महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-009
← अनुशासनपर्व-008 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-009 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-010 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति सदृष्टान्तप्रदर्शनं दैवादपि पुरुषकारस्य प्राबल्यप्रतिपादनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-9-1x |
पितामह महाप्राज्ञ सर्वसास्त्रविशारद। दैवे पुरुषकारे च किंस्विच्छ्रेष्ठतरं भवेत्।। | 13-9-1a 13-9-1b |
भीष्म उवाच। | 13-9-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। वसिष्ठस्य च संवादं ब्रह्मणश्च युधिष्ठिर।। | 13-9-2a 13-9-2b |
दैवमानुषयोः किंस्वित्कर्मणोः श्रेष्ठमित्युत। पुरा वसिष्ठो भगवान्पितामहमपृच्छत।। | 13-9-3a 13-9-3b |
ततः पद्मोद्भवो राजन्देवदेवः पितामहः। उवाच मधुरं वाक्यमर्थवद्धेतुभूषितम्।। | 13-9-4a 13-9-4b |
`बीजतो ह्यङ्कुरोत्पत्तिरङ्कुरात्पर्णसम्भवः। पर्णान्नालाः प्रसूयन्ते नालात्स्कन्धः प्रवर्तते।। | 13-9-5a 13-9-5b |
स्कन्धात्प्रवर्तते पुष्पं पुष्पात्संवर्धते फलम्। फलान्निर्वर्तते बीजं बीजात्स्यात्सम्भवः पुनः'।। | 13-9-6a 13-9-6b |
नाबीजं जायते किञ्चिन्न बीजेने विना फलम्। बीजाद्बीजं प्रभवति नाबीजं विद्यते फलम्।। | 13-9-7a 13-9-7b |
यादृशं वपते बीजं क्षेत्रमासाद्य वापकः। सुकृते दुष्कृते वाऽपि तादृशं लभते फलम्।। | 13-9-8a 13-9-8b |
यथा बीजं विना क्षेत्रमुप्तं भवति निष्फलम्। तथा पुरुषकारेण विना दैवं न सिध्यति।। | 13-9-9a 13-9-9b |
क्षेत्रं पुरुषकारस्तु दैवं बीजमुदाहृतम्। क्षेत्रबीजसमायोगात्ततः सस्यं समृद्ध्यते।। | 13-9-10a 13-9-10b |
कर्मणः फलनिर्वृत्तिं स्वयमश्नाति कारकः। प्रत्यक्षं दृश्यते लोके कृतस्याप्यकृतस्य च।। | 13-9-11a 13-9-11b |
शुभेन कर्मणा सौख्यं दुःखं पापेन कर्मणा। कृतं सर्वत्र लभते नाकृतं भुज्यते क्वचित्।। | 13-9-12a 13-9-12b |
कृती सर्वत्र लभते प्रतिष्ठां भाग्यवीक्षितः। अकृती लभते भ्रष्टः क्षते क्षारावसेचनम्।। | 13-9-13a 13-9-13b |
तपसा रूपसौभाग्यं रत्नानि विविधानि च। प्राप्यते कर्मणा सर्वं न दैवादकृतात्मना।। | 13-9-14a 13-9-14b |
तथा स्वर्गश्च भोगश्च निष्ठा या च मनीषिता। सर्वं पुरुषकारेण कृतेनेहोपलभ्यते।। | 13-9-15a 13-9-15b |
ज्योतींषि त्रिदशा नागा यक्षाश्चन्द्रार्कमारुताः। सर्वे पुरुषकारेण मानुष्याद्देवतां गताः।। | 13-9-16a 13-9-16b |
अर्थो वा मित्रवर्गो वा ऐश्वर्यं वा कुलान्वितम्। श्रीश्चापि दुर्लभा भोक्तुं तथैवाकृतकर्मभिः।। | 13-9-17a 13-9-17b |
