृथिवीं त्रिधा पर्यचरं यजन्। त्रिंशदग्नीनहं ब्रह्मन्नयजं यच्च नित्यदा। अष्टाभिः सर्वमेधैश्च नरमेधैश्च सप्तभिः।। | 13-160-36a 13-160-36b 13-160-36c |
दशभिर्विश्वजिद्भिश्च शतैरष्टादशोत्तरैः। न चैव तेषां देवेश फलेनाहमिहागमम्।। | 13-160-37a 13-160-37b |
सरय्वां बाहुदायां च गङ्गायामथ नैमिषे। गवां शतानामयुतमददं न च तेन वै।। | 13-160-38a 13-160-38b |
इन्द्रेण गुह्यं निहितं वै गुहायां यद्भार्गवस्तपसेहाभ्यविन्दत्। जाज्वल्यमानमुशनस्तेजसेह तत्साधयामासमहं वरेण्य।। | 13-160-39a 13-160-39b 13-160-39c 13-160-39d |
`ब्राह्मणार्थाय कर्माणि रणं चैव करोमि यत्।' ततो मे ब्राह्मणास्तुष्टास्तस्मिन्कर्मणि साधिते। `पूजितैर्ब्राह्मणैर्नित्यं न च तेनाहमागतः।।' | 13-160-40a 13-160-40b 13-160-40c |
सहस्रमृषयश्चासन्ये वै तत्र समागताः। उक्तस्तैरस्मि गच्छ त्वं ब्रह्मलोकमिति प्रभो।। | 13-160-41a 13-160-41b |
प्रीतेनोक्तः सहस्रेण ब्राह्मणानामहं प्रभो। इमं लोकमनुप्राप्तो मा भूत्तेऽत्र विचारणा।। | 13-160-42a 13-160-42b |
कामं यथावद्विहितं विधात्रा पृष्टेन वाच्यं तु मया यथावत्। तपो हि नान्यच्चानशनान्मतं मे नमोस्तु ते देववर प्रसीद।। | 13-160-43a 13-160-43b 13-160-43c 13-160-43d |
भीष्म उवाच। | 13-160-44x |
इत्युक्तवन्तं ब्रह्मि तु राजानं स भगीरथम्। पूजयामास पूजार्हं विधिदृष्टेन कर्मणा।। | 13-160-44a 13-160-44b |
तस्मादनशनैर्युक्तो विप्रान्पूज्य नित्यदा। विप्राणां वचनात्सर्वं परत्रेहं च सिध्यति।। | 13-160-45a 13-160-45b |
वासोभिरन्नैर्गोभिस्च शुभैर्नैवेशिकैरपि। शुभैः सुरक्षणैश्चापि स्तोष्या एव द्विजास्तथा। एतदेव परं गुह्यमलोभेन समाचर।। | 13-160-46a 13-160-46b 13-160-46c |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि षष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 160 ।। |
13-160-1 अहिंसितमहिंसा।। 13-160-2 तपसः कृच्छ्रचान्द्रायणादेर्बलादन्यत्किं बलवत्तरं विदितं न किमप्यपितु तपसस्तपसां मध्ये यत्परम्।। 13-160-3 लोको भोग्यप्रदेशः।। 13-160-5 ब्रह्मलोकं च सोगच्छत् इति क.पाठः।। 13-160-9 एकरात्रादयः क्रतुविशेषाः।। 13-160-10 नारीपुरं कन्यासमूहमदाम्।। 13-160-12 चन्द्रो भूषणविशेषः। न तेनाहमागामित्यनुवर्तते।। 13-160-13 एकैकशो ब्राह्मणाय दश गाः।। 13-160-14 आप्तोर्यामः सोमयागः।। 13-160-16 कर्काणां शुक्लाश्वानाम्।। 13-160-19 पद्मिनः पद्मचिह्नान्।। 13-160-21 दक्षिणारूपा यज्ञाङ्गभूता दक्षिणावयवाः।। 13-160-23 निष्ककण्ठानां युद्धे जितानां राज्ञां सहस्रं विप्रेभ्यो विप्रवचनाद्दिक्षिणा अददं उत्सृष्टवान्।। 13-160-28 शम्या पृथुबुध्नः काष्ठदण्डः। स बलेनाक्षिप्तो यावद्दूरं पतति तावद्देशो यस्य वेदिकाया भवति स शम्याक्षोपोयागः। देवान् साद्यस्कानामयुतैश्चापि यत्तत् इति झ.पाठः।। 13-160-32 आर्कायणैः षोडशभिश्च इति झ.पाठः।। 13-160-33 काञ्चनमयानां वृक्षाणां चूतानां नानावर्णरत्नखचितानां वनमित्यर्थः।। 13-160-36 अग्नीनग्निचयनानि ।। 13-160-39 गुहायां निहितं गोपितं गुह्यं यदनशनं तपसा अभ्यविन्दत् आज्ञासीत्। उशनस्तेजसा शुक्रस्य बलेन जाज्वल्यमानम्। तच्च वाक्यशेषात्सर्वबोगत्यागात्मकमनशनं सर्वभोगैर्ब्राह्मणानां सन्तर्पणं च। साधयामासमित्यार्षम्।।
अनुशासनपर्व-159 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-161 |