महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-119
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति इन्द्रस्य वत्सभावेन सुरभ्याः क्षीरपानादमरत्वादिलाभकथनम्।। 1 ।। तथा इन्द्रदिदेवानां वासार्थं सुरभेरनुमत्या तदीयमुखाद्यवयवसमाश्रयणकथनम्।। 2 ।।
`युधिष्ठिर उवाच। | 13-119-1x |
सुरभ्यास्तु तदा देव्याः कीर्तिर्लक्ष्मीः सरस्वती। मेधा च प्रवरा देवी याश्चतस्रोऽभिविश्रुताः।। | 13-119-1a 13-119-1b |
पृथग्गोभ्यः किमेताः स्युरुताहो गोषु संश्रिताः। देवाः के वाऽऽश्रिता गोषु तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 13-119-2a 13-119-2b |
भीष्म उवाच। | 13-119-3x |
यं देवं संश्रिता गावस्तं देवं देवसंज्ञितम्। यद्यद्देवाश्रितं दैवं तत्तद्दैवं द्विजा विदुः।। | 13-119-3a 13-119-3b |
सर्वेषामेव देवानां पूर्वं किल समुद्भवे। अमृतार्थे सुरपतिः सुरभिं समुपस्थितः।। | 13-119-4a 13-119-4b |
इन्द्र उवाच। | 13-119-5x |
इच्छेयममृतं दत्तं त्वया देवि रसाधिकम्। त्वत्प्रसादाच्छिवं मह्यममरत्वं भवेदिति।। | 13-119-5a 13-119-5b |
सुरभिरुवाच। | 13-119-6x |
वत्सो भूत्वा सुपरते पिबस्व प्रस्रवं मम। ततोऽमरत्वमपि तस्थानमैन्द्रमवाप्स्यसि।। | 13-119-6a 13-119-6b |
न च ते वृत्रहन्युद्धे व्यथाऽरिभ्यो भविष्यति। बलार्थमात्मनः शक्र प्रस्रवं पिब मे विभो।। | 13-119-7a 13-119-7b |
भीष्म उवाच। | 13-119-8x |
ततोऽपिबत्स्नं तस्याः सुरभ्याः सुरसत्तमः। अमरत्वं सुरूपत्वं बलं चापदनुत्तमम्।। | 13-119-8a 13-119-8b |
पुरंदरोऽमृतं पीत्वा प्रहृष्टः समुपस्थितः। पुत्रोऽहं तव भद्रं ते ब्रूहि किं करवाणि ते।। | 13-119-9a 13-119-9b |
सुरभिरुवाच। | 13-119-10x |
कृतं पुत्र त्वया सर्वमुपयाहि त्रिविष्टपम्। पालयस्व सुरान्सर्वाञ्जहि ये सुरशत्रवः।। | 13-119-10a 13-119-10b |
न च गोब्राह्मणेऽवज्ञा कार्या ते शान्तिमिच्छता। गोब्राह्मणस्य निश्वासः शोषयेदपि देवताः।। | 13-119-11a 13-119-11b |
गोब्राह्मणप्रियो नित्यं स्वस्तिशब्दमुदाहरन्। पृथिव्यामन्तरिक्षे च नाकपृष्ठे च विक्रमेत्।। | 13-119-12a 13-119-12b |
यच्च तेऽन्यद्भवेत्कृत्यं तन्मे ब्रूयाः समासतः। तत्ते सर्वं करिष्यामि सत्येनैतद्ब्रवीमि ते।। | 13-119-13a 13-119-13b |
इन्द्र उवाच। | 13-119-14x |
इच्छेयं गोषु नियतं वस्तुं देवि ब्रवीमि ते। एभिः सुरगणैः सार्धं ममानुग्रहमाचर।। | 13-119-14a 13-119-14b |
सुरभिरुवाच। | 13-119-15x |
गवां शरीरं प्रत्यक्षमेतत्कौशिक लक्ष्ये। यो यत्रोत्सहते वस्तुं स तत्र वसतां सुरः।। | 13-119-15a 13-119-15b |
सर्वं पवित्रं परमं गवां गात्रं सुपूजितम्। तथा कुरुष्व भद्रं ते यथा त्वं शक्र मन्यसे।। | 13-119-16a 13-119-16b |
भीष्म उवाच। | 13-119-17x |
तस्यास्तद्वचनं श्रुत्वा सुरभ्याः सुरसत्तमः। सह सर्वैः सुरगणैरभजत्सौरभीं प्रजाम्।। | 13-119-17a 13-119-17b |
शृङ्गे वक्त्रे च जिह्वायां देवराजः समाविशत्। सर्वच्छिद्रेषु पवनः पादेषु मरुतां गणाः।। | 13-119-18a 13-119-18b |
ककुदं सर्वगो रुद्रः कुक्षौ चैव हुताशनः। सरस्वती स्तनेष्वग्र्या श्रीः पुरीषे जगत्प्रिया।। | 13-119-19a 13-119-19b |
मूत्रे कीर्तिश्च गङ्गा च मेधा पयसि शाश्वती। वक्त्रे सोमश्च वै देवो हृदये भगवान्यमः।। | 13-119-20a 13-119-20b |
धर्मः पुच्छे क्रिया लोम्नि भास्करश्चक्षुषी श्रितः। सिद्धाः सन्धिषु सिद्धिश्च तपस्तेजश्च चेष्टने।। | 13-119-21a 13-119-21b |
एवं सर्वे सुरगणा नियता गात्रवर्त्मसु। महती देवता गावो ब्राह्मणैः परिसंस्कृताः।। | 13-119-22a 13-119-22b |
गामाश्रयन्ति सहिता देवा हि प्रभविष्णवः। किमासां सर्वभावेन विदध्याद्भगवान्प्रियम्।। | 13-119-23a 13-119-23b |
भवांश्च परया भक्त्या पूजयस्व नरेश्वर। गावस्तु परमं लोके पवित्रं पावनं हविः।। | 13-119-24a 13-119-24b |
निपात्य भक्षितः स्वर्गाद्भार्गवः फेनपः किल। स च प्राणान्पुनर्लब्ध्वा ततो गोलोकमाश्रितः।।' | 13-119-25a 13-119-25b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि एकोनविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 119 ।। |
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