महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-047

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त्रतयोदशपर्व
महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-047
वेदव्यासः
अनुशासनपर्व-048 →

उपमन्युना कृष्णंप्रति तण्डिकृतमहादेवस्तुत्यनुवादः।। 1 ।।

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उपमन्युरुवाच। 13-47-1x
ऋषिरासीत्कृते तात तण्डिरित्येव विश्रुतः।
दशवर्षसहस्राणि तेन देवः समाधिना।।
13-47-1a
13-47-1b
आराधितोऽभूद्भक्तेन तस्योदर्कं निशामय।
स दृष्टवान्महादेवमस्तौषीच्च स्तवैर्विभुम्।।
13-47-2a
13-47-2b
[इति तण्डिस्तपोयोगात्परमात्मानमव्ययम्।
चिन्तयित्वा महात्मानमिदमाह सुविस्मितः।।
13-47-3a
13-47-3b
यं पठन्ति सदा साङ्ख्याश्चिन्तयन्ति च योगिनः।
परं प्रधानं पुरुषमधिष्ठातारमीश्वरम्।
13-47-4a
13-47-4b
उत्पत्तौ च विनाशे च कारणं यं विदुर्बुधाः।
देवासुरमुनीनां च परं यस्मान्न विद्यते।।
13-47-5a
13-47-5b
अजं तमहमीशानमनादिनिधनं प्रभुम्।
अत्यन्तसुखिनं देवमनघं शरणं व्रजे।।
13-47-6a
13-47-6b
एवं ब्रुवन्नेव तदा ददर्श तपसान्निधिम्।
तमव्ययमनौपम्यमचिन्त्यं शाश्वतं ध्रुवम्।।
13-47-7a
13-47-7b
निष्कलं सकलं ब्रह्म निर्गुणं गुणगोचरम्।
योगिनां परमानन्दमक्षरं मोक्षसंज्ञितम्।।
13-47-8a
13-47-8b
मनोरिन्द्राग्निमरुतां विश्वस्य ब्रह्मणो गतिम्‌।
अग्राह्यमचलं शुद्धं बुद्धिग्राह्यं मनोमयम्।।
13-47-9a
13-47-9b
दुर्विज्ञेयमसङ्ख्ये दुष्प्रापमकृतात्मभिः।
योनि विश्वस्य जगतस्तमसः परतः परम्।।
13-47-10a
13-47-10b
यः प्राणवन्तमात्मानं ज्योतिर्जीवस्थितं मनः।
तं देवं दर्शनाकाङ्क्षी बहून्वर्षगणानृषिः।
तपस्युग्रे स्थितो भूत्वा दृष्ट्वा तुष्टाव चेश्वरम्।।]
13-47-11a
13-47-11b
13-47-11c
तण्डिरुवाच। 13-47-12x
पवित्राणां पवित्रस्त्वं गतिर्गतिमतांवर।। 13-47-12a
अत्युग्रं तेजसां तेजस्तपसां परमं तपः।
विश्वावसुहिरण्याक्षपुरुहूतनमस्तृत।।
13-47-13a
13-47-13b
भूरिकल्याणद विभो परं सत्यं नमोस्तु ते।
जातीमरणभीरूणां यतीनां यततां विभो।।
13-47-14a
13-47-14b
निर्वाणद सहस्रांशो नमस्तेऽस्तु सुखाश्रय।
ब्रह्मा शतक्रतुर्विष्णुर्विश्वेदेवा महर्षयः।।
13-47-15a
13-47-15b
न विदुस्त्वां तु तत्त्वेन कुतो वेत्स्यामहे वयम्।
त्वत्तः प्रवर्तते सर्वं त्वयि सर्वं प्रतिष्ठितम्।।
13-47-16a
13-47-16b
कालाख्यः पुरुषाख्यश्च ब्रह्माख्यश्च त्वमेव हि।
तनवस्ते स्मृतास्तिस्रः पुराणज्ञैः सुरर्षिभिः।।
13-47-17a
13-47-17b
अधिपौरुषमध्यात्ममधिभूताधिदैवतम्।
अधिलोकाधिविज्ञानमधियज्ञस्त्वमेव हि।।
13-47-18a
