महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-031
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति शूद्रोपदेशस्यानर्थहेतुतायां दृष्टान्ततया मुनिशूद्रयोः कथाकथनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-31-1x |
मित्रसौहार्दयोगेन उपदेशं करोति यः। जात्याऽधरस्य राजर्षे दोषस्तस्य भवेन्न वा।। | 13-31-1a 13-31-1b |
एतदिच्छामि तत्त्वेन व्याख्यातुं वै पितामह। सूक्ष्मा गतिर्हि धर्मस्यि यत्र मुह्यन्ति मानवाः।। | 13-31-2a 13-31-2b |
भीष्म उवाच। | 13-31-3x |
अत्र ते वर्तयिष्यामि शृणु राजन्यथाक्रमम्। `मदुक्तं वचनं राजन्यथान्यायं यथागमम्।' ऋषीणां वदतां पूर्वं श्रुतमासीद्यथा पुरा।। | 13-31-3a 13-31-3b 13-31-3c |
उपदेशो न कर्तव्यो जातिहीनस्य कस्य चित्। उपदेशे महान्दोष उपाध्यायस्य भाष्यते।। | 13-31-4a 13-31-4b |
`नाध्यापयेच्छूद्रमिह तथा नैव च याजयेत्।' निदर्शनमिदं राजञ्शृणु मे भरतर्षभ।। | 13-31-5a 13-31-5b |
दुरुक्तवचने राजन्यथापूर्वं युधिष्ठिर। ब्रह्माश्रमपदे वृत्तं पार्श्वे हिमवतः शुभे।। | 13-31-6a 13-31-6b |
तत्राश्रमपदं पुण्यं नानावृक्षगणायुतम्। नानागुल्मलताकीर्णं मृगद्विजनिषेवितम्। सिद्धचारणसंघुष्टं रम्यं पुष्पितकाननम्।। | 13-31-7a 13-31-7b 13-31-7c |
व्रतिभिर्बहुभिः कीर्णं तापसैरुपशोभितम्। ब्राह्मणैश्च महाभागैः सूर्यज्वलनसन्निभैः।। | 13-31-8a 13-31-8b |
नियमव्रतसम्पन्नैः समाकीर्णं तपस्विभिः। दीक्षितैर्भरतश्रेष्ठ यताहारैः कृतात्मभिः।। | 13-31-9a 13-31-9b |
वेदाध्ययनघोषैश्च नादितं भरतर्षभ। वालखिल्यैश्च बहुभिर्यतिभिश्च निषेवितम्।। | 13-31-10a 13-31-10b |
तत्र कश्चित्समुत्साहं कृत्वा शूद्रो दयान्वितः। आगतो ह्याश्रमपदं पूजितश्च तपस्विभिः।। | 13-31-11a 13-31-11b |
तांस्तु दृष्ट्वा मुनिगणान्देवकल्पान्महौजसः। विविधां वहतो दीक्षां सम्प्राहृष्यत भारत।। | 13-31-12a 13-31-12b |
अथास्य बुद्धिरभावत्तापस्ये भरतर्षभ। ततोऽब्रवीत्कुलपतिं पादौ सङ्गृह्य भारत।। | 13-31-13a 13-31-13b |
भवत्प्रसादादिच्छामि धर्मं चर्तुं द्विजर्षभ। तस्मादभिगतं त्वं मां प्रव्राजयितुमर्हसि।। | 13-31-14a 13-31-14b |
वर्णावरोऽहं भगवञ्शूद्रो जात्याऽस्मि सत्तम। शुश्रूषां कर्तुमिच्छामि प्रपन्नाय प्रसीद मे।। | 13-31-15a 13-31-15b |
कुलपतिरुवाच। | 13-31-16x |
