महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-088
← अनुशासनपर्व-087 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-088 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-089 → |
पूर्वमन्तर्हितेन घ्यवनेन कुशिकम्प्रति पुनः शयने प्रस्वपत आत्मनः प्रदर्शनम्।। 1 ।। पुनरुत्थितेन मुनिना राजानम्प्रति आत्मनस्तैलाभ्यञ्जननियोजनेन स्नानशालायां पुनरन्तर्धानम्।। 2 ।। पुनराविष्कृतात्मना तेन सभार्यस्य राज्ञो रथधुरि संयोजनपूर्वकं याचकेभ्यस्तदीयवित्तादिवितरणेन वीथ्यां रथेन निर्गमनम्।। 3 ।। स्वीयप्रतोदताडनेऽप्यविकृतमानसे सभार्ये कुशिके प्रसीदता मुनिना वरदानेन तस्य स्वगृहप्रेषणम्।। 4 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-88-1x |
तस्मिन्नन्तर्हिते विप्रे राजा किमकरोत्तदा। भार्या चास्य महाभागा तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 13-88-1a 13-88-1b |
भीष्म उवाच। | 13-88-2x |
अदृष्ट्वा स महीपालस्तमृषिं सह भार्यया। परिश्रान्तो निववृते व्रीडितो नष्टचेतनः।। | 13-88-2a 13-88-2b |
स प्रविश्य पुरीं दीनो नाभ्यभाषत किञ्चन। तदेव चिन्तयामास च्यवनस्य विचेष्टितम्।। | 13-88-3a 13-88-3b |
अथ शून्येन मनसा प्रविवेश गृहं नृपः। ददर्श शयने तस्मिञ्शयानं भृगुनन्दनम्।। | 13-88-4a 13-88-4b |
विस्मितौ तमृषिं दृष्ट्वा तदाश्चर्यं विचिन्त्य च। दर्शनात्तस्य तु तदा विश्रान्तौ सम्बभूवतुः।। | 13-88-5a 13-88-5b |
यथास्थानं ततो गत्वा तत्पादौ संववाहतुः। अथापरेण पार्श्वेन सुष्वाप स महामुनिः।। | 13-88-6a 13-88-6b |
तेनैव च स कालेन प्रत्यबुद्ध्यत वीर्यवान्। न च तौ चक्रतुः किञ्चिद्विकारं भयशङ्कितौ।। | 13-88-7a 13-88-7b |
प्रतिबुद्धस्तु स मुनिस्तौ प्रोवाच विशाम्पते। तैलाभ्यङ्गो दीयतां मे स्नास्येऽहमिति भारत।। | 13-88-8a 13-88-8b |
तौ तथेति प्रतिश्रुत्य क्षुधितौ श्रमकर्शितौ। शतपाकेन तैलेन महार्हेणोपतस्थतुः।। | 13-88-9a 13-88-9b |
ततः सुखासीनमृषिं वाग्यतौ संववाहतुः। न च पर्याप्तमित्याह भार्गवः सुमहातपाः।। | 13-88-10a 13-88-10b |
यदा तौ निर्विकारौ तु लक्षमायास भार्गवः। तत उत्थाय सहसा स्नानशालां विवेश ह।। | 13-88-11a 13-88-11b |
क्लृप्तमेव तु तत्रासीत्स्नानीयं पार्थिवोचितम्। असत्कृत्य च तत्सर्वं तत्रैवान्तरधीयत।। | 13-88-12a 13-88-12b |
स मुनिः पुनरेवाथ नृपतेः पश्यतस्तदा। नासूयां चक्रतुस्तौ च दम्पती भरतर्षभ।। | 13-88-13a 13-88-13b |
अथ स्नातः स भगवान्सिंहासनगतः प्रभुः। दर्शयामास कुशिकं सभार्यं कुरुनन्दन।। | 13-88-14a 13-88-14b |
