महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-060
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भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति दाने पात्राणां लक्षणादिकथनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-60-1x |
किमाहुर्भरतश्रेष्ठ पात्रं विप्राः सनातनम्। ब्राह्मणं लिङ्गिनं चैव ब्राह्मणं वाऽप्यलिङ्गिनम्।। | 13-60-1a 13-60-1b |
भीष्म उवाच। | 13-60-2x |
स्ववृत्तिमभिपन्नाय लिङ्गिने चेतराय च। देयमाहुर्महाराज उभावेतौ तपस्विनौ।। | 13-60-2a 13-60-2b |
युधिष्ठिर उवाच। | 13-60-3x |
श्रद्धया परयाऽपूतो यः प्रयच्छेद्द्विजातये। हव्यं कव्यं तथा दानं को दोषः स्यात्पितामह।। | 13-60-3a 13-60-3b |
भीष्म उवाच। | 13-60-4x |
श्रद्धापूतो नरस्तात दुर्दान्तोऽपि न संशयः। पूतो भवति सर्वत्र किमुत त्वं महाद्युते।। | 13-60-4a 13-60-4b |
युधिष्ठिर उवाच। | 13-60-5x |
न ब्राह्मणं परिक्षेत दैवेषु सततं नरः। कव्यप्रदाने तु बुधाः परीक्ष्यं ब्राह्मणं विदुः।। | 13-60-5a 13-60-5b |
भीष्म उवाच। | 13-60-6x |
न ब्राह्मणः साधयते हव्यं दैवात्प्रसिद्ध्यति। देवप्रसादादिज्यन्ते यजमानैर्न संशयः।। | 13-60-6a 13-60-6b |
ब्राह्मणान्भरतश्रेष्ठ सततं ब्रह्मवादिनः। मार्कण्डेयः पुरा प्राह इति लोकेषु बुद्धिमान्। `ब्राह्मणाः पात्रभूताश्च शुद्धा नैवं पितृष्विह।। | 13-60-7a 13-60-7b 13-60-7c |
युधिष्ठिर उवाच। | 13-60-8x |
अपर्वोऽप्यथवा विद्वान्सम्बन्धी वा यथा भवेत्। तपस्वी यज्ञशीलो वा कथं पात्रं भवेत्तु सः।। | 13-60-8a 13-60-8b |
भीष्म उवाच। | 13-60-9x |
कुलीनः कर्मकृद्वैद्यस्तथैवाप्यनृशंस्यवान्। ह्रीमानृजुः सत्यवादी पात्रं पूर्वे च ये त्रयः।। | 13-60-9a 13-60-9b |
तत्रेमं शृणु मे पार्थ चतुर्णां तेजसां मतम्। पृथिव्याः काश्यपस्याग्नेर्मार्कण्डेयस्य चैव हि।। | 13-60-10a 13-60-10b |
पृथिव्युवाच। | 13-60-11a |
यथा महार्णवे क्षिप्तः क्षिप्रं नेष्टुर्विनश्यति। तथा दुश्चरितं सर्वं त्रयीनित्ये निमज्जति।। | 13-60-11a 13-60-11b |
काश्यप उवाच। | 13-60-12x |
सर्वे च वेदाः सह षङ्भिरङ्गैः साङ्ख्यं पुराणं च कुले च जन्म। नैतानि सर्वाणि गतिर्भवन्ति शीलव्यपेतस्य नृप द्विजस्य।। | 13-60-12a 13-60-12b 13-60-12c 13-60-12d |
अग्निरुवाच। | 13-60-13x |
अधीयानः पण्डितम्मन्यमानो यो विद्यया हन्ति यशः परेषाम्। ब्रह्मन्स तेन लभते ब्रह्मवध्यां लोकास्तस्य ह्यन्तवन्तो भवन्ति।। | 13-60-13a 13-60-13b 13-60-13c 13-60-13d |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-60-14x |
अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलया धृतम्। नाभिजानामि यज्ञं तु सत्यस्यार्धमवाप्नुयात्।। | 13-60-14a 13-60-14b |
भीष्म उवाच। | 13-60-15x |
इत्युक्त्वा ते जग्मुराशु चत्वारोऽमिततेजसः। पृथिवी काश्यपोऽग्निश्च प्रकृष्टायुश्च भार्गवः।। | 13-60-15a 13-60-15b |
युधिष्ठिर उवाच। | 13-60-16x |
