महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-218
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महेश्वरेण पार्वतींप्रति प्राणिनां शुभाशुभकर्मानुसारेण शुभाशुभफलप्राप्तिकथनम्।। 1 ।।
उमोवाच। | 13-218-1x |
भगवन्देवदेवेश त्र्यक्ष भो वृषभध्वज। मानुषास्त्रिविधा देव दृश्यन्ते सततं विभो।। | 13-218-1a 13-218-1b |
आसीना एव भुञ्जन्ते स्थानैश्वर्यपरिग्रहैः। अपरे यत्नपूर्वं तु लभन्ते भोगसङ्ग्रहम्।। | 13-218-2a 13-218-2b |
अपरे यतमानाश्च न लभन्ते तु किञ्चन। केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-218-3a 13-218-3b |
महेश्वर उवाच। | 13-218-4x |
न्यायतस्त्वं महाभागे श्रोतुकामाऽसि भामिनि।। | 13-218-4a |
ये लोके मानुषा देवि दानधर्मपरायणाः। पात्राणि विधिवज्ज्ञात्वा दूरतोप्यनुमानतः।। | 13-218-5a 13-218-5b |
अभिगम्य स्वयं तत्र ग्राहयन्ति प्रसाद्य च। दानादि चेङ्गितैरेव तैरविज्ञातमेव वा।। | 13-218-6a 13-218-6b |
पुनर्जन्मनि ते देवि तादृशाः शोभना नराः। अयत्नतस्तु तान्येव फलानि प्राप्नुवन्त्युत।। | 13-218-7a 13-218-7b |
आसीना एव भुञ्जन्ते भोगान्सुकृतभोगिनः।। | 13-218-8a |
अपरे ये च दानानि ददत्येव प्रयाचिताः। यदायदाऽर्थिने दत्त्वा पुनर्दानं च याचिताः।। | 13-218-9a 13-218-9b |
तावत्कालं ततो देवि पुनर्जन्मनि ते नराः। यत्नतः श्रमसंयुक्ताः पुनस्तान्प्राप्नुवन्ति च।। | 13-218-10a 13-218-10b |
याचिता अपि केचित्तु अदत्त्वैव कथञ्चन। अभ्यसूयापरा मर्त्या लोभोपहतचेतसः।। | 13-218-11a 13-218-11b |
ते पुनर्जन्मनि शुभे यतन्तो बहुधा नराः। न प्राप्नुवन्ति मनुजा मार्गन्तस्तेऽपि किञ्चन।। | 13-218-12a 13-218-12b |
नानुप्तं रोहते सस्यं तद्वद्दानफलं विदुः। यद्यद्ददाति पुरुषस्तत्तत्प्राप्नोति केवलम्।। | 13-218-13a 13-218-13b |
इति ते कथितं देवि भूयः श्रोतुं किमिच्छसि।। | 13-218-14a |
उमोवाच। | 13-218-15x |
भगवन्भगनेत्रघ्न केचिद्वार्धकसंयुताः। अभोगयोग्यकाले तु भोगांश्चैव धनानि च।। | 13-218-15a 13-218-15b |
लभन्ते स्थविरा भूता भोगैश्वर्यं यतस्ततः। केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-218-16a 13-218-16c |
महेश्वर उवाच। | 13-218-17x |
हन्त ते कथयिष्यामि शृणु तत्वं समाहिता।। | 13-218-17a |
धर्मकार्यं चिरं कालं विस्मृत्य धनसंयुताः। प्राणान्तकाले सम्प्राप्ते व्याधिभिश्च निपीडिताः।। | 13-218-18a 13-218-18b |
आरभन्ते पुनर्धर्मं दातुं दानानि वा नराः। ते पुनर्जन्मनि शुभे भूत्वा दुःखपरिप्लुताः।। | 13-218-19a 13-218-19b |
अतीतयौवने काले स्थविरत्वमुपागताः। लभन्ते पूर्वदत्तानां फलानि शुभलक्षणे।। | 13-218-20a 13-218-20b |
एतत्कर्मफलं देवि कालयोगाद्भवत्युत।। | 13-218-21a |
उमोवाच। | 13-218-22x |
भोगयुक्ता महादेव केचिद्व्याधिपरिप्लुताः। असमर्थाश्च तान्भोक्तं भवन्ति किमु कारणम्।। | 13-218-22a 13-218-22b |
महेश्वर उवाच। | 13-218-23x |
व्याधियोगपरिक्लिष्टा ये निराशाः स्वजविते। आरभन्ते तदा कर्तुं दानानि शुभलक्षणम्।। | 13-218-23a 13-218-23b |
ते पुनर्जन्मनि शुभे प्राप्य तानि फलान्युत। असमर्थाश्च तान्भोक्तुं व्याधितास्ते भवन्त्युत।। | 13-218-24a 13-218-24b |
उमोवाच। | 13-218-25x |
