महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-193
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रत्यरुन्धतीचित्रगुप्तोदितधर्मरहस्यकथनम्।। 1 ।।
भीष्म उवाच। | 13-193-1x |
ततस्त्वृषिगणाः सर्वे पितरश्च सदेवताः। अरुन्धतीं तपोवृद्धामपृच्छन्त समाहिताः।। | 13-193-1a 13-193-1b |
समानशीलां वीर्येण वसिष्ठस्य महात्मनः। त्वत्तो धर्मरहस्यानि श्रोतुमिच्छामहे वयम्। यत्ते गुह्यतमं भद्रे तत्प्रभाषितुमर्हसि।। | 13-193-2a 13-193-2b 13-193-2c |
अरुन्धत्युवाच। | 13-193-3x |
तपोवृद्धिर्मया प्राप्ता भवतां स्मरणेन वै। भवतां च प्रसादेन धर्मान्वक्ष्यामि शाश्वतान्।। | 13-193-3a 13-193-3b |
सगुह्यान्सरहस्यांश्च ताञ्शृणुद्वमशेषतः। श्रद्दधाने प्रयोक्तव्या यस्य शुद्धं तथा मनः।। | 13-193-4a 13-193-4b |
अश्रद्दधानो मानी च ब्रह्महा गुरुतल्पग। असम्भाष्या हि चत्वारो नैषां धर्मं प्रकाशयेत्।। | 13-193-5a 13-193-5b |
अहन्यहनि यो दद्यात्कपिलां द्वादशीः समाः। मासिमासि च सत्रेण यो यजेत सदा नरः।। | 13-193-6a 13-193-6b |
गवां शतसहस्रं च यो दद्याज्ज्येष्ठपुष्करे। न तद्धर्मफलं तुल्यमतिथिर्यस्य तुष्यति।। | 13-193-7a 13-193-7b |
श्रूयतां चापरो धर्मो मनुष्याणां सुखावहः। श्रद्दधानेन कर्तव्यः सरहस्यो महाफलः।। | 13-193-8a 13-193-8b |
कल्यमुत्थाय गोमध्ये गृह्य दर्भान्सहोदकान्। निषिञ्चेत गवां शृङ्गे मस्तकेन च तज्जलम्। प्रतीच्छेत निराहारस्तस्यि धर्मफलं शृणु।। | 13-193-9a 13-193-9b 13-193-9c |
श्रूयन्ते यानि तीर्थानि त्रिषु लोकेषु कानिचित्। सिद्धचारणजुष्टानि सेवितानि महर्षिभिः। अभिषेकः समस्तेषां गवां शृङ्गोदकस्य च।। | 13-193-10a 13-193-10b 13-193-10c |
साधुसाध्विति चोद्दिष्टं दैवतैः पितृभिस्तथा। भूतैश्चैव सुसंहृष्टैः पूजिता साऽप्यरुन्धती।। | 13-193-11a 13-193-11b |
पितामह उवाच। | 13-193-12x |
अहो धर्मो महाभागे सरहस्य उदाहृतः। वरं ददामि ते धन्ये तपस्ते वर्दतां सदा।। | 13-193-12a 13-193-12b |
यम उवाच। | 13-193-13x |
रमणीया कथा दिव्या युष्मत्तो या मया श्रुता। श्रूयतां चित्रगुप्तस्य भाषितं मम च प्रियम्।। | 13-193-13a 13-193-13b |
रहस्यं धर्मसंयुक्तं शक्यं श्रोतुं महर्षिभिः। श्रद्दधानेन मर्त्येन आत्मनो हितमिच्छाता।। | 13-193-14a 13-193-14b |
न हि पुण्यं तथा पापं कृतं किञ्चिद्विनश्यति। पर्वकाले च यत्किंचिदादित्यं चाधितिष्ठति।। | 13-193-15a 13-193-15b |
प्रेतलोकं गते मर्त्ये तत्तत्सर्वं विभावसुः। प्रतिजानाति पुण्यात्मा तच्चि तत्रोपयुज्यते।। | 13-193-16a 13-193-16b |
किञ्चिद्धर्म प्रवक्ष्यामि चित्रगुप्तमतं शुभम्। पानीयं चैव दीपं च दातव्यं सततं तथा।। | 13-193-17a 13-193-17b |
उपानहौ च च्छत्रं च कपिला च यथातथम्। पुष्करे कपिला देया ब्राह्मणे वेदपारगे।। | 13-193-18a 13-193-18b |
अग्निहोत्रं च यत्नेन सर्वशः प्रतिपालयेत्। अयं चैवापरो धर्मश्चित्रगुप्तेन भाषितः।। | 13-193-19a 13-193-19b |
