महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-123
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फेनपस्य गोभी रन्तिदेवं प्रति तत्सत्रे स्वेषां पशुत्वेन विनियोगप्रार्थना।। 1 ।। तेन गवां मध्ये कस्याश्चिदपि सकामत्वज्ञाने सत्रविरामरूपसमयकरणेन सत्रारभ्यः।। 2 ।। कदाजन कस्याश्चिद्गोर्वत्सस्नेहाद्विशसने दुःखावगमेन यागोपरमः।। 3 ।।
`भीष्म उवाच। | 13-123-1x |
ता गावो रन्तिदेवस्य गत्वा यज्ञं मनीषिणः। आत्मानं ज्ञापयामासुर्महर्षीणां समक्षतः।। | 13-123-1a 13-123-1b |
रन्तिदेवस्ततो राजा प्रयतः प्राञ्जलिः शुचिः। उवाच गावः प्रणतः किमागमनमित्यपि।। | 13-123-2a 13-123-2b |
गाव ऊचुः। | 13-123-3x |
इच्चामस्तव राजेन्द्र सत्रेऽस्मिन्विनियोजनम्। पशुत्वमुपसम्प्राप्तुं प्रसादं कर्तुमर्हसि।। | 13-123-3a 13-123-3b |
रन्तिदेव उवाच। | 13-123-4x |
नास्ति शक्तो गवां घातं कर्तुं शतसहस्रशः। घातयित्वा त्वहं युष्मान्कथमात्मानमुत्तरे।। | 13-123-4a 13-123-4b |
यः पशुत्वेन संयोज्य युष्मान्स्वर्गं नयेदिह। आत्मानं चैव तपसा गावः समुपगम्यताम्।। | 13-123-5a 13-123-5b |
गाव ऊचुः। | 13-123-6x |
अस्माकं तारणे युक्तो धर्मात्मा तपसि स्थितः। श्रुतोऽस्माभिर्भवान्राजंस्ततस्तु स्वयमागताः।। | 13-123-6a 13-123-6b |
रन्तिदेव उवाच। | 13-123-7x |
मम सत्रे पशुत्वं वो यद्येवं हि मनीषितम्। समयेनाहमेतेन जुहुयां वो हुताशने।। | 13-123-7a 13-123-7b |
कदाचिद्यदि वः काचिदकामा विनियुज्यते। तदा समाप्तिः सत्रस्य गवां स्यादिति नैष्ठिकी।। | 13-123-8a 13-123-8b |
गाव ऊचुः। | 13-123-9x |
एवमस्तु महाराज यथा त्वं प्रब्रवीषि नः। अकामाः स्युर्यदा गावस्तदा सत्रं समाप्यताम्।। | 13-123-9a 13-123-9b |
भीष्म उवाच। | 13-123-10x |
ततः प्रवृत्ते गोसत्रे रन्तिदेवस्य धीमतः। गोसहस्राण्यहरहर्नियुज्यन्ते शमीतृभिः।। | 13-123-10a 13-123-10b |
एवं बहनि वर्षाणि व्यतीतानि नराधिप। गवां वै वध्यमानानां न चान्तः प्रत्यदृश्यत।। | 13-123-11a 13-123-11b |
गवां चर्मसहस्रैस्तु राशयः पर्वतोपमाः। बभूवुः कुरुशार्दूल बहुधा मेघसंनिभाः।। | 13-123-12a 13-123-12b |
मेदःक्लेदवहा चैव प्रावर्तत महानदी। अद्यापि भुवि विख्याता नदी चर्मण्वती शुभा।। | 13-123-13a 13-123-13b |
ततः कदाचित्स्वं वत्सं गौरुपामन्त्र्य दुःखिता। एहि वत्स स्तनं पाहि मा त्वं पश्चात्क्षुदार्दितः।। | 13-123-14a 13-123-14b |
तप्स्यसे विमना दुःखं घातितायां मयि ध्रुवम्। एते ह्यायान्ति चण्डालाः सशस्त्रामां जिघांसवः।। | 13-123-15a 13-123-15b |
अथ शुश्राव तां वाणीं मानुषीं समुदाहृताम्। रन्तिदेवो महाराज ततस्तां समवारयत्।। | 13-123-16a 13-123-16b |
स्थापयामास गोसत्रमथ तं पार्तिवर्षभ। सत्रोत्सृष्टाः परित्यक्ता गावोऽन्याः समुपाश्रिताः।। | 13-123-17a 13-123-17b |
यास्तस्य राज्ञो निहता गावो यज्ञे महात्मनः। ता गोलोकमुपाजग्मुः प्रेक्षिता ब्रह्मवादिभिः।। | 13-123-18a 13-123-18b |
रन्तिदेवोपि राजर्षिरिष्ट्वा यज्ञं यथाविधि। ततः सख्यं सुरपतेस्त्रिदिवं चाक्षयं ययौ।। | 13-123-19a 13-123-19b |
फेनपो दिवि गोलोके मुमुदे शाश्वतीः समाः। अवशिष्टश्च या गवस्ता बभूवुर्वनेचराः।। | 13-123-20a 13-123-20b |
फेनपाख्यानमेतत्ते गवां माहात्म्यमेव च। कथितं पावनं पुण्यं कृष्णद्वैपायनेरितम्।। | 13-123-21a 13-123-21b |
नारायणोऽपि भगवान्दृष्ट्वा गोषु परं यशः। शुश्रूषां परमां चक्रे भक्तिं च भरतर्षभ।। | 13-123-22a 13-123-22b |
तस्मात्त्वमपि राजेन्द्र गा वै पूजय भारत। द्विजेभ्यश्चैव सततं प्रयच्छ कुरुसत्तम।। | 13-123-23a 13-123-23b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि त्रयोविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 123 ।। |
13-123-8 कदाचित् कदापि। काचित् कापि।। 13-123-10 शमीतृभिः शमितृभिः। दीर्घ आर्षः।।
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