महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-175
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बृहस्पतीना युधिष्ठिरंप्रत्यहिंसाप्रशंसनम्। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-175-1x |
अहिंसा वैदिकं कर्म ध्यानमिन्द्रियसंयमः। तपोऽथ गुरुशुश्रूषा किं श्रेयः पुरुषं प्रति।। | 13-175-1a 13-175-1b |
बृहस्पतिरुवाच। | 13-175-2x |
सर्वाण्येतानि धर्मस्य पृथग्द्वाराणि नित्यशः। शृणु संकीर्त्यमानानि षडेव भरतर्षभ।। | 13-175-2a 13-175-2b |
हन्त निःश्रेयसं जन्तोरहं वक्ष्याम्यनुत्तमम्। अहिंसापाश्रयं धर्मं दान्तो विद्वान्समाचरेत्।। | 13-175-3a 13-175-3b |
त्रिदण्डं सर्वभूतेषु निधाय पुरुषः शुचिः। कामक्रोधौ च संयम्य ततः सिद्धिमवाप्नुते।। | 13-175-4a 13-175-4b |
अहिंसकानि भूतानि दण्डेन विनिहन्ति यः। आत्मनः सुखमन्विच्छन्स प्रेत्य न सुखी भवेत्।। | 13-175-5a 13-175-5b |
आत्मोपमस्तु भूतेषु यो वै भवति पूरुषः। त्यक्तदण्डो जितक्रोधः स प्रेत्य सुखमेधते।। | 13-175-6a 13-175-6b |
सर्वभूतात्मभूतस्य सर्वभूतानि पश्यतः। देवाऽपि मार्गे मुह्यन्ति ह्यपदस्य पदेषिणः।। | 13-175-7a 13-175-7b |
न तत्परस्य संदध्यात्प्रतिकूलं यदात्मनः। एष संक्षेपतो धर्मः कामादन्यः प्रवर्तते।। | 13-175-8a 13-175-8b |
प्रख्यापने च दाने च सुखदुःखे प्रियाप्रिये। आत्मौपम्येन पुरुषः प्रमाणमधिगच्छति।। | 13-175-9a 13-175-9b |
यथा परः प्रक्रमते परेषु तथा परे प्रक्रमन्ते परस्मिन्। निषेवते स्वसमां जीवलोके यथा धर्मो नैपुणेनोपदिष्टः। | 13-175-10a 13-175-10b 13-175-10c 13-175-10d |
वैशम्पायन उवाच। | 13-175-11x |
इत्युक्त्वा तं सुरगुरुधर्मराजं युधिष्ठिरम्। दिवामचक्रमे धीमान्पश्यतामेव नस्तदा।। | 13-175-11a 13-175-11b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि पञ्चसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 175 ।। |
13-175-7 सर्वेषां भूतानामात्मभूतस्याऽऽदुःखेनेव परदुःखेनाप्युद्विजतः।। 13-175-10 हिंसितो हिनस्ति पालितः पालयति तस्मःत्पालयेदेव नो हिंसयेदित्यर्थः।।
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