न शक्यमिह शूद्रेण लिङ्गमाश्रित्य वर्तितुम्। आस्यतां यदि ते बुद्धिः शुश्रूषानिरतो भव।। | 13-31-16a 13-31-16b |
शुश्रूषया पराँल्लोकानवाप्स्यसि न संशयः।। | 13-31-17a |
भीष्म उवाच। | 13-31-18x |
एवमुक्तस्तु मुनिना स शूद्रोऽचिन्तयन्नृप। कथमत्र मया कार्यं श्रुद्धा धर्मपरा च मे।। | 13-31-18a 13-31-18b |
विज्ञातमेवं भवतु करिष्ये प्रियमात्मनः। गत्वाऽऽश्रमपदाद्दूरमुटजं कृतवांस्तु सः।। | 13-31-19a 13-31-19b |
तत्र वेदीं च भूमिं च देवतायतनानि च। निवेश्य भरतश्रेष्ठ नियमस्थोऽभवन्मुनिः।। | 13-31-20a 13-31-20b |
अभिषेकांश्च नियमान्देवतायतनेषु च। बलिं च कृत्वा हुत्वा च देवतां चाप्यपूजयत्।। | 13-31-21a 13-31-21b |
सङ्कल्पनियमोपेतः फलाहारो जितेन्द्रियः। नित्यं सन्निहिताभिस्तु ओषधीभिः फलैस्तथा।। | 13-31-22a 13-31-22b |
अतिथीन्पूजयामास यथावत्समुपागतान्। एवं हि सुमहान्कालो व्यत्यक्रामत तस्य वै।। | 13-31-23a 13-31-23b |
अथास्य मुनिरागच्चत्सङ्गत्या वै तमाश्रमम्। सम्पूज्य स्वागतेनर्षिं विधिवत्समतोषयत्।। | 13-31-24a 13-31-24b |
अनूकूलाः कथाः कृत्वा यथागतमपृच्छत। ऋषिः परमतेजस्वी धर्मात्मा संशितव्रतः।। | 13-31-25a 13-31-25b |
एवं सुबहुशस्तस्य शूद्रस्य भरतर्षभ। सोऽगच्छदाश्रममृषिः शूद्रं द्रष्टुं नरर्षभः।। | 13-31-26a 13-31-26b |
अथ तं तापसं शूद्रः सोऽब्रवीद्भरतर्षभ। पितृकार्यं करिष्यामि तत्र मेऽनुग्रहं कुरु।। | 13-31-27a 13-31-27b |
बाढमित्येव तं विप्र उवाच भरतर्षभ। शुचिर्भूत्वा स शूद्रस्तु तस्यर्षेः पाद्यमानयत्।। | 13-31-28a 13-31-28b |
अथ दर्भाश्च वन्यांश्च ओषधीर्भरतर्षभ। पवित्रमासनं चैव बृसीं चि समुपानयत्।। | 13-31-29a 13-31-29b |
अथ दक्षिणमावृत्य बृसीं चरमशैर्षिकीम्। कृतामन्यायतो दृष्ट्वा तं शूद्रमृषिरब्रवीत्।। | 13-31-30a 13-31-30b |
कुरुष्वैतां पूर्वशीर्षां भवांश्चोदङ्मुखः शुचिः। स च तत्कृतवाञ्शूद्रः सर्वं यदृषिरब्रवीत्।। | 13-31-31a 13-31-31b |
यथोपदिष्टं मेधावी दर्भार्घादि यथातथम्। हव्यकव्यविधिं कृत्स्नमुक्तं तेन तपस्विना।। | 13-31-32a 13-31-32b |
ऋषिणा पितृकार्येषु सदा धर्मपथे स्थितः। पितृकार्ये कृते चापि विसृष्टः स जगाम ह।। | 13-31-33a 13-31-33b |
अथ दीर्घस्य कालस्य स तप्यञ्शूद्रतापसः। वने पञ्चत्वमगमत्सुकृतेन च तेन वै। अजायत महाराज वंशे स च महाद्युतिः।। | 13-31-34a 13-31-34b 13-31-34c |
