महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-012
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति ब्राह्मणप्रशंसनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-12-1x |
यथैव ते नमस्कार्याः प्रोक्ताः शक्रेण मानद। एतन्मे सर्वमाचक्ष्व येभ्यः स्पृहयसे नृपः।। | 13-12-1a 13-12-1b |
उत्तमापद्गतस्यापि यत्र ते वर्तते मनः। मनुष्यलोके सर्वस्मिन्यदमुत्रेह चाप्युत।। | 13-12-2a 13-12-2b |
भीष्म उवाच। | 13-12-3x |
स्पृहयामि द्विजातिभ्यो येषां ब्रह्म परं धनम्। येषां संप्रत्ययः स्वर्गस्तपःस्वाध्यायसाधनम्।। | 13-12-3a 13-12-3b |
येषां बालाश्च वृद्धाश्च पितृपैतामहीं धुरम्। उद्वहन्ति न सीदन्ति तेभ्यो वै स्पृहयाम्यहम्।। | 13-12-4a 13-12-4b |
विद्यास्वभिविनीतानां दान्तानां मृदुभाषिणाम्। श्रुतवृत्तोपपन्नानां सदाऽक्षरविदां सताम्।। | 13-12-5a 13-12-5b |
संसत्सु वदतां तात हंसानामिव सङ्घशः। मङ्गल्यरूपा रुचिरा दिव्यजीमूतनिःस्वनाः।। | 13-12-6a 13-12-6b |
सम्यगुच्चरिता वाचः श्रूयन्ते हि युधिष्ठिर। शुश्रूषमाणे नृपतौ प्रेत्य चेह सुखावहाः।। | 13-12-7a 13-12-7b |
ये चापि तेषां श्रोतारः सदा सदसि सम्मताः। विज्ञानगुणसम्पन्नास्तेभ्यश्च स्पृहयाम्यहम्।। | 13-12-8a 13-12-8b |
सुसंस्कृतानि प्रयताः शुचीनि गुणवन्ति च। ददत्यन्नानि तृप्त्यर्थं ब्राह्मणेभ्यो युधिष्ठर। ये चापि सततं राजंस्तेभ्यश्च स्पृहयाम्यहम्।। | 13-12-9a 13-12-9b 13-12-9c |
शक्यं ह्येवाहवे योद्धुं न दातुमनसूयितुम्।। | 13-12-10a |
शूरा वीराश्च शतशः सन्ति लोके युधिष्ठिर। तेषां संख्यायमानानां दानशूरो विशिष्यते।। | 13-12-11a 13-12-11b |
`भद्रं तु जन्म सम्प्राप्य भूयो ब्राह्मणको भवेत्। बन्धुमध्ये कुले जातः सुदुरापमवाप्नुयात्।।' | 13-12-12a 13-12-12b |
धन्यः स्यां यद्यहं भूयः सौम्यब्राह्मणकोपि वा। कुले जातो धर्मगतिस्तपोविद्यापरायणः।। | 13-12-13a 13-12-13b |
न मे त्वत्तः प्रियतरो लोकेऽस्मिन्पाण्डुनन्दन। त्वत्तश्चापि प्रियतरा ब्राह्मणा एव भारत।। | 13-12-14a 13-12-14b |
यथा मम प्रियतमास्त्वत्तो विप्राः कुरूत्तम। तेन सत्येन गच्छेयं लोकान्यत्र स शन्तनुः।। | 13-12-15a 13-12-15b |
न मे पिता प्रियतरो ब्रह्मणेभ्यस्तथाऽभवत्। न मे पितुः पिता वाऽपि ये चान्येऽपि सुहृञ्जनाः।। | 13-12-16a 13-12-16b |
न हि मे वृजिनं किञ्चिद्विद्यते ब्राह्मणेष्विह। अणु वा यदि वा स्थूलं विद्यते साधुकर्मसु।। | 13-12-17a 13-12-17b |
कर्मणा मनसा वाऽपि वाचा वाऽपि परंतप। यन्मे कृतं ब्राह्मणेभ्यस्तेनाद्य न तपाम्यहम्।। | 13-12-18a 13-12-18b |
ब्रह्मण्य इति मामाहुस्तया वाचाऽस्मि तोषितः। एतदेव पवित्रेभ्यः सर्वेभ्यः परमं स्मृतम्।। | 13-12-19a 13-12-19b |
पश्यामि लोकानमलाञ्शुचीन्ब्राह्मणतोषणात्। तेषु मे तात गन्तव्यमह्नाय च चिराय च।। | 13-12-20a 13-12-20b |
यथा भर्त्राश्रयो धर्मः स्त्रीणां लोके युदिष्ठिर। स देवः सा गतिर्नान्या क्षत्रियस्य तथा द्विजाः।। | 13-12-21a 13-12-21b |