संहृष्टवदनो राजा सभार्यः कुशिको मुनिम्। सिद्धमन्नमिति प्रह्वो निर्विकारो न्यवेदयत्।। | 13-88-15a 13-88-15b |
आनीयतामिति मुनिस्तं चोवाच नराधिपम्। स राजा समुपाजह्रे तदन्नं सह भार्यया।। | 13-88-16a 13-88-16b |
मांसप्रकारान्विविधाञ्शाकानि विविधानि च। लेह्यपिष्टविकारांश्च पानकानि लघूनि च।। | 13-88-17a 13-88-17b |
रसालापूपकांश्चित्रान्मोदकानथ षड्रसान्। रसान्नानाप्रकारांश्च वन्यं च मुनिभोजनम्।। | 13-88-18a 13-88-18b |
फलानि च विचित्राणि राजभोज्यानि भूरिशः। बदरेङ्गुदकाश्मर्यभल्लातकफलानि च।। | 13-88-19a 13-88-19b |
गृहस्थानां च यद्भोज्यं यच्चापि वनवासिनाम्। सर्वमाहारयामास राजा शापभयान्मुनेः।। | 13-88-20a 13-88-20b |
अथ सर्वमुपन्यस्तमग्रतश्च्यवनस्य तत्। ततः सर्वं समानीय तच्च शय्यासनं मुनिः।। | 13-88-21a 13-88-21b |
वस्त्रैः शुभैरवच्छाद्य भोजनोपस्करैः सह। सर्वमादीपयामास च्यवनो भृगुनन्दनः।। | 13-88-22a 13-88-22b |
न च तौ चक्रतुः क्रोधं दम्पती सुमहाव्रतौ। तयोः सम्प्रेक्षतोरेव पुनरन्तर्हितोऽभवत्।। | 13-88-23a 13-88-23b |
तथैव च स राजर्षिस्तस्थौ तां रजनीं तदा। सभार्यो वाग्यतः श्रीमान्न चकोपं समाविशत्।। | 13-88-24a 13-88-24b |
नित्यसंस्कृतमन्नं तु विविधं राजवेश्मनि।। शयनानि च मुख्यानि परिषेकाश्च पुष्कलाः।। | 13-88-25a 13-88-25b |
वस्त्रं च विविधाकारमभवत्समुपार्जितम्। न शशाक ततो द्रष्टमन्तरं च्यवनस्तदा।। | 13-88-26a 13-88-26b |
पुनरेव च विप्रर्षिः प्रोवाच कुशिकं नृपम्। सभार्यो मां रथेनाशु वह यत्र ब्रवीम्यहम्।। | 13-88-27a 13-88-27b |
तथेति च प्राह नृपो निर्विशङ्कस्तपोधनम्। क्रीडारथोस्तु भगवन्नुत साङ्ग्रामिको रथः।। | 13-88-28a 13-88-28b |
इत्युक्तः स मुनी राज्ञा तेन हृष्टेन तद्वचः। च्यवनः प्रत्युवाचेदं हृष्टः परपुरंजयम्।। | 13-88-29a 13-88-29b |
सज्जीकुरु रथं क्षिप्रं यस्ते साङ्ग्रामिको मतः। सायुधः सपताकश्च शक्तीकनकयष्टिमान्।। | 13-88-30a 13-88-30b |
किंकिणीस्वननिर्घोषो युक्तस्तोरणकल्पनैः। गदास्वङ्गनिबद्धश्च परमेषुशतान्वितः।। | 13-88-31a 13-88-31b |
ततः स तं तथेत्युक्त्वा कल्पयित्वा महारथम्। भार्यां वामे धुरि तदा चात्मानं दक्षिणे तथा।। | 13-88-32a 13-88-32b |
त्रिदण्डं वज्रसूच्यग्रं प्रतोदं तत्र चादधत्। सर्वमेतत्तथा दत्त्वा नृपो वाक्यमऽथाब्रवीत्।। | 13-88-33a 13-88-33b |
भगवन्क्व रथो यातु ब्रवीतु भृगुनन्दन। यत्र वक्ष्यसि विप्रर्षे तत्र यास्यति ते रथः।। | 13-88-34a 13-88-34b |