तथैव स ऋषिस्तात कालधर्ममवाप ह। पुरोहितकुले विप्रः स जातोऽस्य वशानुगः।। | 13-31-35a 13-31-35b |
एवं तौ तत्र सम्भूतावुभौ शूद्रमुनी तदा। क्रमेण वर्धितौ चापि विद्यासु कुशलावुभौ।। | 13-31-36a 13-31-36b |
अथर्ववेदे वेदे च बभूवर्षिः सुनिष्ठितः। कल्पप्रयोगे चोत्पन्ने ज्योतिषे च परं गतः। साङ्ख्ये चैव परा प्रीतिस्तस्य चैवं व्यवर्धत।। | 13-31-37a 13-31-37b 13-31-37c |
पितर्युपरते चापि कृतशौचस्तु पार्थिवः। अभिषिक्तः प्रकृतिभी राजपुत्रः स पार्थिवः।। | 13-31-38a 13-31-38b |
अभिषिक्तेन स ऋषिरभिषिक्तः पुरोहितः।। | 13-31-39a |
स तं पुरोधाय सुखमवसद्भरतर्षभः। राज्यं शशास धर्मेण प्रजाश्च परिपालयन्।। | 13-31-40a 13-31-40b |
पुण्याहवाचने नित्यं धर्मकार्येषु चासकृत्। उत्स्मयन्प्राहसच्चापि दृष्ट्वा राजा पुरोहितम्। एवं स बहुशो राजन्पुरोधसमुपाहसत्।। | 13-31-41a 13-31-41b 13-31-41c |
लक्षयित्वा पुरोधास्तु बहुशस्तं नराधिपम्। उत्स्मयन्तं च सततं दृष्ट्वा तं मन्युमानभूत्।। | 13-31-42a 13-31-42b |
अथ शून्ये पुरोधास्तु सह राज्ञा समागतः। कथाभिरनुकूलाभी राजानं चाभ्योरचयत्।। | 13-31-43a 13-31-43b |
ततोऽब्रवीन्नरेन्द्रं स पुरोधा भरतर्षभ। वरमिच्छाम्यहं त्वेकं त्वया दत्तं महाद्युते।। | 13-31-44a 13-31-44b |
राजोवाच। | 13-31-45x |
वराणां ते शतं दद्यां किं बतैकं द्विजोत्तम। स्नेहाच्च बहुमानाच्च नास्त्यदेयं हि मे तव।। | 13-31-45a 13-31-45b |
पुरोहित उवाच। | 13-31-46x |
एकं वै वरमिच्छामि यदि तुष्टिसि पार्थिव। प्रतिजानीहि तावत्त्वं सत्यं यद्वद नानृतम्।। | 13-31-46a 13-31-46b |
भीष्म उवाचि। | 13-31-47x |
बाढमित्येव तं राजा प्रत्युवाच युधिष्ठिर। यदि ज्ञास्यामि वक्ष्यामि अजानन्न तु संवदे।। | 13-31-47a 13-31-47b |
पुरोहित उवाच। | 13-31-48x |
पुण्याहवाचने नित्यं धर्मकृत्येषु चासकृत्। शान्तिहोमेषु च सदा किं त्वं हससि वीक्ष्य मां।। | 13-31-48a 13-31-48b |
सव्रीडं वै भवति हि मनो मे हसता त्वया। कामया शापितो राजन्नान्यथावक्तुमर्हसि।। | 13-31-49a 13-31-49b |
भाव्यं हि कारणेनात्र न ते हास्यमकारणम्। कौतूहलं मे सुभृशं तत्त्वेन कथमस्व मे।। | 13-31-50a 13-31-50b |
राजोवाच। | 13-31-51x |
एवमुक्ते त्वया विप्र यदवाच्यं भवेदपि। अवश्यमेव वक्तव्यं शृणुष्वैकमना द्विज।। | 13-31-51a 13-31-51b |
