महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-273
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युधिष्ठिरेण भीष्मसंस्कारोपयोगिसम्भारप्रस्थापनपूर्वकं कृष्णधृतराष्ट्रादिभिःसह भीष्मसमीपं प्रत्यागमनम्।। 1 ।। युधिष्ठिरेणाभिवादनपूर्वकं कृष्णाद्यागमनं निवेदितेन भीष्मेण स्वस्य कृष्णयाथात्म्यज्ञानप्रकाशनेन तत्प्रणामस्तुतिपूर्वकं व्यासकृष्णधृतराष्ट्रादिभ्यः स्वस्य प्राणोत्सर्गाभ्यनुज्ञानप्रार्थना।। 2 ।।
वैशम्पायन उवाच। | 13-273-1x |
ततः कुन्तीसुतो राजा पौरजानपदं जनम्। पूजयित्वा यथान्यायमनुजज्ञे गृहान्प्रति।। | 13-273-1a 13-273-1b |
सान्त्वयामास नारीश्च हतपुत्रा हतेश्वराः। विपुलैरर्थदानैः स तदा पाण्डुसुतो नृपः।। | 13-273-2a 13-273-2b |
सोभिषिक्तो महाप्राज्ञः प्राप्य राज्यं युधिष्ठिरः। अवस्थाप्य नरश्रेष्ठः सर्वाः स्वप्रकृतीस्तथा।। | 13-273-3a 13-273-3b |
द्विजेभ्यो बलमुख्येभ्यो नैगमेभ्यश्च सर्वशः। प्रतिगृह्याशिषो मुख्यास्तथा धर्मभृतांवरः।। | 13-273-4a 13-273-4b |
उषित्वा शर्वरीः श्रीमान्पञ्चाशन्नगरोत्तमे। समयं कौरवाग्र्यस्य सस्मार पुरुषर्षभः।। | 13-273-5a 13-273-5b |
स निर्ययौ जगपुराद्यजकैः परिवारितः। दृष्ट्वा निवृत्तमादित्यं प्रवृत्तं चोत्तरायणम्।। | 13-273-6a 13-273-6b |
घृतं माल्यं च गन्धांश्च क्षौमाणि च युधिष्ठिरः। चन्दनागरुमुख्यानि तथा कालगरूणि च।। | 13-273-7a 13-273-7b |
प्रस्थाप्यच पूर्वं कौन्तेयो भीष्मसंस्करणाय वै। माल्यानि च वरार्हाणि रत्नानि विविधानि च।। | 13-273-8a 13-273-8b |
धृतराष्ट्रं पुरुस्कृत्य गान्धारीं च यशस्विनीम्। मातरं च पृथां धामान्भ्रातॄंश्च पुरुषर्षंभान्।। | 13-273-9a 13-273-9b |
जनार्दनेनानुगतो विदुरेण च धीमता। युयुत्सुना च कौरव्यो युयुधानेन चाभिभो।। | 13-273-10a 13-273-10b |
महता राजभोगेन पारिबर्हेण संवृतः। स्तूयमानो महातेजा भीष्मिस्याग्नीननुव्रजन्।। | 13-273-11a 13-273-11b |
निश्चक्राम पुरात्तस्माद्यथा देवपतिस्तथा। आससाद कुरुक्षेत्रे ततः शान्तनवं नृपः।। | 13-273-12a 13-273-12b |
उपास्यमानं व्यासेन पाराशर्येण धीमता। नारदेन च राजर्षे देवलेनासितेन च।। | 13-273-13a 13-273-13b |
हतशिष्टैर्नृपैस्चान्यैर्नानादेशसमागतैः। रक्षिभिश्च महात्मानं रक्ष्यमाणं समन्ततः।। | 13-273-14a 13-273-14b |
शयानं वीरशयने ददर्श नृपतिस्ततः। ततो रथादवारोहद्धातृभिः सह धर्मराट्।। | 13-273-15a 13-273-15b |
अभिवाद्याथ कौन्तेयः पितामहमरिंदमम्। द्वैपायनादीन्विप्रांश्च तैश्च प्रत्यभिनन्दितः।। | 13-273-16a 13-273-16b |
ऋत्विग्भिर्ब्रह्मकल्पैश्च भ्रातृभिः सह धर्मजः। आसाद्य शरतल्पस्थमृषिभिः परिवारितम्।। | 13-273-17a 13-273-17b |