क्षत्रियः शतवर्षी च दशवर्षी द्विजोत्तमः। पितापुत्रौ च विज्ञेयौ तयोर्हि ब्राह्मणो गुरुः।। | 13-12-22a 13-12-22b |
नारी तु पत्यभावे वै देवरं कुरुते पतिम्। पृथिवी ब्राह्मणालाभे क्षत्रियं कुरुते पतिम्।। | 13-12-23a 13-12-23b |
`ब्राह्मणानुज्ञया ग्राह्यं राज्यं च सपुरोहितैः। तद्रक्षणेन स्वर्गोऽस्य तत्कोपान्नरकोऽक्षयः।।' | 13-12-24a 13-12-24b |
पुत्रवच्चैव ते रक्ष्या उपास्या गुरुवच्च ते। अग्निवच्चोपचार्या वै ब्राह्मणाः कुरुसत्तम्।। | 13-12-25a 13-12-25b |
ऋजुन्सतः सत्यशीलान्सर्वभूतहिते रतान्। आशीविषानिव क्रुद्धान्द्विजान्परिचरेत्सदा।। | 13-12-26a 13-12-26b |
तेजसस्तपसश्चैव नित्यं बिभ्येद्युधिष्ठिर। उभे चैते परित्याज्ये तेजश्चैव तपस्तथा।। | 13-12-27a 13-12-27b |
व्यवसायस्तयोः शीघ्रमुभयोरेव विद्यते। हन्युः क्रुद्धा महाराज ब्राह्मणा ये तपस्विनः।। | 13-12-28a 13-12-28b |
`दूरतो मातृवत्पूज्या विप्रदाराः सुरक्षया। अकोपनापराधेन भूयो नरकमश्नुते।। | 13-12-29a 13-12-29b |
भूयः स्यादुभयं दत्तं ब्राह्मणाद्यदकोपनात्। कुर्यादुभयतः शेषं दत्तशेषं न शेषयेत्।। | 13-12-30a 13-12-30b |
दण्डपाणिर्यथा गोष्ठं पालो नित्यं हि रक्षयेत्। ब्राह्मणेषु स्थितं ब्रह्म क्षत्रियः परिपालयेत्।। | 13-12-31a 13-12-31b |
पितेव पुत्रान्रक्षेथा ब्राह्मणान्ब्रह्मतेजसः। गृहे चैषामवेक्षेथाः किंस्विदस्तीति जीवनम्।। | 13-12-32a 13-12-32b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि द्वादशोऽध्यायः।। 12 ।। |
13-12-2 यदमुत्रेह च हितं तद्वदेति शेषः।। 13-12-5 अक्षरं ब्रह्म तद्विदाम्।। 13-12-6 हंससादृश्यं क्षीरनीरयोरिव सारसारयोर्विवेचनात्।। 13-12-7 नृपतौ नृपतेः समीपे उच्चरिताः।। 13-12-8 ये चापि तेषां दातार इति ध. पाठः।। 13-12-13 ब्राह्मणकः कुत्सितब्राह्मणोपि यद्यहं स्यां तर्हि धन्यः किमुत फुले जातः।।
13-12-17 यृजिनं सङ्कटम्। फलाशेथियावत्। पूज्यत्वादेव तान्पूजयामि नतु फलायेत्यर्थः।।
13-12-18 तेन ब्राह्मणारावनेन। न तपामि न व्यथां प्राप्तोमि।। 13-12-19 ब्रह्मण्यो ब्रह्मजातौ आसक्तः।। 13-12-27 ब्राह्मणाद्बिभ्येत् नतु तत्र तेजस्तपसी स्वीये प्रकाशयेदित्यर्थः। तेजः क्रोधबलम्। तपो योगबलम्।। 13-12-28 तयोस्तपस्तेजसोर्ब्रह्मणक्षत्रियस्थयोर्व्यवसायः फलमभिभवरूपं शीघ्रं तीव्रं तथापि तपस्विन एवेतरान् हन्युर्न तेजस्विन इत्यर्थः।। 13-12-30 ल्यब्लोपे पञ्चमी। अकोपनं ब्राह्मणं प्राप्य यद्भूयः बहुतरं उभयं तपस्तेजआख्यं स्यात् तद्दत्तं खण्डितं भवतीति शेषः। उभयत उभयं चेत् शेषं कुर्याद् दत्तशेषं शेषयेदित्यन्वयः। द्वाभ्यां अन्योन्यस्मिन्प्रयुक्तं तेजआदिद्वयं न निःशेषं नश्यति किन्तु शेषम्। क्षमावता खण्डितस्य तस्यावशिष्टं तु न शेषयेन्न शिष्यते अपितु निःशेषमेव नश्यतीत्यर्थः।। 30 ।। 13-12-32 अभावे तद्देयमित्यर्थः।। 13-12-42 द्वादशोऽध्यायः।।
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