13-47-18b
त्वां विदित्वाऽऽत्मदेवस्थं दुर्विदं दैवतैरपि।
विद्वांसो यान्ति निर्मुक्ताः परं भावमनामयम्।।
13-47-19a
13-47-19b
अनिच्छतस्तव विभो जन्ममृत्युरनेकतः।
द्वारं तु स्वर्गमोक्षाणामाक्षेप्ता त्वं ददासि च।।
13-47-20a
13-47-20b
त्वं वै स्वर्गश्च मोक्षश्च कामः क्रोधस्त्वमेव च।
सत्वं रजस्ममश्चैव अधश्चोर्ध्वं त्वमेव हि।।
13-47-21a
13-47-21b
ब्रह्मा भवश्च विष्णुश्च स्कन्देन्द्रौ सविता यमः।
वरुणेन्दू मनुर्धाता विधाता त्वं धनेश्वरः।।
13-47-22a
13-47-22b
भूर्वायुः सलिलाग्निश्च खं वाग्बुद्धिः स्थितिर्मतिः।
कर्म सत्यानृते चोभे त्वमेवास्ति च नास्ति च।।
13-47-23a
13-47-23b
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थाश्च प्रकृतिभ्यः परं ध्रुवम्।
विश्वाविश्वपरो भावश्चिन्त्याचिन्त्यस्त्वमेव हि।।
13-47-24a
13-47-24b
यच्चैतत्परमं ब्रह्म यच्च तत्परमं पदम्।
या गतिः साङ्ख्ययोगानां स भवान्नात्र संशयः।।
13-47-25a
13-47-25b
नूनमद्य कृतार्थाः स्म नूनं प्राप्ताः सतां गतिम्।
यां गतिं प्रार्तयन्तीह ज्ञाननिर्मलबुद्धयः।।
13-47-26a
13-47-26b
अयो मूढाः स्म सुचिरमिमं कालमचेतसा।
यन्न विद्मः परं देवं शाश्वतं यं विदुर्बुधाः।।
13-47-27a
13-47-27b
सेयमासादिता साक्षात्त्वद्भक्तिर्जन्मभिर्मया।
भक्तानुग्रहकृद्देवो यं ज्ञात्वाऽमृतमश्नुते।।
13-47-28a
13-47-28b
देवासुरमुनीनां तु यच्च गुह्यं सनातनम्।
गुहायां निहितं ब्रह्मि दुर्विज्ञेयं मुनेरपि।।
13-47-29a
13-47-29b
स एष भगवान्देवः सर्वकृत्सर्वतोमुखः।
सर्वात्मा सर्वदर्शी च सर्वगः सर्ववेदिता।।
13-47-30a
13-47-30b
देहकृद्देहभृद्देही देहभुग्देहिनां गतिः।
प्राणकृत्प्राणभृत्प्राणी प्राणदः प्राणिनां गतिः।।
13-47-31a
13-47-31b
अध्यात्मगतिरिष्टानां ध्यायिनामात्मवेदिनाम्।
अपुनर्भवकामानां या गतिः सोऽयमीश्वरः।।
13-47-32a
13-47-32b
अयं च सर्वभूतानां शुभाशुभगतिप्रदः।
अयं च जन्ममरणे विदध्यात्सर्वजन्तुषु।
अयं संसिद्धिकामानां या गतिः सोयमीस्वरः।
13-47-33a
13-47-33b
13-47-33c
भूराद्यान्सर्वभुवनानुत्पाद्य सदिवौकसः।
दधाति देवस्तनुभिरष्टाभिर्यो बिभर्ति च।।
13-47-34a
13-47-34b
अतः प्रवर्तते सर्वमस्मिन्सर्वं प्रतिष्ठितम्।
अस्मिंश्च प्रलयं याति अयमेकः सनातनः।।
13-47-35a
13-47-35b
अयं स सत्यकामानां सत्यलोकः परं सताम्।
अपवर्गश्च मुक्तानां कैवल्यं चात्मवेदिनाम्।।
13-47-36a
13-47-36b
अयं ब्रह्मादिभिः सिद्धैर्गुहायां गोपितः प्रुभुः।
देवासुरमनुष्याणामप्रकाशो भवेदिति।।
13-47-37a
13-47-37b
तं त्वां देवासुरनरास्तत्त्वेन न विदुर्भवम्।
मोहिताः खल्वनेनैव हृदिस्थेनाप्रकाशिना