यदि ते ब्राह्मणा लोके व्रतिनो भुञ्जते हविः। दत्तं ब्राह्मणकामाय कथं तत्सुकृतं भवेत्।। | 13-60-16a 13-60-16b |
भीष्म उवाच। | 13-60-17x |
आदिष्टिनो ये राजेन्द्र ब्राह्मणा वेदपारगाः। भुञ्जते ब्रह्मकामाय व्रतलुप्ता भवन्ति ते।। | 13-60-17a 13-60-17b |
युधिष्ठिर उवाच। | 13-60-18x |
अनेकान्तं बहुद्वारं धर्ममाहुर्मनीषिणः। किं निमित्तं भवेदत्र तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 13-60-18a 13-60-18b |
भीष्म उवाच। | 13-60-19x |
अहिंसा सत्यमकोध आनृशंस्यं दमस्तथा। आर्जवं चैव राजेन्द्र निश्चितं धर्मलक्षणम्।। | 13-60-19a 13-60-19b |
ये तु धर्मं प्रशंसन्तश्चरन्ति पृथिवीमिमाम्। अनाचरन्तस्तद्धर्म सङ्करेऽभिरता प्रभो।। | 13-60-20a 13-60-20b |
तेभ्यो हिरण्यं रत्नं वा गामश्वं वा ददाति यः। दशवर्षाणि विष्ठां स भुङ्क्ते निरयमास्थितः।। | 13-60-21a 13-60-21b |
धनेन पुल्कसानां च तथैवान्तेवसायिनाम्। कृतं कर्माकृतं वाऽपि रागमोहेन जल्पताम्।। | 13-60-22a 13-60-22b |
वैश्वदेवं च ये मूढा विप्राय ब्रह्मचारिणे। न ददन्तीह राजेन्द्र ते लोकान्भुञ्जतेऽशुभान्।। | 13-60-23a 13-60-23b |
युधिष्ठिर उवाच। | 13-60-24x |
किं परं ब्रह्मचर्यं च किं परं धर्मलक्षणम्। किञ्च श्रेष्ठतमं शौचं तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 13-60-24a 13-60-24b |
भीष्म उवाच। | 13-60-25x |
ब्रह्मचर्यं परं तात मधुमांसस्य वर्जनम्। मर्यादायां स्थितो धर्मः शमः शौचस्य लक्षणम्।। | 13-60-25a 13-60-25b |
युधिष्ठिर उवाच। | 13-60-26x |
कस्मिन्काले चरेद्धर्म कस्मिन्कालेऽर्थमाचरेत्। कस्मिन्काले सुखी च स्यात्तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 13-60-26a 13-60-26b |
भीष्म उवाच। | 13-60-27x |
काल्यमर्थं निषेवेत ततो धर्ममनन्तरम्। पश्चात्कामं निषेवेत न च गच्छेत्प्रसङ्गिताम्।। | 13-60-27a 13-60-27b |
ब्राह्मणांश्चैव मन्येत गुरूंश्चाप्यभिपूजयेत्। सर्वभूतानुलोमश्च मृदुशीलः प्रियंवदः।। | 13-60-28a 13-60-28b |
अधिकारे यदनृतं यच्च राजसु पैशुनम्। गुरोश्चालीकनिर्बन्धः समानि ब्रह्महत्यया।। | 13-60-29a 13-60-29b |
प्रहरेन्न नरेन्द्रेषु न हन्याद्गां तथैव च। भ्रूणहत्यासमं चैतदुभयं ये निषेधते।। | 13-60-30a 13-60-30b |
नाग्निं परित्यजेज्जातु न च वेदान्परित्यजेत्। न च ब्राह्मणमाक्रोशेत्समं तद्ब्रह्महत्यया।। | 13-60-31a 13-60-31b |
युधिष्ठिर उवाच। | 13-60-32x |
कीदृशाः साधवो विप्राः केभ्यो दत्तं महाफलम्। कीदृशानां च भोक्तव्यं तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 13-60-32a 13-60-32b |
भीष्म उवाच। | 13-60-33x |
अक्रोधना धर्मपराः सत्यनित्या दमे रताः। तादृशाः साधवो विप्रास्तेभ्यो दत्तं महाफलम्।। | 13-60-33a 13-60-33b |
अमानिनः सर्वसहा दृढार्था विजितेन्द्रियाः। सर्वभूतहिता मैत्रास्तेभ्यो दत्तं महाफलम्।। | 13-60-34a 13-60-34b |
अलुब्धाः शुचयो वैद्या ह्रीमन्तः सत्यवादिनः। स्वकर्मनिरता ये च तेभ्यो दत्तं महाफलम्।। | 13-60-35a 13-60-35b |