शौचेन लभते विप्रः क्षत्रियो विक्रमेण तु। वैश्यः पुरुषकारेण शूद्रः शुश्रूषया श्रियम्।। | 13-9-18a 13-9-18b |
नादातारं भजन्त्यर्था न क्लीबं नापि निष्क्रियम्। नाकर्मशीलं नाशूरं तथा नैवातपस्विनम्।। | 13-9-19a 13-9-19b |
येन लोकास्त्रयः सृष्टा दैत्याः सर्वाश्च देवताः। स एष भगवान्विष्णुः समुद्रे तप्यते तपः।। | 13-9-20a 13-9-20b |
स्वं चेत्कर्मफलं न स्यात्सर्वमेवाफलं भवेत्। लोको दैवं समालक्ष्य उदासीनो भवेद्यदि।। | 13-9-21a 13-9-21b |
अकृत्वा मानुषं कर्म यो दैवमनुवर्तते। वृथा श्राम्यति सम्प्राप्य पतिं क्लीबमिवाङ्गना।। | 13-9-22a 13-9-22b |
न तथा मानुषे लोके फलमस्ति शुभाशुभे। यथा त्रिदशलोके हि फलमल्पेन जायते।। | 13-9-23a 13-9-23b |
कृतः पुरुषकारस्तु दैवमेवानुवर्तते। न दैवमकृते किञ्चित्कस्यचिद्दातुमर्हति।। | 13-9-24a 13-9-24b |
यथा स्थानान्यनित्यानि दृश्यन्ते दैवतेष्वपि। कथं कर्म विना दैवं स्थास्यति स्थापयिष्यतः।। | 13-9-25a 13-9-25b |
न दैवतानि लोकेऽस्मिन्व्यापारं यान्ति कस्यचित्। व्यासङ्गं जनयन्त्युग्रमात्माभिभवशङ्कया।। | 13-9-26a 13-9-26b |
ऋषीणां देवतानां च सदा भवति विग्रहः। कस्य वाचा ह्यदैवं स्याद्यतो दैवं प्रवर्तते।। | 13-9-27a 13-9-27b |
कथं तस्य समुत्पत्तिर्यतो दैवं प्रवर्तते। एवं त्रिदशलोकेऽपि प्राप्यते परमं सुखम्।। | 13-9-28a 13-9-28b |
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः। आत्मैव ह्यात्मनः साक्षी कृतस्याप्यकृतस्य च।। | 13-9-29a 13-9-29b |
कृतं च विकृतं किञ्चित्सिद्ध्यते गुरुकर्मणा। सुकृतं दुष्कृतं कर्म अकृतार्थं प्रपद्यते।। | 13-9-30a 13-9-30b |
देवानां शरणं पुण्यं सर्वं पुण्यैरवाप्यते। पुण्यहीनं नरं प्राप्य किं दैवं प्रकरिष्यति।। | 13-9-31a 13-9-31b |
पुरा ययातिर्विभ्रष्टश्च्यावितः पतितः क्षितौ। पुनरारोपितः स्वर्गं दौहित्रैः पुण्यकर्मभिः।। | 13-9-32a 13-9-32b |
पुरूरवाश्च राजर्षिर्द्विजैरभिहितः पुरा। ऐल इत्यभिविख्यातः स्वर्गं प्राप्तो महीपतिः।। | 13-9-33a 13-9-33b |
अश्वमेधादिभिर्यज्ञैः सत्कृतः कोसलाधिपः। महर्षिशापात्सौदासः पुरुषादत्वमागतः।। | 13-9-34a 13-9-34b |
अश्वत्थामा च रामश्च मुनिपुत्रौ धनुर्धरौ। न गच्छतः स्वर्गलोकं वेददृष्टेन कर्मणा।। | 13-9-35a 13-9-35b |
वसुर्यज्ञशतैरिष्ट्वा द्वितीय इव वासवः। मिथ्याभिधानेनैकेन रसातलतलं गतः।। | 13-9-36a 13-9-36b |
बलिर्वैरोचनिर्बद्धो धर्मपाशेन दैवतैः। विष्णोः पुरुषकारेण पातालसदनः कृपः।। | 13-9-37a 13-9-37b |
शक्रस्याथ रथोपस्थे विष्ठितो जनमेजयः। द्विजस्त्रीणां वधं कृत्वा किं दैवेन न वारितः।। | 13-9-38a 13-9-38b |
