महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-151
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति पुरुषस्य पुण्यविशेषेणि पुनःपुनः स्वर्गभूम्यादिषु परिवर्ततेन जातवैराग्यस्य ब्रह्मज्ञानेनापुनरावृत्तिशाश्वतपदाप्राप्त्यादिप्रकारप्रतिपादनम्।। 1 ।।
`पराशर उवाच। | 13-151-1x |
ततः श्रुतिसमापन्नः संस्कृश्च यथाविधि। चौलोपनयनं तस्य यथावत्क्रियते द्विजैः।। | 13-151-1a 13-151-1b |
ततोऽष्टमे स वर्षे तु व्रतोपनयनादिभिः। क्रियाभिर्विधिदृष्टाभिर्ब्रह्मत्वमुपनीयते।। | 13-151-2a 13-151-2b |
गायत्रेण छन्दसा तु संस्कृतश्चरितव्रतः। अधीयमानो मेधावी शुद्धात्मा नियतव्रतः।। | 13-151-3a 13-151-3b |
अचिरेणैव कालेन साङ्गान्वेदानवाप्नुते। समावृत्तः स धर्मात्मा समावृत्तिक्रियस्तथा।। | 13-151-4a 13-151-4b |
याजनाध्यापनरतः कुशले कर्मणि स्थितः। अग्निहोइत्रपरो नित्यं देवतातिथिपूजकः।। | 13-151-5a 13-151-5b |
यजते विविधैर्यज्ञैर्जपयज्ञैस्तथैव च। न्यायागतधनान्वेषी न्यायवृत्तस्तपोधनः।। | 13-151-6a 13-151-6b |
सर्वभूतहितश्चैव सर्वशास्त्रविशारदः। स्वदारपरितुष्टात्मा क्रतुगामी जितेन्द्रियः।। | 13-151-7a 13-151-7b |
परापवादविरतः सत्यव्रतपरः सदा। स कालपरिणामात्तु संयुतः कालधर्मणा।। | 13-151-8a 13-151-8b |
संस्कृतश्चाग्निहोत्रेण यथावद्विधिपूर्वकम्। सोमलोकमवाप्नोति देहन्यासान्न संशयः।। | 13-151-9a 13-151-9b |
तत्र सोमप्रभैर्देवैरग्निष्वात्तैश्च भास्वरैः। तथा बर्हिषदैश्चैव देवैराङ्गिरसैरपि।। | 13-151-10a 13-151-10b |
विश्वेभिश्चैव देवैश्च तथा ब्रह्मर्षिभिः पुनः। देवर्षिभिश्चाप्रतिमैस्तथैवाप्सरसां गणैः। साध्यैः सिद्धैश्च सततं सत्कृतस्तत्र मोदते।। | 13-151-11a 13-151-11b 13-151-11c |
जातरूपमयं दिव्यमर्कतुल्यं मनोजवम्। देवगन्धर्वसंकीर्णं विमानमधिरोहति।। | 13-151-12a 13-151-12b |
सौम्यरूपा मनःकान्तास्तप्तकाञ्चनभूषणाः। सोमकन्या विमानस्थं रमयन्ति मुदान्विताः।। | 13-151-13a 13-151-13b |
स तत्र रमते प्रीतः सह देवैः सहर्षिभिः। लोकान्सर्वाननुचरन्दीप्ततेजा मनोजवः।। | 13-151-14a 13-151-14b |
सभां कामजवीं चापि नित्यमेवाभिगच्छति। सर्वलोकेश्वरमृषिं नमस्कृत्य पितामहम्।। | 13-151-15a 13-151-15b |
परमेष्ठिरनन्तश्रीर्लोकानां प्रभवाप्ययः। यतः सर्वाः प्रवर्तन्ते सर्गप्रलयविक्रियाः। स तत्र वर्तते श्रीमान्द्विशतं द्विजसत्तम।। | 13-151-16a 13-151-16b 13-151-16c |
अथ कालक्षयात्तस्मात्स्थानादावर्तते पुनः। जातिधर्मांस्तथा सर्वान्सर्गादावर्तनानि च।। | 13-151-17a 13-151-17b |