भगवन्देवदेवेश मानुषेष्वेव केचन। रूपयुक्ताः प्रदृश्यन्ते शुभाङ्गा प्रियदर्शनाः। केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-218-25a 13-218-25b 13-218-25c |
महेश्वर उवाच। | 13-218-26x |
हन्त ते कथयिष्यामि शृणु तत्वं समाहिता।। | 13-218-26a |
ये पुरा मनुजा देवि लज्जायुक्ताः प्रियंवदाः। शक्ताः सुमधुरा नित्यं भूत्वा चैव स्वभावतः।। | 13-218-27a 13-218-27b |
अमांसभोजिनश्चैव सदा प्राणिदयायुताः। प्रतिकर्मप्रदा वाऽपि वस्त्रदा धर्मकारणात्। भूमिशुद्धिकरा वाऽपि कारणादग्निपूजकाः।। | 13-218-28a 13-218-28b 13-218-28c |
एवं युक्तसमाचाराः पुनर्जन्मनि ते नराः। रूपेण स्पृहणीयास्तु भवन्त्येव न संशयः।। | 13-218-29a 13-218-29b |
उमोवाच। | 13-218-30x |
विरूपाश्च प्रदृश्यन्ते मानुषेष्वेव केचन। केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-218-30a 13-218-30b |
महेश्वर उवाच। | 13-218-31x |
तदहं ते प्रवक्ष्यामि शृणु कल्याणि कारणम्।। | 13-218-31a |
रूपयोगात्पुरा मर्त्या दर्पाहंकारसंयुताः। विरूपहासकास्चैव स्तुतिनिन्दादिभिर्भृशम्।। | 13-218-32a 13-218-32b |
परोपतापनाश्चैव मांसादाश्च तथैव च। अभ्यसूयापराश्चैव अशुद्धाश्च तथा नराः।। | 13-218-33a 13-218-33b |
एवं युक्तसमाचारा यमलोके सुदण्डिताः। कथंचित्प्राप्य मानुष्यं तत्र ते रूपवर्जिताः। विरूपाः सम्भवन्त्येव नास्ति तत्र विचारणा।। | 13-218-34a 13-218-34b 13-218-34c |
उमोवाच। | 13-218-35x |
भगवन्देवदेवेश केचित्सौभाग्यसंयुताः। रूपभोग्यविहीनाश्च दृश्यन्ते प्रमदाप्रियाः। केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-218-35a 13-218-35b 13-218-35c |
महेश्वर उवाच। | 13-218-36x |
ये पुरा मनुजा देवि सौम्यशीलाः प्रियंवदाः। स्वदारैरेव संतुष्टा दारेषु समवृत्तयः।। | 13-218-36a 13-218-36b |
दाक्षिण्येनैव वर्तन्ते प्रमदास्वप्रियास्वपि। न तु प्रत्यादिशन्त्येव स्त्रीदोषान्गुणसंश्रितान्। | 13-218-37a 13-218-37b |
अन्नपानीयदाः काले नृणां स्वादुप्रदाश्च ये। स्वदारवर्तिनश्चैव धृतिमन्तो निरत्ययाः।। | 13-218-38a 13-218-38b |
एवं युक्तसमाचाराः पुनर्जन्मनि शोभने। मानुषास्ते भवन्त्येव सततं सुभगा भृशम्। अर्थादृतेऽपि ते देवि भवन्ति प्रमदाप्रियाः।। | 13-218-39a 13-218-39b 13-218-39c |
उमोवाच। | 13-218-40x |
दुर्भगाः सम्प्रदृश्यन्ते आढ्या भोगयुता अपि। केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-218-40a 13-218-40b |
महेश्वर उवाच। | 13-218-41x |
तदहं ते प्रवक्ष्यामि शृणु सर्वं समाहिता।। | 13-218-41a |
ये पुरा मनुजा देवि स्वदारेष्वनपेक्षया। यथेष्टवृत्तयश्चैव निर्लज्जा वीतसम्भ्रमाः।। | 13-218-42a 13-218-42b |
परेषां विप्रियकरा वाङ्मनःकायकर्मभिः। निराश्रया निरानन्दाः स्त्रीणां हृदयकोपनाः।। | 13-218-43a 13-218-43b |
एवं युक्तसमाचाराः पनर्जन्मनि ते नराः। दुर्भगास्तु भवन्त्येव स्त्रीणां हृदयविप्रियाः। | 13-218-44a 13-218-44b |
नास्ति तेषां रतिसुखं स्वदारेष्वपि किञ्चन।। | 13-218-45a |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अष्टादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। |
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