महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-260
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वायुना हैहयार्जुनं प्रति स्वतेजसा दैत्यदाहनरूपागस्त्यवसिष्ठचरित्रकीर्तनम्।। 1 ।।
भीष्म उवाच। | 13-260-1x |
इत्युक्तः स नृपस्तूष्णीमभूद्वायुस्ततोऽब्रवीत्। शृणु राजन्नगस्त्यस्य महात्म्यं ब्राह्ममस्य ह।। | 13-260-1a 13-260-1b |
असुरैर्निर्जिता देवा निरुत्साहाश्च ते कृताः। यज्ञाश्चैषां हृताः सर्वे पितॄणां च स्वधास्तथा।। | 13-260-2a 13-260-2b |
कर्मज्या मानवानां च दानवैर्हैहयर्षभ। भ्रष्टैश्वर्यास्ततो देवाश्चेरुः पृथ्वीमिति श्रुतिः।। | 13-260-3a 13-260-3b |
ततः कदाचित्ते राजन्दीप्तमादित्यवर्चसम्। ददृशुस्तेजसाः युक्तमगस्त्यं विपुलव्रतम्।। | 13-260-4a 13-260-4b |
अभिवाद्य तु तं देवाः पृष्ट्वा कुशलमेव च। इदमूचुर्महात्मानं वाक्यं काले जनाधिप।। | 13-260-5a 13-260-5b |
दानवैर्युधि भग्नाः स्म तथैश्वर्याच्चि भ्रंशिताः। तदस्मान्नो भयात्तीव्रात्त्राहि त्वं मुनिपुङ्गवः।। | 13-260-6a 13-260-6b |
इत्युक्तः स तदा देवैरगस्त्यः कुपितोऽभवत्। प्रजज्वाल च तेजस्वी कालाग्निरिव संक्षये।। | 13-260-7a 13-260-7b |
तेन दीप्तांशुजालेन निर्दग्धा दानवास्तदा। अन्तरिक्षान्महाराज निपेतुस्ते सहस्रशः।। | 13-260-8a 13-260-8b |
दह्यमानास्तु ते दैत्यास्तस्यागस्त्यस्य तेजसा। उभौ लोकौ परित्यज्य गताः काष्ठां तु दक्षिणाम्।। | 13-260-9a 13-260-9b |
बलिस्तु यजते यज्ञमश्वमेधं महीं गतः। येन्येऽधस्ता महीस्थाश्च तेन दग्धा महासुराः।। | 13-260-10a 13-260-10b |
त्यक्तलोकाः पुनः प्राप्ताः सुरैः शान्तभयैर्नृप। अथैनमब्रुवन्देवा भूमिष्ठानसु राञ्जहि।। | 13-260-11a 13-260-11b |
इत्युक्तः प्राह देवान्स न शक्तोस्मि महीगतान्। दग्धुं तपो हि क्षीयेन्मे न धक्ष्यामीति पार्थिव।। | 13-260-12a 13-260-12b |
एवं दग्धा भगवता दानवाः स्वेन तेजसा। अगस्त्येन तदा राजंस्तपसा भावितात्मना।। | 13-260-13a 13-260-13b |
ईदृशश्चाप्यगस्त्यो हि कथितस्ते मयाऽनघ। ब्रवीम्यन्यं ब्रूहि वा त्वमगस्त्यात्क्षत्रियं वरम्।। | 13-260-14a 13-260-14b |
भीष्म उवाच। | 13-260-15x |
इत्युक्तः स तदा तूष्णीमभूद्वायुस्ततोऽब्रवीत्। शृणु राजन्वसिष्ठस्य मुख्यं कर्म यशस्विनः।। | 13-260-15a 13-260-15b |
`वैखानसविधानेन गङ्गातीरं समाश्रिताः।' आदित्याः सत्रमासन्त सरो वैखानसं प्रति। वसिष्ठं मनसा गत्वा ज्ञात्वा तत्वस्य गोचरम्।। | 13-260-16a 13-260-16b 13-260-16c |
यजमानांस्तु तान्दृष्वा सर्वान्दीक्षानुकर्शितान्। हन्तुमैच्छन्त शैलाभा बलिनो नाम दानवाः।। | 13-260-17a 13-260-17b |
अदूरात्तु ततस्तेषां ब्रह्मदत्तवरं सरः। हता हता वै तत्रैते जीवन्त्याप्लुत्य दानवाः।। | 13-260-18a 13-260-18b |
ते प्रगृह्य महाघोरान्पर्वतान्परिघान्द्रुमान्। विक्षोभयन्तः सलिलमुत्थितं शतयोजनम्।। | 13-260-19a 13-260-19b |
अभ्यद्रवन्त देवांस्ते सहस्राणि दशैव हि। ततस्तैरर्दिता देवाः शरणं वासवं ययुः।। | 13-260-20a 13-260-20b |
स च तैर्व्यथितः शक्रो वसिष्ठं सरणं ययौ। ततोऽभयं ददौ तेभ्यो वसिष्ठो भगवानृषिः।। | 13-260-21a 13-260-21b |
तदा तान्दुःकितान्ज्ञात्वा आनृशंस्यपरो मुनिः। अयत्नेनादहत्सर्वाञ्ज्वलता स्वेन तेजसा।। | 13-260-22a 13-260-22b |
कैलासं प्रस्थितां चैव नदीं गङ्गां महातपाः। आनयत्तत्सरो दिव्यं तया भिन्नं च तत्सरः।। | 13-260-23a 13-260-23b |
सरो भिन्नं तया नद्या सरयूः सा ततोऽभवत्। हताश्च बलिनो यत्र स देशे बलिनोऽभवत्।। | 13-260-24a 13-260-24b |
एवं सेन्द्रा वसिष्ठेन रक्षितास्त्रिदिवौकसः। ब्रह्मदत्तवराश्चैव हता दैत्या महात्मना।। | 13-260-25a 13-260-25b |
एतत्कर्म वसिष्ठस्य कथितं हि मयाऽनघ। ब्रवीम्यन्यं ब्रूहि वा त्वं वसिष्ठात्क्षत्रियं वरम्।। 26 ।। | 13-260-26a 13-260-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि षष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 260 ।। |
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