अशाश्वतमिदं सवेमिति चिन्त्योपलभ्य च। शाश्वतं दिव्यमचलमदीनमपनर्भवम्।। | 13-151-18a 13-151-18b |
आस्थास्यत्यभयं नित्यं यत्रावृत्तिर्न विद्यते। यत्रि गत्वा न म्रियते जन्म चापि न विद्यते।। | 13-151-19a 13-151-19b |
गर्भक्लेशामयाः प्राप्ता जायता च पुनः पुनः। कायक्लेशाश्च विविधा द्वन्द्वानि विविधानि च।। | 13-151-20a 13-151-20b |
शीतोष्णसुखदुःखानि ईर्ष्याद्वेषकृतानि च। तत्रतत्रोपभुक्तानि न क्वचिच्छाश्वती स्थितिः।। | 13-151-21a 13-151-21b |
एवं स निश्चयं कृत्वा निर्मुच्यि ग्रहबन्धनात्। छित्त्वा भार्यामयं पाशं तथैवापत्यसम्भवम्।। | 13-151-22a 13-151-22b |
यतिधर्ममुपाश्रित्यि गुरुशुश्रूषणे रतः। अचिरेणैव कालेन श्रेयः समभिगच्छति।। | 13-151-23a 13-151-23b |
योगशास्त्रं च साङ्ख्यं च विदित्वा सोऽर्थतत्वतः। अनुज्ञातश्च गुरुणा यथाशास्त्रमवस्थितः।। | 13-151-24a 13-151-24b |
पुण्यतीर्थानुसेवी च नदीनां पुलिनाश्रयः। शून्यागारनिकेतश्च वनवृक्षगुहाशयः।। | 13-151-25a 13-151-25b |
अरण्यानुचरो नित्यं देवारण्यनिकेतनः। एकरात्रं द्विरात्रं वा न क्वचित्सज्जते द्विजः।। | 13-151-26a 13-151-26b |
शीर्णपर्णभुगेवापि वने चरति भिक्षुकः। न भोगार्थमनुप्रेत्य यात्रामात्रं समश्नुते।। | 13-151-27a 13-151-27b |
धर्मलब्धं समश्नाति न कामात्किञ्चिदश्नुते। युगमात्रदृगध्वानं क्रोशादूर्ध्वं न गच्छति।। | 13-151-28a 13-151-28b |
समो मानावमानाभ्यां समलोष्टाश्मकाञ्चनः। सर्वभूताभयकरस्तथैवाभयदक्षिणः।। | 13-151-29a 13-151-29b |
निर्द्वन्द्वो निर्नमस्कारो निरानन्दपरिग्रहः। निर्ममो निरहङ्कारः सर्वभूतनिराश्रयः।। | 13-151-30a 13-151-30b |
परिसङ्ख्यानतत्वज्ञस्तदा सत्यरतः सदा। ऊर्ध्वं नाधो न तिर्यक्च न किञ्चिदभिकामयेत्।। | 13-151-31a 13-151-31b |
एवं हि रममाणस्तु यतिधर्मं यथाविधि। कालस्य परिणामात्तु यथा पक्वफलं तथा।। | 13-151-32a 13-151-32b |
स विसृज्य स्वकं देहं प्रविशेद्ब्रह्म शाश्वतम्। निरामयमनाद्यन्तं गुणसौम्यमचेतनम्।। | 13-151-33a 13-151-33b |
निरक्षरमबीजं च निरिन्द्रियमजं तथा। अजय्यमक्षयं यत्तदभेद्यं सूक्ष्ममेव च।। | 13-151-34a 13-151-34b |
निर्गुणं च प्रकृतिमन्निर्विकारं च सर्वशः। भूतभव्यभविष्यस्य कालस्य परमेश्वरम्। | 13-151-35a 13-151-35b |
अव्यक्तं पुरुषं क्षेत्रमानन्त्याय प्रपद्यते।।'।। | 13-151-36a |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि एकपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 151 ।। |
13-151-33 गुणसाम्यमचेतनमिति क.थ.पाठः।। 13-151-35 निर्गुणं चाप्रकृतिमदिति थ.पाठः।।
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