फलमस्य पृथक्त्वेन श्रोतुमर्हन्ति सत्तमाः। प्रलयं सर्वभूतैस्तु गन्तव्यं कालपर्ययात्।। | 13-193-20a 13-193-20b |
तत्र दुर्गमनुप्राप्ताः क्षुत्तृष्णापरिपीडिताः। दह्यमाना विपच्यन्ते न तत्रास्ति पलायनम्।। | 13-193-21a 13-193-21b |
अन्धकारं तमो घोरं प्रविशन्त्यल्पबुद्धयः। तत्र धर्मं प्रवक्ष्यामि येन दुर्गाणि सन्तरेत्।। | 13-193-22a 13-193-22b |
अल्पव्ययं महार्थं च प्रेत्य चैव सुखोदयम्। पानीयस्य गुणा दिव्याः प्रेतलोके विशेषतः।। | 13-193-23a 13-193-23b |
तत्र पुण्योदका नाम नदी तेषां विधीयते। अक्षयं सलिलं तत्र शीतलं ह्यमृतोपमम्।। | 13-193-24a 13-193-24b |
स तत्र तोयं पिबति पीनीयं यः प्रयच्छति। प्रदीपस्य प्रदानेन श्रूयतां गुणविस्तरः।। | 13-193-25a 13-193-25b |
तमोन्धकारं नियतं दीपदो न प्रपश्यति। प्रभां चास्य प्रयच्छन्ति सोमभास्करपावकाः। देवताश्चानुमन्यन्ते विमलाः सर्वतो दिशः।। | 13-193-26a 13-193-26b 13-193-26c |
द्योततें च यथाऽऽदित्यः प्रेतलोकगतो नरः। तस्माद्दीपः प्रदातव्यः पानीयं च विशेषतः।। | 13-193-27a 13-193-27b |
कपिलां ये प्रयच्छन्ति ब्राह्मणे वेदपारगे। पुष्करे च विशेषेण श्रूयतां तस्य यत्फलम्।। | 13-193-28a 13-193-28b |
गोशतं सवृषं तेन दत्तं भवति शाश्वतम्। पापं कर्म च यत्किञ्चिद्ब्रह्महत्यासमं भवेत्। शोधयेत्कपिला ह्येका प्रदत्तं गोशतं यथा।। | 13-193-29a 13-193-29b 13-193-29c |
तस्मात्तु कपिला देया कौमुद्यां ज्येष्ठपुष्करे। न तेषां विषमं किञ्चिन्न दुःखं न च कण्टकाः।। | 13-193-30a 13-193-30b |
उपानहौ च यो दद्यात्पात्रभूते द्विजोत्तमे। छत्रदाने सुखां छायां लभते परलोकगः।। | 13-193-31a 13-193-31b |
न हि दत्तस्य दानस्य नाशोऽस्तीह कदाचन। चित्रगुप्तमतं श्रुत्वा हृष्टरोमा विभावसुः।। | 13-193-32a 13-193-32b |
उवाच देवताः सर्वाः पितॄंश्चैव महाद्युतिः। श्रुतं हि चित्रगुप्तस्य धर्मगुह्यं महात्मनः।। | 13-193-33a 13-193-33b |
श्रद्दधानाश्च ये मर्त्या ब्राह्मणेषु महात्मसु। दानमेतत्प्रयच्छन्ति न तेषां विद्यते भयम्।। | 13-193-34a 13-193-34b |
धर्मदोषास्त्विमे पञ्च येषां नास्तीह निष्कृतिः। असंभाष्या अनाचारा वर्जनीया नराधमाः।। | 13-193-35a 13-193-35b |
ब्रह्महा चैव गोघ्नश्च परदाररतश्च यः। अश्रद्दधानश्च नरः स्त्रियं यश्चोपजीवति।। | 13-193-36a 13-193-36b |
प्रेतलोकगता ह्येते नरके पापकर्मिणः। पच्यन्ते वै यथा मीनाः पूयशोणितभोजनाः।। | 13-193-37a 13-193-37b |
असम्भाष्याः पितॄणां च देवानां चैव पञ्च ते। स्नातकानां च विप्राणां ये चान्ये च तपोधनाः।। | 13-193-38a 13-193-38b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि त्रिनवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 193 ।। |
13-193-4 प्रयोक्तव्या धर्मा वाच्याः।। 13-193-16 प्रतीजानात्यर्पयति। उपयुज्यते पुण्यपापकर्ता।। 13-193-20 प्रकृष्टो लयोऽदर्शनं यस्मात्तत्प्रलयं मरणम्।।
अनुशासनपर्व-192 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-194 |