एवमुक्तस्तु भगवान्प्रत्युवाचाथ तं नृपम्। इतः प्रभृति यातव्यं पदकम्पदकं शनैः।। | 13-88-35a 13-88-35b |
श्रमो मम यथा न स्यात्तथा मच्छन्दचारिणौ। सुसुखं चैव वोढव्यो जनः सर्वश्च पश्यतु।। | 13-88-36a 13-88-36b |
नोत्सार्याः पथिकाः केचित्तेभ्योदास्ये वसु ह्यहम्। ब्राह्मणेभ्यश्च ये कामानर्थयिष्यन्तिमां पथि।। | 13-88-37a 13-88-37b |
सर्वान्दास्याम्यशेषेण धनं रत्नानि चैव हि। क्रियतां निखिलेनैतन्मा विचारय पार्थिव।। | 13-88-38a 13-88-38b |
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा राजा भृत्यांस्तथाऽब्रवीत्। यद्यद्ब्रूयान्मुनिस्तत्तत्सर्वं देयमशङ्कितैः।। | 13-88-39a 13-88-39b |
ततो रत्नान्यनेकानि स्त्रियो युग्यमजाविकम्। कृताकृतं च कनकं गजेन्द्राश्चाचलोपमाः।। | 13-88-40a 13-88-40b |
अन्वगच्छन्त तमृषिं राजामात्याश्च सर्वशः। हाहाभूतं च तत्सर्वमासीन्नगरमार्तवत्।। | 13-88-41a 13-88-41b |
तौ तीक्ष्णाग्रेण सहसा प्रतोदेन प्रतोदितौ। पृष्ठे विद्धौ कटे चैव निर्विकारौ तमूहतुः।। | 13-88-42a 13-88-42b |
वेपमानौ निराहारौ पञ्चाशद्रात्रकर्शितौ। कथंचिदूहतुर्धैर्याद्दम्पती तं रथोत्तमम्।। | 13-88-43a 13-88-43b |
बहुशो भृशविद्धौ तौ क्षरमाणौ क्षतोद्भवम्। ददृशाते महाराज पुष्पिताविव किंशुकौ।। | 13-88-44a 13-88-44b |
तौ दृष्ट्वा पौरवर्गस्तु भृशं शोकसमाकुलः। अभिशापभयत्रस्तो न तं किञ्चिदुवाच ह।। | 13-88-45a 13-88-45b |
द्वन्द्वशश्चाब्रुवन्सर्वे पश्यध्वं तपसो बलम्। क्रुद्धा अपि मुनिश्रेष्ठं वीक्षितुं नेह शुक्नुमः।। | 13-88-46a 13-88-46b |
अहो भगवतो वीर्यं महर्षेर्भावितात्मनः। राज्ञश्चापि सभार्यस्य धैर्यं पश्यत यादृशम्।। | 13-88-47a 13-88-47b |
श्रान्तावपि हि कच्छ्रेण रथमेनं समूहतुः। न चैतयोर्विकारं वै ददर्शं भृगुनन्दनः।। | 13-88-48a 13-88-48b |
भीष्म उवाच। | 13-88-49x |
ततः स निर्विकारौ तु दृष्ट्वा भृगुकुलोद्वहः। वसु विश्राणयामास यथा वैश्रवणस्तथा।। | 13-88-49a 13-88-49b |
तत्रापि राजा प्रीतात्मा यथादिष्टमथाकरोत्। ततोऽस्य भगवान्प्रीतो बभूव मुनिसत्तमः।। | 13-88-50a 13-88-50b |
अवतीर्य रथश्रेष्ठाद्दम्पती तौ मुमोच ह। विमोच्य चैतौ विधिवत्ततो वाक्यमुवाच ह।। | 13-88-51a 13-88-51b |
स्निग्धगम्भीरया वाचा भार्गवः सुप्रसन्नया। ददामि वां वरं श्रेष्ठं तं ब्रूतामिति भारत।। | 13-88-52a 13-88-52b |
सुकुमारौ च तौ विद्धौ कराभ्यां मुनिसत्तमः। पस्पर्शामृतकल्पाभ्यां स्नेहाद्भरतसतम।। | 13-88-53a 13-88-53b |
