महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-104
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति गोभूविद्यादानप्रशंसनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-104-1x |
भूय एव कुरुश्रेष्ठ दानानां विधिमुत्तमम्। कथयस्व महाप्राज्ञ भूमिदानं विशेषतः।। | 13-104-1a 13-104-1b |
पृथिवीं क्षत्रियो दद्याद्ब्राह्मणायेष्टिकर्मिणे। विधिवत्प्रतिगृह्णीयान्न त्वन्यो दातुमर्हति।। | 13-104-2a 13-104-2b |
सर्ववर्णैस्तु यच्छक्यं प्रदातुं फलकाङ्क्षिभिः। वेदे वा यत्समाख्यातं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।। | 13-104-3a 13-104-3b |
भीष्म उवाच। | 13-104-4x |
तुल्यनामानि देयानि त्रीणि तुल्यफलानि च। सर्वकामफलानीह गावः पृथ्वी सरस्वती।। | 13-104-4a 13-104-4b |
यो ब्रूयाच्चापि शिष्याय धर्म्यां ब्राह्मीं सरस्वतीम्। पृथिवीगोप्रदानाभ्यां तुल्यं स फलमश्नुते।। | 13-104-5a 13-104-5b |
तथैव गाः प्रशंसन्ति न तु देयं ततः परम्। सन्निकृष्टफलास्ता हि लघ्वर्थाश्च युधिष्ठिर।। | 13-104-6a 13-104-6b |
मातरः सर्वभूतानां गावः सर्वसुखप्रदाः। वृद्धिमाकाङ्क्षता नित्यं गावः कार्याः प्रदक्षिणाः | 13-104-7a 13-104-7b |
सन्ताड्या न तु पादेन गवां मध्ये न च व्रजेत्। मङ्गलायतनं देव्यस्तस्मात्पूज्याः सदैव गाः।। | 13-104-8a 13-104-8b |
प्रचोदनं देवकृतं गवां कर्मसु वर्तताम्। पूर्वमेवाक्षरं चान्यदभिधेयं ततः परम्।। | 13-104-9a 13-104-9b |
प्रचारे वा निवाते वा बुधो नोद्वेजयेत गाः। तृषिता ह्यभिवीक्षन्त्यो नरं हन्युः सबान्धवम्।। | 13-104-10a 13-104-10b |
पितृसद्मानि सततं देवतायतनानि च। पूयन्ते शकृता यासां पूतं किमधिकं ततः।। | 13-104-11a 13-104-11b |
घासमुष्टिं परगवे दद्यात्संवत्सरं तु यः। अकृत्वा स्वयमाहारं व्रतं तत्सार्वकामिकम्।। | 13-104-12a 13-104-12b |
स हि पुत्रान्यशोऽर्थं च श्रियं चाप्यधिगच्छति। नाशयत्यशुभं चैव दुःस्वप्नं चाप्यपोहति।। | 13-104-13a 13-104-13b |
युधिष्ठिर उवाच। | 13-104-14x |
देयाः किंलक्षणा गावः काश्चापि परिवर्जयेत्। कीदृशाय प्रदातव्या न देयाः कीदृशाय च।। | 13-104-14a 13-104-14b |
भीष्म उवाच। | 13-104-15x |
असद्वृत्ताय पापाय लुब्धायानृतवादिने। हव्यकव्यव्यपेताय न देया गौः कथञ्चन।। | 13-104-15a 13-104-15b |
भिक्षवे बहुपुत्राय श्रोत्रियायाहिताग्नये। दत्त्वा दशगवां दाता लोकानाप्नोत्यनुत्तमान्।। | 13-104-16a 13-104-16b |
`जुहोति यद्भोजयति यद्ददाति गवां रसैः। सर्वस्यैवांशभाग्दाता तन्निमित्तं प्रवर्तितः।।' | 13-104-17a 13-104-17b |
यश्चैव धर्मं कुरुते तस्य धर्मफलं च यत्। सर्वस्यैवांशभाग्दाता तन्निमित्तं प्रवृत्तयः।। | 13-104-18a 13-104-18b |
यश्चैनमुत्पादयते यश्चैनं त्रायते भयात्। यश्चास्य कुरुते वृत्तिं सर्वे ते पितरस्त्रयः।। | 13-104-19a 13-104-19b |
कल्मषं गुरुशुश्रूषा हन्ति मानो महद्यशः। अपुत्रतां त्रयः पुत्रा अवृत्तिं दश धेनवः।। | 13-104-20a 13-104-20b |
वेदान्तनिष्ठस्य बहुश्रुतस्य प्रज्ञानतृप्तस्य जितेन्द्रियस्य। शिष्टस्य दान्तस्य यतस्य चैव भूतेषु नित्यं प्रियवादिनश्च।। | 13-104-21a 13-104-21b 13-104-21c 13-104-21d |
यः क्षुद्भयाद्वै न विकर्म कुर्या- न्मृदुश्च शान्तौ ह्यतिथिप्रियश्च। शुभे पात्रे ये गुणा गोप्रदाने तावान्दोषो ब्राह्मणस्वापहारे। | 13-104-22a 13-104-22b 13-104-22c 13-104-22d |
सर्वावस्थं ब्राह्मणस्वापहारे दाराश्चैषां दूरतो वर्जनीयाः।। | 13-104-23a 13-104-23b |
`विप्रदारे परिहृते तद्धनेऽपहृते च तु। परित्रायन्ति शक्तास्तु नमस्तेभ्यो मृताश्च ये।। | 13-104-24a 13-104-24b |
न पालयन्ति निहतान्ये तान्वैवस्वतो यमः। दण्डयन्भर्सयन्नित्यं निरयेभ्यो न मुञ्चति।। | 13-104-25a 13-104-25b |
तथा गवां परित्राणे पीडने च शुभाशुभम्। विप्रगोषु विशेषेण रक्षितेषु गृहेषु वा।।' | 13-104-26a 13-104-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि चतुरधिकशततमोऽध्यायः।। 104 ।। |
13-104-2 इष्टिकर्मिणे याज्ञिकाय।। 13-104-4 तुल्यनामानि गोपदवाच्यानि।। 13-104-6 देयं दानयोग्यम्। परं श्रेष्ठम्।। 13-104-9 गवां बलीवर्दानां कर्मसु यज्ञाद्यर्थेषु कृष्याद्यर्थेषु कर्षणादिषु वर्ततां प्रचोदनं प्रतोदेन प्रेरणं देवैः कृतमिति न तत्र दोष इति भावः। तथापि पूर्वं यज्ञार्थमेव चोदनमक्षरं श्रेयस्करम्। अन्यत्कृष्याद्यर्थं तु ततः परं वैदिककर्षणमनुप्रवृत्तमभिधेयं वाच्यं निन्द्यमित्यर्थः।। 13-104-10 निवाते कठिनोपवेशने। अभिवीक्षन्त्यो जलमलभमानाः।। 13-104-12 आहारं तदीयतक्राद्याहरणमकृत्वा।। 13-104-21 वेदान्तनिष्ठस्य वृत्तिं अतिसृजेतेत्युत्तरेणान्वयः। चतुर्ध्यर्थे षष्ठी।।
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