महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-072
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति पात्रलक्षणादिकथनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-72-1x |
अपूर्वं वा भवेत्पात्रमथवाऽपि चिरोषितम्। दूरादभ्यागतं वाऽपि किं पात्रं स्यात्पितामह।। | 13-72-1a 13-72-1b |
भीष्म उवाच। | 13-72-2x |
क्रिया भवति केषांचिदुपांशुव्रतमुत्तमम्। यो नो याचेत यत्किंचित्सर्वं दद्याम इत्यपि।। | 13-72-2a 13-72-2b |
अपीडयन्भृत्यवर्गमित्येवमनुशुश्रुम। पीडयन्भृत्यवर्गं हि आत्मानमपकर्षति।। | 13-72-3a 13-72-3b |
अपूर्वं चापि यत्पात्रं यच्चापि स्याच्चिरोषितम्। दूरादभ्यागतं चापि तत्पात्रं न विदुर्बुधाः।। | 13-72-4a 13-72-4b |
युधिष्ठिर उवाच। | 13-72-5x |
अपीडया च भूतानां धर्मस्याहिंसया तथा। पात्रं विद्यामतत्त्वेन यस्मै दत्तं न सन्तपेत्।। | 13-72-5a 13-72-5b |
भीष्म उवाच। | 13-72-6x |
ऋत्विक्पुरोहिताचार्याः शिष्यसम्बन्धिबान्धवाः। सर्वे पूज्याश्च मान्याश्च श्रुतवन्तोऽनसूयकाः।। | 13-72-6a 13-72-6b |
अतोऽन्यथा वर्तमानाः सर्वे नार्हन्ति सत्क्रियाम्। तस्माद्गुणैः परीक्षेत पुरुषान्प्रणिधाय वै।। | 13-72-7a 13-72-7b |
अक्रोधः सत्यवचनमहिंसा दम आर्जवम्। अद्रोहोऽनभिमानश्च ह्रीस्तितिक्षा दमः शमः।। | 13-72-8a 13-72-8b |
यस्मिन्नोतानि दृश्यन्ते न चाकार्याणि भारत। स्वभावतो निविष्टानि तत्पात्रं मानमर्हति।। | 13-72-9a 13-72-9b |
तथा चिरोषितं चापि सम्प्रत्यागतमेव च। अपूर्वं चैव पूर्वं च तत्पात्रं मानमर्हति।। | 13-72-10a 13-72-10b |
अप्रामाण्यं च वेदानां शास्त्राणां चाभिलङ्घनम्। अव्यवस्था च सर्वत्र एतन्नाशनमात्मनः।। | 13-72-11a 13-72-11b |
भवेत्पण्डितमानी यो ब्राह्मणो वेदनिन्दकः। आन्वीक्षिकीं तर्कविद्यामनुरक्तो निरर्थिकां।। | 13-72-12a 13-72-12b |
हेतुवादान्बुवन्सत्सु विजेताऽहेतुवादकः। आक्रोष्टा चातिवक्ता च ब्राह्मणानां सदैवहि।। | 13-72-13a 13-72-13b |
सर्वाभिशङ्की मूढश्च बालः कटुकवागपि। बोद्धव्यस्तादृशस्तात नरं श्वानं हि तं विदुः।। | 13-72-14a 13-72-14b |
यथा श्वा भषितुं चैव हन्तु चैवावसज्जते। एवं सम्भाषणार्थाय सर्वशास्त्रवधाय च। `अल्पश्रुताः कुतर्काश्च दृष्टाः सृष्टाः कुपण्डिताः।। | 13-72-15a 13-72-15b 13-72-15c |
श्रुतिस्मृती चेतिहासपुराणारण्यवेदिनः। अनुरुन्ध्याद्बहुज्ञांश्च सारज्ञाश्चैव पण्डिताः।।' | 13-72-16a 13-72-16b |
लोकयात्रा च द्रष्टव्या धर्मश्चात्महितानि च। एवं नरो वर्तमानः शाश्वतीर्वर्धते समाः।। | 13-72-17a 13-72-17b |
ऋणमुन्मुच्य देवानामृषीणां च तथैव च। पितॄणामथ विप्राणामतिथीनां च पञ्चमम्।। | 13-72-18a 13-72-18b |
पर्यायेण विमुक्तो यः सुनिर्णिक्तेन कर्मणा। एवं गृहस्थः कर्माणि कुर्वन्धर्मानन हीयते।। | 13-72-19a 13-72-19b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि द्विसप्ततितमोऽध्यायः।। 72 ।। |
13-72-2 कश्चिद्यज्ञार्थं कश्चित् गुरुदक्षिणार्थं कश्चित्कुटुम्बभरणार्थमिति एवंरूपा क्रिया केषांचित्पात्रत्वे प्रधानं भवति केषांचिदुषांशुव्रतं मौनं पारिव्राज्यमिति। दद्यामः ददाम इत्येव वक्तव्यं नत्वेतेषु कञ्चित्प्रत्याचक्षीतेत्यर्थः।। 13-72-5 दत्तं प्रदेयवस्त्वभिमानिनी देवता न सन्तपेत्। विप्रे वेदविवर्जिते। दीयमानं रुदत्यन्नमिति स्मृतेः। अतः कस्तादृश इति प्रश्नः।। 13-72-6 मुख्यं पात्रं विशेषेण श्रुतवन्तोऽनसूयका इति।। 13-72-10 तथा अक्रोधादिगुणविशिष्टम्।। 13-72-11 अपात्रतावीजमाह अप्रामाण्यमिति। आत्मनः पात्रताया इति शेषः।। 13-72-12 निरर्थिकां श्रुतिविरोधित्वेन मोक्षानुपयोगिनीम्।। 13-72-13 अहेतुवादकः शास्त्रोक्तहेतुवादविरोधात्।। 13-72-14 बोद्धव्यः अस्पृश्यत्वेनेति शेषः।। 13-72-17 धर्मश्चात्महिताय चेति थ.ध.पाठः।। 13-72-18 देवानामृणं यज्ञेन ऋषीणां वेदाधिगमेन पितॄणां प्रजोत्पादनेन विप्राणां दानमानेनाऽतिथीनां सम्यगातिथ्येन चोन्मुच्याऽपाकृत्य कर्माणि कुर्यन्नित्युत्तरेणान्वयः।।
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