महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-011
← अनुशासनपर्व-010 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-011 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-012 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति शुकवासवसंवादानुवादेनानृशंस्यप्रशंसनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-11-1x |
आनृशंस्यस्य धर्मज्ञ गुणान्भक्तजनस्य च। श्रोतुमिच्छामि धर्मज्ञ तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 13-11-1a 13-11-1b |
भीष्म उवाच। | 13-11-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। वासवस्य च संवादं शुकस्य च महात्मनः।। | 13-11-2a 13-11-2b |
विषये काशिराजस्य ग्रामान्निष्क्रम्य लुब्धकः। सविषं काण्डमादाय मृगयामास वै मृगम्।। | 13-11-3a 13-11-3b |
तत्र चामिषलुब्धेन लुब्धकेन महावने। अविदूरे मृगान्दृष्ट्वा बाणः प्रतिसमाहितः।। | 13-11-4a 13-11-4b |
तेन दुर्वारितास्त्रेण निमित्तचपलेषुणा। महान्वनतरुस्तत्र विद्धो मृगजिघांसया।। | 13-11-5a 13-11-5b |
स तीक्ष्णविषदिग्धेन शरेणातिबलात्क्षतः। उत्सृज्य फलपत्राणि पादपः शोषमागतः।। | 13-11-6a 13-11-6b |
तस्मिन्वृक्षे तथाभूते कोटरेषु चिरोषितः। न जहाति शुको वासं तस्य भक्त्या वनस्पतेः।। | 13-11-7a 13-11-7b |
निष्प्रचारो निराहारो ग्लानः शिथिलवागपि। कृतज्ञः सह वृक्षेण धर्मात्मा सोप्यशुष्यत।। | 13-11-8a 13-11-8b |
तमुदारं महासत्वमतिमानुषचेष्टितम्। समदुःखसुखं दृष्ट्वा विस्मितः पाकशासनः।। | 13-11-9a 13-11-9b |
ततश्चिन्तामुपगतः शक्रः कथमयं द्विजः। तिर्यग्योनावसम्भाव्यमानृशंस्यमवस्थितः।। | 13-11-10a 13-11-10b |
अथवा नात्र चित्रं हीत्यभवद्वासवस्य तु। प्राणिनामपि सर्वेषां सर्वं सर्वत्र दृश्यते।। | 13-11-11a 13-11-11b |
ततो ब्राह्मणवेषेणि मानुषं रूपमास्थितः। अवतीर्य महीं शक्रस्तं पक्षिणमुवाच ह।। | 13-11-12a 13-11-12b |
शुक भो पक्षिणांश्रेष्ठ दाक्षेयी सुप्रजास्त्वया। पृच्छे त्वां शुकमेनं त्वं कस्मान्न त्यजसि द्रुमम्।। | 13-11-13a 13-11-13b |
अथ पृष्टः शुकः प्राह मूर्ध्ना समभिवाद्य तम्। स्वागतं देवराज त्वं विज्ञातस्तपसा मया।। | 13-11-14a 13-11-14b |
ततो दशशताक्षेण साधुसाध्विति भाषितम्। अहो विज्ञानमित्येवं मनसा पूजितस्ततः।। | 13-11-15a 13-11-15b |
तमेवं शुभकर्माणं शुकं परमधार्मिकम्। जानन्नपि च तत्पापं पप्रच्छ बलसूदनः।। | 13-11-16a 13-11-16b |
निष्पत्रमफलं शुष्कमशरण्यं पतत्त्रिणाम्। किमर्थं सेवसे वृक्षं यदा महदिदं वनम्।। | 13-11-17a 13-11-17b |
अन्येऽपि बहवो वृक्षाः पत्रसंछन्नकोटराः। शुभाः पर्याप्तसञ्चारा विद्यन्तेऽस्मिन्महावने।। | 13-11-18a 13-11-18b |
