महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-142
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वने विचरतां सप्तर्षीणां परिव्राड्रूपधारिणेन्द्रेण समागमः।। 1 ।। अरुन्धत्या तस्यातिपीनाङ्गत्वे कारणं पृष्टैस्तैस्तत्कथनः।। 2 ।। तथा कामपि पद्मिनीमवलोकितवद्भिस्तैर्बिसग्रहणाय तत्समीपगमनम्।। 3 ।। तत्र तद्रक्षिण्या वृषादर्भिनिर्मितकत्यया स्वस्वनामनिर्वचनेन सरःप्रवेशं चोदिसैस्तांप्रति तन्निर्वचनम्।। 4 ।। भिक्षुरूपिणेन्द्रेण सकृत्स्वनामनिर्वचनेऽपि पुन पृच्छन्त्याः कृत्याया दण्डेन मारणपूर्वकमृषीन्प्रति स्वस्वरूपप्रकटनम्।। 5 ।।
भीष्म उवाच। | 13-142-1x |
अथात्रिप्रमुखा राजन्वने तस्मिन्महर्षयः। व्यचरन्भक्षयन्तो वै मूलानि च फलानि च।। | 13-142-1a 13-142-1b |
अथापश्यन्सुपीनांसपाणिपादमुखोदरम्। परिव्रजन्तं स्थूलाङ्गं परिव्राजं शुनस्सखम्।। | 13-142-2a 13-142-2b |
अरुन्धती तु तं दृष्ट्वा सर्वाङ्गोपचितं शुभम्। भवितारो भवन्तो वै नैवमित्यब्रवीदृषीन्।। | 13-142-3a 13-142-3b |
वसिष्ठ उवाच। | 13-142-4x |
नैतस्येह यथाऽस्माकमग्निहोत्रमनिर्हुतम्। सायं प्रातश्च होतव्यं तेन पीवाञ्शुनस्सखः।। | 13-142-4a 13-142-4b |
अत्रिरुवाच। | 13-142-5x |
नैतस्येह यथाऽस्माकं क्षुधया वीर्यमाहतम्। कृच्छ्राधीतं प्रनष्टं च तेन पीवाञ्छुनस्सखः।। | 13-142-5a 13-142-5b |
विश्वामित्र उवाच। | 13-142-6x |
नैतस्येह यथाऽस्माकं शश्वच्छास्त्रकृतो ज्वरः। अलसः क्षुत्परो मूर्खस्तेन पीवाञ्शुनस्सखः।। | 13-142-6a 13-142-6b |
जमदग्निरुवाच। | 13-142-7x |
नैतस्येह यथाऽस्माकं भक्तमिन्धनमेव च। सञ्चित्यं वार्षिकं चित्ते तेन पीवाञ्शुनस्सखः।। | 13-142-7a 13-142-7b |
कश्यप उवाच। | 13-142-8x |
नैतस्येह यथाऽस्माकं चत्वारश्च सहोदराः। देहिदेहीति भिक्षन्ति तेन पीवाञ्शुनस्सखः।। | 13-142-8a 13-142-8b |
भरद्वाज उवाच। | 13-142-9x |
नैतस्येह यथाऽस्माकं ब्रह्मबन्धोरचेतसः। शोको भार्यापवादेन तेन पीवाञ्शुनस्सखः।। | 13-142-9a 13-142-9b |
गौतम उवाच। | 13-142-10x |
नैतस्येह यथाऽस्माकं त्रिकौशेयं च राङ्कवम्। एकैकं वै त्रिवर्षीयं तेन पीवाञ्शुनस्सखः।। | 13-142-10a 13-142-10b |
भीष्म उवाच। | 13-142-11x |
अथ दृष्ट्वा परिव्राट् स तान्महर्षीञ्शुनस्सखः। अभिवाद्य यथान्यायं पाणिस्पर्शमथाचरत्।। | 13-142-11a 13-142-11b |
परिचर्यां वने तां तु क्षुत्प्रतीकारकाङ्क्षिणः। अन्योन्येन निवेद्याथ प्रातिष्ठन्त सहैव ते।। | 13-142-12a 13-142-12b |
एकनिश्चयकार्याश्च व्यचरन्त वनानि ते। आददानाः समुद्धृत्य मूलानि च फलानि च।। | 13-142-13a 13-142-13b |