पूर्वदेहे यथा वृत्तं तन्निबोध द्विजोत्तम। जातिं स्मराम्यहं ब्रह्मन्नवधानेन मे शृणु।। | 13-31-52a 13-31-52b |
शुद्रोऽहमभवं पूर्वं तपसे कृतनिश्चयः। ऋषिरुग्रतपास्त्वं च तदाऽभूर्द्विजसत्तम।। | 13-31-53a 13-31-53b |
प्रीयता हि तदा ब्रह्मन्ममानुग्रहबुद्धिना। पितृकार्ये त्वया पूर्वमुपदेशः कृतोऽनघ।। | 13-31-54a 13-31-54b |
वृस्यां दर्भेषु हव्ये च कव्ये च मुनिसत्तम। एतेन कर्मदोषेण पुरोधास्त्वमजायथाः।। | 13-31-55a 13-31-55b |
अहं राजा च विप्रेन्द्र पश्य कालस्य पर्ययम्। मत्कृतस्योपदेशस्य त्वयाऽवाप्तमिदं फलम्।। | 13-31-56a 13-31-56b |
एतस्मात्कारणाद्ब्रह्मन्प्रहसे त्वां द्विजोत्तम। न त्वां परिभवन्ब्रह्मनप्रहसामि गुरुर्भवान्।। | 13-31-57a 13-31-57b |
विपर्ययेण मे मन्युस्तेन सन्तप्यते मनः। जातिं स्मराम्यहं तुभ्यमतस्त्वां प्रहसामि वै।। | 13-31-58a 13-31-58b |
एवं तवोग्रं हि तप उपदेशेन नाशितम्। पुरोहितत्वमुत्सृज्य यतस्व त्वं पुनर्भवे।। | 13-31-59a 13-31-59b |
इतस्त्वमधमामन्यां मा योनिं प्राप्स्यसे द्विज। गृह्यतां द्रविणं विप्र पूतात्मा भव सत्तम।। | 13-31-60a 13-31-60b |
भीष्म उवाच। | 13-31-61x |
ततो विसृष्टो राज्ञा तु विप्रो दानान्यनेकशः। ब्राह्मणेभ्यो ददौ वित्तं भूमिं ग्रामांश्च सर्वशः।। | 13-31-61a 13-31-61b |
कृच्छ्राणि चीर्त्वा च ततो यथोक्तानि द्विजोत्तमैः। तीर्थानि चापि गत्वा वै दानानि विविधानि च।। | 13-31-62a 13-31-62b |
दत्त्वा गाश्चैव विप्रेभ्यः पूतात्माऽभवदात्मवान्। तमेव चाश्रमं गत्वा चचार विपुलं तपः।। | 13-31-63a 13-31-63b |
ततः सिद्धिं परां प्राप्तो ब्राह्मणो राजसत्तम। सम्मतस्चाभवत्तेषामाश्रमे तन्निवासिनाम्।। | 13-31-64a 13-31-64b |
एवं प्राप्तो महत्कृच्छ्रमृषिः सन्नृपसत्तम। ब्राह्मणेन न वक्तव्यं तस्माद्वर्णावरे जने।। | 13-31-65a 13-31-65b |
`वर्जयेदुपदेशं च सदैव ब्राह्मणो नृप। उपदेशं हि कुर्वाणो द्विजः कृच्छ्रमवाप्नुयात्।। | 13-31-66a 13-31-66b |
नेषितव्यं सदा वाचा द्विजेन नृपसत्तम। न च प्रवक्तव्यमिह किञ्चिद्वर्णावरे नरे।।' | 13-31-67a 13-31-67b |
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्यास्त्रयो वर्णा द्विजातयः। एतेषु कथयन्राजन्ब्राह्मणो न प्रदुष्यति।। | 13-31-68a 13-31-68b |