अज्ञानाद्ब्राह्मणं हत्वा स्पृष्टो बालवधेन च। वैशंपायनविप्रर्षिः किं दैवेन न वारितः।। | 13-9-39a 13-9-39b |
गोप्रदानेन मिथ्या च ब्राह्मणेभ्यो महामखे। पुरा नृगश्च राजर्षिः कृकलासत्वमागतः।। | 13-9-40a 13-9-40b |
धुन्धुमारश्च राजर्षिः सत्रेष्वेव जरां गतः। प्रीतिदायं परित्यज्य सुष्वाप स गिरिव्रजे।। | 13-9-41a 13-9-41b |
पाण्डवानां हृतं राज्यं धार्तराष्ट्रैर्महाबलैः। पुनः प्रत्याहृतं चैव न दैवाद्भुजसंश्रयात्।। | 13-9-42a 13-9-42b |
तपोनियमसंयुक्ता मुनयः संशितव्रताः। किं ते दैवबलाच्छापमुत्सृजन्ते न कर्मणा।। | 13-9-43a 13-9-43b |
पापमुत्सृजते लोके सर्वं प्राप्य सुदुर्लभम्। लोभमोहसमापन्नं न दैवं त्रायते नरम्।। | 13-9-44a 13-9-44b |
यथाऽऽग्निः पवनोद्भूतः सुसूक्ष्मोऽपि महान्भवेत्। तथा कर्मसमायुक्तं दैवं साधु विवर्धते।। | 13-9-45a 13-9-45b |
यथा तैलक्षयाद्दीपः प्रम्लानिमुपगच्छति। तथा कर्मक्षयाद्दैवं प्रम्लानिमुपगच्छति।। | 13-9-46a 13-9-46b |
विपुलमपि धनौघं प्राप्य भोगान्त्रियो वा पुरुष इह न शक्तः कर्महीनो हि भोक्तुम्। सुविहितमपि चार्थं दैवते रक्ष्यमाणं पुरुष इह महात्मा प्राप्नुते नित्ययुक्तः।। | 13-9-47a 13-9-47b 13-9-47c 13-9-47d |
व्ययगुमपि साधुं कर्मणा संश्रयन्ते भवती मनुजलोकाद्दैवलोको विशिष्टः। बहुतरसुसमृद्ध्या मानुषाणां गृहाणि पितृवनभवनाभं दृश्यते चामराणाम्।। | 13-9-48a 13-9-48b 13-9-48c 13-9-48d |
न च फलति विकर्मा जीवलोके न दैवं व्यपनयति विमार्गं नास्ति दैवे प्रभुत्वम्। गुरुमिव कृतमग्र्यं कर्म संयाति दैवं नयति पुरुषकारः सञ्चितस्तत्रतत्र।। | 13-9-49a 13-9-49b 13-9-49c 13-9-49d |
एतत्ते सर्वमाख्यातं मया वै मुनिसत्तम। फलं पुरुषकारस्य सदा संदृश्य तत्त्वतः।। | 13-9-50a 13-9-50b |
अभ्युत्थानेन दैवस्य समारब्धेन केनचित्। विधिना कर्मणा चैव स्वर्गमार्गमवाप्नुयात्।। | 13-9-51a 13-9-51b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि नवमोऽध्यायः।। 9 ।। |
13-9-13 नाकृती लभतेऽभीष्टं क्षितिः क्षीरावसेचनमिति ध.पाठः।। 13-9-16 चन्द्रार्कतारका इति ध.पाठः। 13-9-18 लभते श्रियमिति सर्वत्र सम्बन्धः।। 13-9-24 अकृते कर्माभावे सति।। 13-9-26 व्यापारं पुण्यरूपं यान्ति अनुमोदन्ते। उग्रं धर्मविघ्नकरम्। एवं सञ्जनयन्त्युग्रा आत्मनिर्भयशङ्कयेति ध.पाठः।। 13-9-27 यद्यप्येवं कर्मपरत्वं देवर्षीणामस्ति तथापि अदैवं दैवाभावो न वक्तुं शक्य इत्यर्थः।। 13-9-28 यतो यस्माद्दैवं प्रवर्तते तस्य कर्मणोऽपि दैवं विना कथमुत्पत्तिः स्यान्न कथमपि।।
अनुशासनपर्व-008 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-010 |