कदाचिद्विचरन्तस्ते वृक्षैरविरलैर्वृताम्। शुचिपूर्णप्रसन्नोदां ददृशुः पद्मिनीं शुभाम्।। | 13-142-14a 13-142-14b |
बालादित्यवपुःप्रख्यैः पुष्करैरुपशोभिताम्। वैडूर्यवर्णसदृशैः पद्मपत्रैरथावृताम्।। | 13-142-15a 13-142-15b |
नानाविधैश्च विहगैर्जलप्रवरसेविभिः। एकद्वारामनादेयां सूपतीर्थामकर्दमाम्।। | 13-142-16a 13-142-16b |
वृषादर्भिप्रयुक्ता तु कृत्या विकृतदर्शना। यातुधानीति विख्याता पद्मिनीं तामरक्षत।। | 13-142-17a 13-142-17b |
शुनस्सखसहायास्तु बिसार्थं ते महर्षयः। पद्मिनीमभिजग्मुस्ते सर्वे कृत्याभिरक्षिताम्।। | 13-142-18a 13-142-18b |
ततस्ते यातुधानीं तां दृष्ट्वा विकृतदर्शनाम्। स्थितां कमलिनीतीरे कृत्यामूचुर्महर्षयः।। | 13-142-19a 13-142-19b |
एका तिष्ठसि का च त्वं कस्यार्थे किं प्रयोजनम्। पद्मिनीतीरमाश्रित्य ब्रूहि त्वं किं चिकीर्षसि।। | 13-142-20a 13-142-20b |
यातुधान्युवाच। | 13-142-21x |
याऽस्मि काऽस्म्यनुयोगो मे न कर्तव्यः कथञ्चन। आरक्षिणीं मा पद्मिन्या वित्त सर्वे तपोधनाः।। | 13-142-21a 13-142-21b |
ऋषय ऊचुः। | 13-142-22x |
सर्व एव क्षुधार्ताः स्म न चान्यत्किंचिदस्ति नः। भवत्याः सम्मते सर्वे गृह्णीयाम बिसान्युत।। | 13-142-22a 13-142-22b |
यातुधान्युवाच। | 13-142-23x |
समयेन बिसानीतो गृह्णीध्वं कामकारतः। एकैको नाम मे प्रोक्त्वा ततो गृह्णीत माचिरम्।। | 13-142-23a 13-142-23b |
भीष्म उवाच। | 13-142-24x |
विज्ञाय यातुधानीं तां कृत्यमृषिवधैषिणीम्। अत्रिः क्षुधा परीतात्मा ततो वचनमब्रवीत्।। | 13-142-24a 13-142-24b |
अत्त्रिरुवाच। | 13-142-25x |
अरात्त्रिरत्त्रिः सा रात्रिर्यां नाधीते त्रिरद्य वै। अरात्रिरत्रिरित्येव नाम मे विद्धि शोभने।। | 13-142-25a 13-142-25b |
यातुधान्युवाच। | 13-142-26x |
यथोदाहृतमेतत्ते त्वया नाम महाद्युते। दुर्धार्यमेतन्मनसा गच्छाऽवतर पद्मिनीम्।। | 13-142-26a 13-142-26b |
वसिष्ठ उवाच। | 13-142-27x |
वसिष्ठोऽस्मि वरिष्ठोऽस्मि वसे वासगृहेष्वपि। वरिष्ठत्वाच्च वासाच्च वसिष्ठ इति विद्दि माम्।। | 13-142-27a 13-142-27b |
यातुधान्युवाच। | 13-142-28x |
नाम नैरुक्तमेतत्ते दुःखव्याभाषिताक्षरम्। नैतद्धारयितुं शक्यं गच्छाऽवतर पद्मिनीम्।। | 13-142-28a 13-142-28b |
कश्यप उवाच। | 13-142-29x |
कुलंकुलं च कुवमः कुवमः कश्यपो द्विजः। काश्यः काशनिकाशत्वादेतन्मे नाम धारय।। | 13-142-29a 13-142-29b |
यातुधान्युवाच। | 13-142-30x |