अब्रवीद्भरतश्रेष्ठं धर्मराजो युधिष्ठिरः। भ्रातृभिः सह कौरव्यः शयानं निम्नगासुतम्।। | 13-273-18a 13-273-18b |
युधिष्ठिरोऽहं नृपते नमस्ते जाह्नवीसुत। शृणोषि चेन्महाबाहो ब्रूहि किं करवाणि ते।। | 13-273-19a 13-273-19b |
प्राप्तोस्मि समये राजन्नग्नीनादाय ते विभो। आचार्यान्ब्राह्मणांश्चैव ऋत्विजो भ्रातरश्च मे।। | 13-273-20a 13-273-20b |
पुत्रश्च ते महातेजा धृतराष्ट्रो जनेश्वरः। उपस्थितः सहामात्यो वासुदेवश्च वीर्यवान्।। | 13-273-21a 13-273-21b |
हतशिष्टाश्च राजानः सर्वे च कुरुजाङ्गलाः। तान्पश्य नरशार्दूल समुन्मीलय लोचने।। | 13-273-22a 13-273-22b |
यच्चेह किञ्चित्कर्तव्यं तत्सर्वं प्रापितं मया। यथोक्तं भवता काले सर्वमेव च तत्कृतम्।। | 13-273-23a 13-273-23b |
वैशम्पायन उवाच। | 13-273-24x |
एवमुक्तस्तु गाङ्गेयः कुन्तीपुत्रेण धीमता। ददर्श भारतान्सर्वान्स्थितान्सम्परिवार्य ह।। | 13-273-24a 13-273-24b |
ततश्चलवपुर्भीष्मः प्रगृह्य विपुलं भुजम्। ओघमेघस्वरो वाग्मी काले वचनमब्रवीत्।। | 13-273-25a 13-273-25b |
दिष्ट्या प्राप्तोसि कौन्तेय सहामात्यो युधिष्ठिर। परिवृत्तो हि भगवान्सहस्रांशुर्दिवाकरः।। | 13-273-26a 13-273-26b |
अष्टपञ्चाशतं रात्र्यः शयानस्याद्य मे गताः। शरेषु निशिताग्नेषु यथा वर्षशतं तथा।। | 13-273-27a 13-273-27b |
माघोऽयं समनुप्राप्तो मासः पुण्यो युधिष्ठिर। त्रिभागशेषः पक्षोऽयं शुक्लो भवितुमर्हति।। | 13-273-28a 13-273-28b |
एवमुक्त्वा तु गाङ्गेयो धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम्। धृतराष्ट्रमथामन्त्र्य काले वचनमब्रवीत्।। | 13-273-29a 13-273-29b |
भीष्म उवाच। | 13-273-30x |
राजन्विदितधर्मोसि सुनिर्णीतार्थसंशयः। बहुश्रुता हि ते विप्रा बहवः पर्युपासिताः।। | 13-273-30a 13-273-30b |
वेद शास्त्राणि सूक्ष्माणि धर्मांश्च मनुजेश्वर। वेदांश्च चतुरः सर्वान्षडङ्गैरुपबृंहितान्।। | 13-273-31a 13-273-31b |
न शोचितव्यं कौरव्य भवितव्यं हि तत्तथा। श्रुतं देवरहस्यं ते कृष्णद्वैपायनादपि।। | 13-273-32a 13-273-32b |
यथा पाण्डोः सुता राजंस्तथैव तव धर्मतः। तान्पालय स्थितो धर्मे गुरुशुश्रूषणे रतान्।। | 13-273-33a 13-273-33b |
धर्मराजो हि शुद्धात्मा निदेशे स्थास्यते तव। आनृशंस्यपरं ह्येन जानामि गुरुवत्सलम्।। | 13-273-34a 13-273-34b |
तव पुत्रा दुरात्मानः क्रोधलोभपरायणाः। ईर्ष्याभिभूता दुर्वृत्तास्तान्न शोचितुमर्हसि।। | 13-273-35a 13-273-35b |
वैशम्पायन उवाच। | 13-273-36x |
एतावधुक्त्वा वचनं धृतराष्ट्रं मनीषिणम्। वासुदेवं महाबाहुमभ्यभाषय कौरवः।। | 13-273-36a 13-273-36b |
भीष्म उवाच। | 13-273-37x |
भगवन्देवदेवेश सुरासुरनमस्कृत। त्रिविक्रम नमस्तुभ्यं शङ्खचक्रगदाधर।। | 13-273-37a 13-273-37b |