13-47-38a
13-47-38b
ये चैनं प्रतिपद्यन्ते भक्तियोगेन भाविताः।
तेषामेवात्मनात्मानं दर्शयत्येष हृच्छयः।।
13-47-39a
13-47-39b
यं ज्ञात्वा न पुनर्जन्म मरणं चापि विद्यते।
यं विदित्वा परं वेद्यं वेदितव्यं न विद्यते।।
13-47-40a
13-47-40b
यं लब्ध्वा परमं लाभं नाधिकं मन्यते बुधः।
यां सूक्ष्मां परमां प्राप्तिं गच्छन्नव्ययमक्षयम्।।
13-47-41a
13-47-41b
यं साङ्ख्या गुणतत्त्वज्ञाः साङ्ख्यशास्त्रविशारदाः।
सूक्ष्मज्ञानतराः सूक्ष्मं ज्ञात्वा मुच्यन्ति बन्धनैः
13-47-42a
13-47-42b
यं च वेदविदो वेद्यं वेदान्ते च प्रतिष्ठितम्।
प्राणायामपरा नित्यं यं विशन्ति जपन्ति च।।
13-47-43a
13-47-43b
ओंकाररथमारुह्य ते विशन्ति महेश्वरम्।
अयं स देवयानानामादित्यो द्वारमुच्यते।।
13-47-44a
13-47-44b
अयं च पितृयानानां चन्द्रमा द्वारमुच्यते।
एष काष्ठा दिशश्चैव संवत्सरयुगादि च।।
13-47-45a
13-47-45b
दिव्यादिव्यः परो लाभ अयने दक्षिणोत्तरे।
एनं प्रजापतिः पूर्वमाराध्य बहुभिः स्तवैः।।
13-47-46a
13-47-46b
प्रजार्थं वरयामास नीललोहितसंज्ञितम्।
क्रग्भिर्यमनुशासन्ति तत्त्वे कर्मणि बह्वृचाः।।
13-47-47a
13-47-47b
यजुर्भिर्यत्त्रिधा वेद्यं जुह्वत्यध्वर्यवोऽध्वरे।
सामभिर्यं च गायन्ति सामगाः शुद्धबुद्धयः।।
13-47-48a
13-47-48b
ऋतं सत्यं परं ब्रह्म स्तुवन्त्याथर्वणा द्विजाः।
यज्ञस्य परमा योनिः परिश्चायं परः स्मृतः।।
13-47-49a
13-47-49b
रात्र्यहः श्रोत्रनयनः पक्षमासशिरोभुजः।
ऋतुवीर्यस्तपोधैर्यो ह्यब्दगुह्योरुपादवान्।।
13-47-50a
13-47-50b
मृत्युर्यमो हुताशश्च कालः संहारवेगवान्।
कालस्य परमा योनिः कालश्चायं सनातनः।।
13-47-51a
13-47-51b
चन्द्रादित्यौ सनक्षत्रौ ग्रहाश्च सह वायुना।
ध्रुवः सप्तर्षयश्चैव भुवनाः सप्त एव च।।
13-47-52a
13-47-52b
प्रधानं महदव्यक्तं विशेषान्तं सवैकृतम्।
ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तं भूतादि सदसच्च यत्।।
13-47-53a
13-47-53b
अष्टौ प्रकृतयश्चैव प्रकृतिभ्यश्च यः परः।
अस्य देवस्य यद्भागं कृत्स्नं सम्परिवर्तते।।
13-47-54a
13-47-54b
एतत्परममानन्दं यत्तच्छाश्वतमेव च।
एषा गतिर्विरक्तानामेष भावः परः सताम्।।
13-47-55a
13-47-55b
एतत्पदमनुद्विग्नमेतद्ब्रह्म सनातनम्।
शास्त्रवेदाङ्गविदुषामेतद्ध्यानं परं पदम्।।
13-47-56a
13-47-56b
इयं सा परमा काष्ठा इयं सा परमा कला।
इयं सा परमा सिद्धिरियं सा परमा गतिः।।
13-47-57a
13-47-57b
इयं सा परमा शान्तिरियं सा निर्वृतिः परा।
यं प्राप्य कृतकृत्याः स्म इत्यमन्यन्त योगिनः।।
13-47-58a
13-47-58b
इयं तुष्टिरियं सिद्धिरियं श्रुतिरियं स्मृतिः।