साङ्गांश्च चतुरो वेदानधीते यो द्विजर्षभः। षड्भ्यः प्रवृत्तः कर्मभ्यस्तं पात्रमृषयो विदुः।। | 13-60-36a 13-60-36b |
ये त्वेवंगुणजातीयास्तेभ्यो दत्तं महाफलम्। सहस्रगुणमाप्नोति गुणार्हाय प्रदायकः।। | 13-60-37a 13-60-37b |
प्रज्ञाश्रुताभ्यां वृत्तेन शीलेन च समन्वितः। तारयेत कुलं सर्वमेकोऽपीह द्विजर्षभः। `तृप्ते तृप्ताः सर्वदेवाः पितरो मुनयोपि च।।' | 13-60-38a 13-60-38b 13-60-38c |
गामश्वं वित्तमन्नं वा तद्विधे प्रतिपादयेत्। द्रव्याणि चान्यानि तथा प्रेत्यभावे न शोचति।। | 13-60-39a 13-60-39b |
तारयेत कुलं सर्वमेकोपि ह द्विजोत्तमः। किमङ्ग पुनरेवैते तस्मात्पात्रं समाचरेत्।। | 13-60-40a 13-60-40b |
निशाम्य च गुणोपेतं ब्राह्मणं साधुसम्मतम्। दूरादानाय्य सत्कृत्य सर्वतश्चापि पूजयेत्।। | 13-60-41a 13-60-41b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि षष्टितमोऽध्यायः।। 60 ।। |
13-60-1 ब्राह्मणं ब्रह्मविदम्। लिङ्गिनं ब्रह्मचारिणं संन्यासिनं च दण्डादिलिङ्गवन्तम्।। 13-60-3 अपूतोपि परया श्रद्धयां यदि प्रयच्छति तर्हि तस्य दातुरपूतत्वप्रयुक्तः को दोषः स्यात्तं वद।। 13-60-4 श्रद्धैवास्य पूतत्वं करोतीत्यर्थः।। 13-60-5 श्रद्धैव पूतत्वकर्त्री चेत् कव्ये पात्रपरीक्षा न विधेया स्यादित्याशयः।। 13-60-6 हव्यं दैवं कर्म सिध्यति फलदं भवति नतु ब्राह्मणगुणादिति भावः। इज्यन्ते देवा इति शेषः। दैवं कर्म देवानुग्रहादेव पूर्णं भवति। श्रद्धामात्रप्रियत्वाद्देवानामिति भावः।। 13-60-7 पित्र्यं तु कर्म ब्राह्मणानुग्रहादेव पूर्णं भवतीति तत्रानुग्रहकर्तरि तपोबलमावश्यकमित्याशयेनाह ब्राह्मणानिति।। 13-60-9 त्रयः अपूर्वसम्बन्धितपस्विनः कुलीनत्वादिगुणसप्तकयुक्ता एव पात्रत्वं भजन्ते परिशेषात्।। 13-60-10 तेजसां तेजस्विनां सर्वज्ञानामिति यावत्।। 13-60-11 नेष्टुः पांसुपिण्डः लोष्ठो विनश्यतीति ध. पाठः।। 13-60-15 भार्गवः मार्कण्डेयः।। 13-60-16 व्रतिनः ब्रह्मचारिणः। तदीयव्रतनाशात्स्वीयं श्राद्धं दुष्यति नवेति प्रश्नः।। 13-60-17 आदिष्टं द्वादशवर्षाणि ब्रह्मचर्यं चरेति गुर्वादेशस्तद्वन्तः। भोक्तुरेव व्रतं लुप्यते। नतु दाता प्रत्यवैति।। 13-60-18 अन्तो निष्ठा। अनेकान्तं अनेकफलाकारमित्यर्थः। पात्रगुणानामनन्तत्वात्के गुणा नियमेन पात्रताया निमित्तं तानेव संक्षेपेण ब्रूहीति प्रश्नार्थः।। 13-60-22 मेदानां पुल्कसां चेति झ. पाठः। तत्र मेदादीनां स विष्ठां भुङ्क्ते इति सम्बन्धः। मेदा गोमहिष्यादीनां मृतानां मांसमश्नन्तः। पुल्कसा ये ब्राह्मणादीनपि स्वभावादेव हिंसन्ति। अन्तेवसायिनश्चर्मकारादयः। कृतमकृतं वा परकीयं पापं कर्म।। 13-60-24 परं श्रेष्ठम्।। 13-60-27 काल्यं पूर्वाह्णे।। 13-60-39 न शोचति प्रतिपादयन्।। 13-60-40 द्विजोत्तमः निर्दोषः। एते पूर्वोक्ता गुणाश्च तत्र यदि लभ्यन्ते तर्हि तारयेतेति किमु।।
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