महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-157
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नहुषेणागस्त्यस्य स्वयाने योजनम्।। 1 ।। तथा तेन सह श्रुतिप्रामाण्यविवादे स्वविरुद्धभाषिणोऽगस्त्यस्य मस्तके स्वपादेन ताडनम्।। 2 ।। तदा तज्जटान्तर्निगूढेन भृगुणा शापदानेन तस्याधःपातनम्।। 3 ।। ततो देवैरिन्द्रस्य स्वपदेऽभिषेचनम्।। 4 । नहुषस्य स्वकृतपूर्वबलिदीपदानादिजसुकृतमहिम्ना पुनः स्वर्गप्राप्तिः।। 5 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-157-1x |
कथं वै स विपन्नश्च कथं वै पातितो भुवि। कथं देवेन्द्रतां प्राप्तस्तद्भवान्वक्तुमर्हति।। | 13-157-1a 13-157-1b |
भीष्म उवाच। | 13-157-2x |
एवं तयोः संवदतोः क्रियास्तस्य महात्मनः। सर्वा एव प्रवर्तन्ते या दिव्या याश्च मानुषाः।। | 13-157-2a 13-157-2b |
तथैव दीपदानानि सर्वोपकरणानि वै। बलिकर्म च यच्चान्यद्वत्सकाश्च पृथग्विधाः।। | 13-157-3a 13-157-3b |
सर्वास्तस्य समुत्पन्ना देवेन्द्रस्य महात्मनः। देवलोके नृलोके च सदाचारपुरस्कृताः।। | 13-157-4a 13-157-4b |
ताश्चोद्भवन्ति राजेन्द्र समृद्ध्यै गृहमेधिनः। धूपप्रदानैर्दीपैश्च नमस्कारैस्तथैव च।। | 13-157-5a 13-157-5b |
यथा सिद्धस्य चान्नस्य गृह्य चाग्रं प्रदीयते। बलयश्च गृहोद्देशे ततः प्रीयन्ति देवताः।। | 13-157-6a 13-157-6b |
यथा च गृहिणस्तोषो भवेद्वै बलिकर्मणि। तथा शतगुणा प्रीतिर्देवतानां प्रजायते।। | 13-157-7a 13-157-7b |
एवं धूपप्रदानं च दीपदानं च साधवः। प्रयच्छति नमस्कारैर्युक्तमात्मगुणावहम्।। | 13-157-8a 13-157-8b |
स्नानेनाद्भिश्च यत्कर्म क्रियते वै विपश्चिता। नमस्कारप्रयुक्तेन तेन प्रीणन्ति देवताः।। | 13-157-9a 13-157-9b |
पितरश्च महाभागा ऋषयश्च तपोधनाः। गृह्याश्च देवताः सर्वाः प्रीयन्ते विधिनाऽर्चिताः।। | 13-157-10a 13-157-10b |
इत्येतां बुद्धिमास्थाय नहुषः स नरेश्वरः। सुरेन्द्रत्वं महत्प्राप्य कृतवानेतदद्भुतम्।। | 13-157-11a 13-157-11b |
कस्य चित्त्वथ कालस्य भाग्यक्षय उपस्थिते। सर्वमेतदवज्ञाय न चकार यथाविधि।। | 13-157-12a 13-157-12b |
ततः स परिहीणोऽभूत्सुरेन्द्रो बलदर्पतः। धूपदीपादिकविधिं न यथावच्चकार ह। ततोऽस्य यज्ञविषयो रक्षोभिः परिबाध्यते।। | 13-157-13a 13-157-13b 13-157-13c |
अथागस्त्यमृषिश्रेष्ठं वाहनायाजुहाव ह। द्रुतं सरस्वतीकूलात्स्मयन्निव महाबलः।। | 13-157-14a 13-157-14b |
ततो भृगुर्महातेजा मैत्रावरुणिमब्रवीत्। निमीलयस्व नयने जटां यावद्विशामि ते। `सुरेन्द्रपतनायेति स च नेत्र न्यमीलयत्।।' | 13-157-15a 13-157-15b 13-157-15c |
ततोऽगस्त्यस्याथ जटां दृष्ट्वा प्राविशदच्युतः। भृगुः स सुमहातेजाः पातनाय नृपस्य च।। | 13-157-16a 13-157-16b |
ततः स देवराट् प्राप्तस्तमृषिं वाहनाय वै। ततोऽगस्त्यः सुरपतिं वाक्यमाह विशाम्पते। योजयस्वेति मां क्षिप्रं कं च देशं वहामि ते।। | 13-157-17a 13-157-17b 13-157-17c |
यत्र वक्ष्यसि तत्र त्वां नयिष्यामि सुराधिप। इत्युक्तो नरहुषस्तेन योजयामास तं मुनिम्।। | 13-157-18a 13-157-18b |
भृगुस्तस्य जटान्तस्थो बभूव हृषितो भृशम्। न चापि दर्शनं तस्य चकार स भृगुस्तदा। वरदानप्रभावज्ञो नहुषस्य महात्मनः।। | 13-157-19a 13-157-19b 13-157-19c |