वासुदेवो हिरण्यात्मा पुरुषः सविता विराद्। जीवभूतोऽनुरूपस्त्वं परमात्मा सनातनः।। | 13-273-38a 13-273-38b |
त्वद्भक्तं त्वद्गतिं शान्तमुदारमपरिग्रहम्। त्रायस्व पुण्डरीकाक्ष पुरुषोत्तम नित्यशः। अनुजानीहि मां कृष्ण वैकुण्ठ पुरुषोत्तम।। | 13-273-39a 13-273-39b 13-273-39c |
रक्ष्याश्च ते पाण्डवेया भवान्येषां परायणम्। उक्तवानस्मि दुर्बद्धिं मन्दं दुर्योधनं तदा।। | 13-273-40a 13-273-40b |
यतः कृष्णस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जयः। वासुदेवेन तीर्थेन पुत्र संशाम्य पाण्डवैः।। | 13-273-41a 13-273-41b |
सन्धानस्य परः कालस्तवेति च पुनःपुनः। न च मे तद्वचो मूढः कृतवान्स सुमन्दधीः। घातयित्वेह पृथिवीं ततः स निधनं गतः।। | 13-273-42a 13-273-42b 13-273-42c |
त्वां तु जानाम्यहं देवं पुराणमृषिसत्तमम्। नरेण सहितं देव बदर्यां सुचिरोषितम्।। | 13-273-43a 13-273-43b |
तथा मे नारदः प्राह व्यासश्च सुमहातपाः। नरनारायणावेतौ सम्भूतौ मनुजेष्विति।। | 13-273-44a 13-273-44b |
स मां त्वमनुजानीहि कृष्ण मोक्ष्ये कलेवरम्। त्वयाऽहं समनुज्ञातो गच्छेयं परमां गतिम्।। | 13-273-45a 13-273-45b |
वासुदेव उवाच। | 13-273-46x |
अनुजानामि भीष्म त्वां वसून्प्राप्नुहि पार्थिव। न तेऽस्ति वृजिनं किञ्चिच्छुद्धात्मैश्वर्यसंयुतः।। | 13-273-46a 13-273-46b |
पितृभक्तोसि राजर्षे मार्कण्डेय इवापरः। तेन मृत्युस्तव वशे स्थितो भृत्य इवानतः।। | 13-273-47a 13-273-47b |
वैशम्पायन उवाच। | 13-273-48x |
एवमुक्तस्तु गाङ्गेयः पाण्डवानिदमब्रवीत्। धृतराष्ट्रमुखांश्चापि सर्वांश्च सुहृदस्तथा।। | 13-273-48a 13-273-48b |
प्राणानुत्स्रष्टुमिच्छामि तत्रानुज्ञातुमर्हथ। सत्येषु यतितव्यं वः सत्यं हि परमं बलम्।। | 13-273-49a 13-273-49b |
आनृशंस्यपरैर्भाव्यं सदैव नियतात्मभिः। ब्रह्मण्यैर्धर्मशीलैश्च तपोनित्यैश्च भारताः।। | 13-273-50a 13-273-50b |
इत्युक्त्वा सुहृदः सर्वांस्तथा सम्पूज्य चैव ह। `धनं बहुविधं राजन्दत्त्वा नित्यं द्विजातिषु।' पुनरेवाब्रवीद्धीमान्युधिष्ठिरमिदं वचः।। | 13-273-51a 13-273-51b 13-273-51c |
ब्राह्मणाश्चैव ते नित्यं प्राज्ञाश्चैव विशेषतः। आचार्या ऋत्विजश्चैव पूजनीया जनाधिप।। | 13-273-52a 13-273-52b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि भीष्मस्वर्गारोहणपर्वणि त्रिसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 273 ।। |
13-273-28 मासः सौम्य इति झ.पाठः। सौम्यश्चान्द्रः। मासस्य चतुर्भागकरणे सार्धसप्ततिथेरेकैकभागत्वात्। अष्टम्यर्धस्यानतीतत्वेन प्रथमभागस्य विद्यमानत्वात् त्रिभागशेषो भवितुमर्हतीत्यर्थः। तेनाद्याष्टमीत्यर्थः।।
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