अध्यात्मगतिरिष्टानां विदुषां प्राप्तिरव्यया।।
13-47-59a
13-47-59b
यजतां कामयानानां मखैर्विपुलदक्षिणैः।
या गतिर्यज्ञशीलानां सा गतिस्त्वं न संशयः।।
13-47-60a
13-47-60b
सम्यग्योगजपैः शान्तिर्नियमैर्देहतापनैः।
तप्यतां या गतिर्देव परमा सा गतिर्भवान्।।
13-47-61a
13-47-61b
कर्मन्यासकृतानां च विरक्तानां ततस्ततः।
या गतिर्ब्रह्मिसदने सा गतिस्त्वं सनातन।।
13-47-62a
13-47-62b
अपुनर्भवकामानां वैराग्ये वर्ततां च या।
प्रकृतीनां लयानां च सा गतिस्त्वं सनातन।।
13-47-63a
13-47-63b
ज्ञानविज्ञानयुक्तानां निरुपाख्या निरञ्जना।
कैवल्या या गतिर्देव परमा सा गतिर्भवान्।।
13-47-64a
13-47-64b
वेदशास्त्रपुराणोक्ताः पञ्च ता गतयः स्मृताः।
त्वत्प्रसादाद्धि लभ्यन्ते न लभ्यन्तेऽन्यथा विभो।।
13-47-65a
13-47-65b
इति तण्डिस्तपोराशिस्तुष्टावेसानमात्मना।
जगौ च परमं ब्रह्म यत्पुरा लोककृज्जगौ।।
13-47-66a
13-47-66b
उपमन्युरुवाच। 13-47-67x
एवं स्तुतो महादेवस्तण्डिना ब्रह्मवादिना।
उवाच भगवान्देव उमया सहितः प्रभुः।।
13-47-67a
13-47-67b
ब्रह्मा शतक्रतुर्विष्णुर्विश्वेदेवा महर्षयः।
न विदुस्त्वामिति ततस्तुष्टः प्रोवाच तं शिवः।।
13-47-68a
13-47-68b
अक्षयश्चाव्ययश्चैव भविता दुःखवर्जितः।
यशस्वी तेजसा युक्तो दिव्यज्ञानसमन्वितः।।
13-47-69a
13-47-69b
ऋषीणामभिगम्यश्च सूत्रकर्ता सुतस्तव।
मत्प्रसादाद्द्विजश्रेष्ठ भविष्यति न संशयः।।
13-47-70a
13-47-70b
कं वा कामं ददाम्यद्य ब्रूहि यद्वत्स काङ्क्षसे।
प्राञ्जलिः स उवाचेदं त्वयि भक्तिर्दृढाऽस्तु मे।।
13-47-71a
13-47-71b
उपमन्युरुवाच। 13-47-72x
एतान्दत्त्वा वरान्देवो वन्द्यमानः सुरर्षिभिः।
स्तूयमानश्च विबुधैस्तत्रैवान्तरधीयत।।
13-47-72a
13-47-72b
अन्तर्हिते भगवति सानुगे यादवेश्वर।
ऋषिराश्रममागम्य ममैतत्प्रोक्तवानिह।।
13-47-73a
13-47-73b
यानि च प्रथितान्यादौ तण्डिराख्यातवान्मम
मानानि मानवश्रेष्ठ तानि त्वं शृणु सिद्धये।।
13-47-74a
13-47-74b
दश नामसहस्राणि देवेष्वाह पितामहः।
सर्वस्य शास्त्रेषु तथा दश नामशतानि च।।
13-47-75a
13-47-75b
गुह्यानीमानि नामानि तण्डिर्भगवतोऽच्युत।
देवप्रसादाद्देवेशः पुरा प्राह महात्मने।।
13-47-76a
13-47-76b
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि
दानधर्मपर्वणि सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः।। 47 ।।

13-47-2 उदर्कं फलोदयम्।। 13-47-27 अचेतसा अज्ञानेन ।। 13-47-42 सूक्ष्मं लिङ्गं ज्ञानेन तरन्त्यतिकम्य गच्छन्ति ते सूक्ष्मज्ञानतराः।।

अनुशासनपर्व-046 पुटाग्रे अल्लिखितम्। अनुशासनपर्व-048