न चुकोप तदाऽगस्त्यो युक्तोऽपि नहुषेण वै। तं तु राजा पदैकेन चोदयामास भारत। `श्रुतिः स्मृतिः प्रमाणं वा नेतिवादेन देवराट्।।' | 13-157-20a 13-157-20b 13-157-20c |
न चुकोप स धर्मात्मा ततः पादेन देवराट्। अगस्त्यस्य तदा क्रुद्धो वामेनाभ्यहनच्छिरः।। | 13-157-21a 13-157-21b |
तस्मिञ्शिरस्यभिहते स जटान्तर्गतो भृगुः। शशाप बलवत्क्रुद्धो नहुषं पापचेतसम्।। | 13-157-22a 13-157-22b |
यस्मात्पदाऽवधीः क्रोधाच्छिरसीमं महामुनिम्। तस्मादाशु महीं गच्छ सर्पो भूत्वा सुदुर्मते।। | 13-157-23a 13-157-23b |
शप्तोऽथ स तदा तेन सर्पो भूत्वा पपात ह। अदृष्टेनाथ भृगुणा भूतले भरतर्षभ।। | 13-157-24a 13-157-24b |
भृगुं हि यदि सोऽद्राक्षीन्नहुषः पृथिवीपते। स शक्तोनाऽभविष्यद्वै पातने तस्य तेजसा।। | 13-157-25a 13-157-25b |
स तु तैस्तैः प्रदानैश्च तपोभिर्नियमैस्तथा। पतितोऽपि महाराज भूतले स्मृतिमानभूत्।। | 13-157-26a 13-157-26b |
प्रसादयामास भृगुं शापान्तो मे भवेदिति। ततोऽगस्त्यः कृपाविष्टः प्रासादयत तं भृगुम्। शापान्तार्थं महाराज स च प्रादात्कृपान्वितः।। | 13-157-27a 13-157-27b 13-157-27c |
भृगुरुवाच। | 13-157-28x |
राजा युधिष्ठिरो नाम भविष्यति कुरूद्वहः। स त्वां मोक्षयिता शापादित्युक्त्वाऽन्तरधीयत।। | 13-157-28a 13-157-28b |
अगस्त्योऽपि महातेजाः कृत्वा कार्यं शतक्रतोः। स्वमाश्रमपदं प्रायात्पूज्यमानो द्विजातिभिः।। | 13-157-29a 13-157-29b |
नहुषोऽपि त्वया राजंस्तस्माच्छापात्समुद्धृतः। जगाम ब्रह्मभवनं पश्यतस्ते जनाधिप।। | 13-157-30a 13-157-30b |
तदा स पातयित्वा तं नहुषं भूतले भृगुः। जगाम ब्रह्मभवनं ब्रह्मणे च न्यवेदयत्।। | 13-157-31a 13-157-31b |
ततः शक्रं समानाय्य देवानाह पितामहः। वरदानान्मम सुरा नहुषो राज्यमाप्तवान्। स चागस्त्येन क्रुद्धेन भ्रंशितो भूतलं गतः।। | 13-157-32a 13-157-32b 13-157-32c |
न च शक्यं विना राज्ञा सुखं वर्तयितुं क्वचित्। तस्मादयं पुनः शक्रो देवराज्येऽभिषिच्यताम्।। | 13-157-33a 13-157-33b |
एवं सम्भाषमाणं तु देवाः पार्थ पितामहम्। एवमस्त्विति संहृष्टाः प्रत्यूचुस्तं नराधिप।। | 13-157-34a 13-157-34b |
सोऽभिषिक्तो भगवता देवराज्ये च वासवः। ब्रह्मणा राजशार्दूल यथापूर्वं व्यरोचत।। | 13-157-35a 13-157-35b |
एवमेतत्पुरावृत्तं नहुषस्य व्यतिक्रमात्। स च तैरेव संसिद्धो नहुषः कर्मभिः पुनः।। | 13-157-36a 13-157-36b |
तस्माद्दीपाः प्रदातव्याः सायं वै गृहमेधिभिः। दिव्यं चक्षुरवाप्नोति प्रेत्य दीपस्य दायकः। पूर्णचन्द्रप्रतीकाशा दीपदाश्च भवन्त्युत।। | 13-157-37a 13-157-37b 13-157-37c |
यावदक्षिनिमेषाणि ज्वलन्ते तावतीः समाः। रूपवान्बलवांश्चापि नरो भवति दीपदः।। | 13-157-38a 13-157-38b |
य इदं शृणुयाद्वापि पठते यो द्विजोत्तमः। ब्रह्मलोकमवाप्नोति स च वै नात्र संशयः।। | 13-157-39a 13-157-39b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि सप्तपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 157 ।। |
13-157-3 वत्सकाः पुत्रादेर्वार्षिकोत्सवाः। यच्चान्यदुत्सेकाश्चेति थ.ध.पाठः।। 13-157-20 तं तु राजा प्रतोदेनेति झ.पाठः।। 13-157-30 भवनं तेन पुण्येन कर्मणेति थ.ध.पाठः।। 13-157-38 रूपवान्धर्मवांश्चापीति ध.पाठः।।
अनुशासनपर्व-156 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-158 |