तस्मात्सद्भिर्न वक्तव्यं कस्यचित्किंचिदग्रतः। सूक्ष्मा गतिर्हि धर्मस्य दुर्ज्ञेया ह्यकृतात्मभिः।। | 13-31-69a 13-31-69b |
तस्मान्मौनेन मुनयो दीक्षां कुर्वन्ति चादृताः। दुरुक्तस्य भयाद्राजन्नाभाषन्ते च किञ्चन।। | 13-31-70a 13-31-70b |
धार्मिका गुणसम्पन्नाः सत्यार्जवसमन्विताः। दुरुक्तवाचाभिहितैः प्राप्नुवन्तीह दुष्कृतम्।। | 13-31-71a 13-31-71b |
उपदेशो न कर्तव्यो ह्यज्ञात्वा यस्यकस्य चित्। उपदेशाद्धि तत्पापं ब्राह्मणः समवाप्नुयात्।। | 13-31-72a 13-31-72b |
विमृश्य तस्मात्प्राज्ञेन वक्तव्यं धर्ममिच्छता। सत्यानृतेन हि कृत उपदेशो हिनस्ति हि।। | 13-31-73a 13-31-73b |
वक्तव्यमिह पृष्टेन विनिश्चयविपर्ययम्। स चोपदेशः कर्तव्यो येन धर्ममवाप्नुयात्।। | 13-31-74a 13-31-74b |
एतत्ते सर्वमाख्यातमुपदेशकृते मया। महान्क्लेशो हि भवति तस्मान्नोपदिशेदिह।। | 13-31-75a 13-31-75b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि एकविंशोऽध्यायः।। 31 ।। |
13-31-1 मित्रमुपकारमपेक्ष्योपकर्ता। सुहृदुपकारमनपेक्ष्योपकर्ता। लोभात् कृपया वेत्यर्थः।। 13-31-4 उपाध्यायस्योपदेशकर्तुः।। 13-31-6 दुरुक्तं दुःखस्थं नीचं प्रति उक्तं वचनम्।। 13-31-8 व्रतिभिर्ब्रह्मचारिभिः। तापसैर्वानप्रस्थैः।। 13-31-10 यतिभिः संन्यासिभिः।। 13-31-11 दयान्वितः सर्वभूताभयदानेन प्रव्रज्यां कृतवानित्यर्थः।। 13-31-12 दीक्षां नियमम्।। 13-31-13 प्रव्राजयितुं विधिवत् स्वोचितं कर्म त्याजयितुम्।। 13-31-14 प्रव्रजायितुं विधिवत् स्वोचितं कर्म त्याजयितुम्।। 13-31-16 लिङ्गं संन्यासिचिह्नम्।। 13-31-19 आत्मनः प्रियं विक्षेपकस्य शुश्रूषाख्यस्य स्वधर्मस्य त्यागम्। लिङ्गधारणानधिकारेऽपि त्यागमात्रे सर्वस्याधिकारात्। उटजं पर्णसालाम्।। 13-31-20 वेदीं पूजार्थम्। भूमिं शयनाद्यर्थम्।। 13-31-21 अभिषेकान् त्रिसन्ध्यं स्रानानि।। 13-31-22 सङ्कल्पस्य नियमो निग्रहः। चित्तवृत्तिनिरोध इति यावत्। तेन उपेतः।। 13-31-30 बृसीं चरमशैर्षिकीं आसनकूर्चं पश्चिमाग्रम्।। 13-31-37 वेदे ऋग्वेदादित्रये। कल्पप्रयोगे सूत्रोक्तयज्ञप्रयोगे।। 13-31-43 मत्कृतस्य मह्यं कृतस्य।। 13-31-58 विपर्ययेण वैपरीत्येन मन्युर्दैन्यम्।। 13-31-59 भवे भवनिमित्तम्।। 13-31-63 सत्यानृतेन वाणिज्येन धनलोभेनेत्यर्थः।।
अनुशासनपर्व-030 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-032 |