गतायुषमसामर्थ्यं क्षीणसारं हतश्रियम्। विमृश्य प्रज्ञया धीर जहीमं ह्यस्थिरं द्रुमम्।। | 13-11-19a 13-11-19b |
भीष्म उवाच। | 13-11-20x |
तदुपश्रुत्य धर्मात्मा शुकः शक्रेण भाषितम्। सुदीर्घमतिनिःश्वस्य दीनो वाक्यमुवाच ह।। | 13-11-20a 13-11-20b |
अनतिक्रमणीयानि दैवतानि शचीपते। यत्राभवंस्तत्र भवांस्तन्निबोध सुराधिप।। | 13-11-21a 13-11-21b |
अस्मिन्नहं द्रुमे जातः साधुभिश्च गुणैर्युते। चालभावेन सङ्गुप्तः शत्रुभिश्च न धर्षितः।। | 13-11-22a 13-11-22b |
किमनुक्रोश्यं वैफल्यमुत्पादयसि मेऽनघ। `अनुरक्तस्य भक्तस्य संस्पृशे न च पावकम्।' आनृशंस्याभियुक्तस्य भक्तस्यानन्यगस्य च।। | 13-11-23a 13-11-23b 13-11-23c |
अनुक्रोशो हि साधूनां महद्धर्मस्य लक्षणम्। अनुक्रोशश्च साधूनां सदा प्रीतिं प्रयच्छति।। | 13-11-24a 13-11-24b |
त्वमेव दैवतैः सर्वैः पृच्छ्यसे धर्मसंशयात्। अतस्त्वं देवदेवानामाधिपत्ये प्रतिष्ठितः।। | 13-11-25a 13-11-25b |
नार्हसे मां सहस्राक्ष द्रुमं त्याजयितुं चिरात्। समस्थमुपजीवन्वै विषमस्थं कथं त्यजेत्।। | 13-11-26a 13-11-26b |
तस्य वाक्येन सौम्येन हर्षितः पाकशासनः। शुकं प्रोवाच धर्मज्ञमानृशंस्येन तोषितः।। | 13-11-27a 13-11-27b |
वरं वृणीष्वेति तदा स च वव्रे वरं शुकः। आनृशंस्यपरो नित्यं तस्य वृक्षस्य सम्भवम्।। | 13-11-28a 13-11-28b |
विदित्वा च दृढां भक्तिं तां शुके शीलसम्पदम्। प्रीतः क्षिप्रमथो वृक्षममृतेनावसिक्तवान्।। | 13-11-29a 13-11-29b |
ततः फलानि पत्राणि शाखाश्चापि मनोहराः। शुकस्य दृढभक्तित्वाच्छ्रीमत्तां प्राप स द्रुमः।। | 13-11-30a 13-11-30b |
शुकश्च कर्मणा तेन आनृशंस्यकृतेन वै। आयुषोन्ते महाराज प्राप शक्रसलोकताम्।। | 13-11-31a 13-11-31b |
एवमेव मनुष्येन्द्र भक्तिमन्तं समाश्रितः। सर्वार्थसिद्धिं लभते शुकं प्राप्य यथा द्रुमः।। | 13-11-32a 13-11-32b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि एकादशोऽध्यायः।। 11 ।। |
13-11-3 विषये देशे। काण्डं बाणम्।। 13-11-4 तत्र मृगयायाम्।। 13-11-5 दुर्वारितास्त्रेण दुर्वार्यशस्त्रेण। निमित्ताल्लक्ष्याच्चपलश्चलित इषुर्यस्य तेन। निमित्तविफलेषुणेति ध. पाठः।। 13-11-6 दिग्धेन लिप्तेन।। 13-11-10 द्विजः पक्षी। आनृशंस्य परदुःखेन दुःखित्वम्।। 13-11-11 सर्वेषां नृतिर्यगादीनाम्। सर्वत्र जातौ। सर्वं कृपाऽनैष्टुर्यादिकं दृश्यते इति वासवस्य बुद्धिरभवदिति सम्बन्धः।। 13-11-13 दाक्षेयो दक्षदौहित्री शुकीनाम।। 13-11-14 तपसा ज्ञानदृष्ट्या।। 13-11-23 अनुक्रोश्य कृपायित्वा। वैफल्यं जन्मन इति शेषः।। 13-11-25 संशयात् संशयं प्राप्य। अतः संशयच्छेत्तृत्वात्।। 13-11-28 सम्भवं सम्यगौश्वर्यं वरं वव्रे।।
अनुशासनपर्व-010 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-012 |