अथाब्रवीन्नृपो वाक्यं श्रमो नास्त्यावयोरिह। विश्रान्तौ स्वः प्रभावात्ते ध्यानेनैवेह भार्गव।। | 13-88-54a 13-88-54b |
अथ तौ भगवान्प्राह प्रहृष्टश्च्यनस्तदा। न वृथा व्याहृतं पूर्वं यन्मया तद्भविष्यति।। | 13-88-55a 13-88-55b |
रमणीयः समुद्देशो गङ्गातीरमिदं शुभम्। किञ्चित्कालं व्रतपरो निवत्स्यामीह पार्थिव।। | 13-88-56a 13-88-56b |
गम्यतां स्वपुरं पुत्र विश्रान्तः पुनरेष्यसि। इहस्थं मां सभार्यस्त्वं द्रष्टासि श्वो नराधिप।। | 13-88-57a 13-88-57b |
न च मन्युस्त्वया कार्यः श्रेयस्त्वां समुपस्थितम्। यत्काङ्क्षितं हृदिस्थं ते तत्सर्वं हि भविष्यति।। | 13-88-58a 13-88-58b |
इत्येवमुक्तः कुशिकः प्रहृष्टेनान्तरात्मना। प्रोवाच मुनिशार्दूलमिदं वचनमर्थवत्।। | 13-88-59a 13-88-59b |
न मे मन्युर्महाभाग पूतौ स्वो भगवंस्त्वया। संवृतौ यौवनस्थौ स्वो वपुष्मन्तौ बलान्वितौ।। | 13-88-60a 13-88-60b |
प्रतोदेन व्रणा ये मे सभार्यस्य त्वया कृताः। तान्न पश्यामि गात्रेषु स्वस्थोस्मि सह भार्यया।। | 13-88-61a 13-88-61b |
इमां च देवीं पश्यामि वपुषाऽप्सरसोपमाम्। श्रिया परमया युक्ता तथा दृष्टा पुरा मया।। | 13-88-62a 13-88-62b |
तव प्रसादसंवृत्तमिदं सर्वं महामुने। नैतच्चित्रं तु भगवंस्त्वयि सत्यपराक्रम।। | 13-88-63a 13-88-63b |
इत्युक्तः प्रत्युवाचैनं कुशिकं च्यवनस्तदा। आगच्छेथाः सभार्यश्च त्वमिहेति नराधिप।। | 13-88-64a 13-88-64b |
इत्युक्तः समनुज्ञातो राजर्षिरभिवाद्य तम्। प्रययौ वपुषा युक्तो नगरं देवराजवत्।। | 13-88-65a 13-88-65b |
तत एनमुपाजग्मुरमात्याः सपुरोहिताः। बलस्था गणिकायुक्ताः सर्वाः प्रकृतयस्तथा।। | 13-88-66a 13-88-66b |
तैर्वृतः कुशिको राजा श्रिया परमया ज्वलन्। प्रविवेश पुरं हृष्टः पूज्यमानोऽथ बन्दिभिः।। | 13-88-67a 13-88-67b |
ततः प्रविश्य नगरं कृत्वा पौर्वाह्णिकीः क्रियाः। भुक्त्वा सभार्यो रजनीमुवास स महाद्युतिः।। | 13-88-68a 13-88-68b |
ततस्तु तौ नवमभिवीक्ष्य यौवनं परस्परं विगतजराविवामरौ। ननन्दतुः शयनगतौ वपुर्धरौ श्रिया युतौ द्विजवरदत्तया तदा।। | 13-88-69a 13-88-69b 13-88-69c 13-88-69d |
अथाप्युषिर्भृगुकुलकीर्तिवर्धन- स्तपोधनो वनमभिराममृद्धिमत्। मनीषया बहुविधरत्नभूषितं ससर्ज यन्न पुरि शतक्रतोरपि।। | 13-88-70a 13-88-70b 13-88-70c 13-88-70d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अष्टाशीष्टितमोऽध्यायः।। 88 ।। |
अनुशासनपर्व-087 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-089 |