यथोदाहृतमेतत्ते मयि नाम महाद्युते। दुर्धार्यमेतन्मनसा गच्छाऽवतर पद्मिनीम्।। | 13-142-30a 13-142-30b |
भरद्वाज उवाच। | 13-142-31x |
भरेऽसुतान्भरे पोष्यान्भरे देवान्भरे द्विजान्। भरे भार्यामहं व्याजाद्भरद्वाजोऽस्मि शोभने।। | 13-142-31a 13-142-31b |
यातुधान्युवाच। | 13-142-32x |
नाम नैरुक्तमेतत्ते दुःखव्याभाषिताक्षरम्। नैतद्धारयितुं शक्यं गच्छाऽवतर पद्मिनीम्।। | 13-142-32a 13-142-32b |
गौतम उवाच। | 13-142-33x |
गोदमो दमतोऽधूमोऽदमस्ते समदर्शनात्। विद्धि मां गोतमं कृत्ये यातुधानि निबोध मां | 13-142-33a 13-142-33b |
यातुधान्युवाच। | 13-142-34x |
यथोदाहृतमेतत्ते मयि नाम महामुने। नैतद्धारयितुं शक्यं गच्छाऽवतर पद्मिनीम्।। | 13-142-34a 13-142-34b |
विश्वामित्र उवाच। | 13-142-35x |
विश्वेदेवाश्च मे मित्रं मित्रमस्मि गवां तथा। विश्वामित्र इति ख्यातं यातुधानि निबोध मां | 13-142-35a 13-142-35b |
यातुधान्युवाच। | 13-142-36x |
नाम नैरुक्तमेतत्ते दुःखव्याभाषिताक्षरम्। नैतद्धारयितुं शक्यं गच्छाऽवतर पद्मिनीम्।। | 13-142-36a 13-142-36b |
जमदग्निरुवाच। | 13-142-37x |
जाजमद्यजजानेऽहं जिजाहीह जिजायिषि। जमदग्निरिति ख्यातं ततो मां विद्धि शोभने।। | 13-142-37a 13-142-37b |
यातुधान्युवाच। | 13-142-38x |
यथोदाहृतमेतत्ते मयि नाम महामुने। नैतद्धारयितुं शक्यं गच्छाऽवतर पद्मिनीम्।। | 13-142-38a 13-142-38b |
अरुन्धत्युवाच। | 13-142-38x |
धरान्धरित्रीं वसुधां भर्तुस्तिष्ठाम्यनन्तरम्। मनोऽनुरुन्धती भर्तुरिति मां विद्ध्यरुन्धतीम्।। | 13-142-39a 13-142-39b |
यातुधान्युवाच। | 13-142-40x |
नामनैरुक्तमेतत्ते दुःखव्याभाषिताक्षरम्। नैतद्धारयितुं शक्यं गच्छाऽवतर पद्मिनीम्।। | 13-142-40a 13-142-40b |
गण्डोवाच। | 13-142-41x |
वक्त्रैकदेशे गण्डेति धातुमेतं प्रचक्षते। तेनोन्नतेन गण्डेति विद्धि माऽनलसम्भवे।। | 13-142-41a 13-142-41b |
यातुधान्युवाच। | 13-142-42x |
नामनैरुक्तमेतत्ते दुःखव्याभाषिताक्षरम्। नैतद्धारयितुं शक्यं गच्छावतर पद्मिनीम्।। | 13-142-42a 13-142-42b |
पशुसख उवाच। | 13-142-43x |
पशून्यञ्जामि दृष्ट्वाऽहं पशूनां च सदा सखा। गौणं पशुसखेत्येवं विद्धि मामग्निसम्भवे।। | 13-142-43a 13-142-43b |
यातुधान्युवाच। | 13-142-44x |
नामनैरुक्तमेतत्ते दुःखव्याभाषिताक्षरम्। नैतद्धारयितुं शक्यं गच्छाऽवतर पद्मिनीम्।। | 13-142-44a 13-142-44b |
शुनःसख उवाच। | 13-142-45x |
एभिरुक्तं यथा नाम नाहं वक्तुमिहोत्सहे। शुनःसखसखायं मां यातुधान्युपधारय।। | 13-142-45a 13-142-45b |
यातुधान्युवाच। | 13-142-46x |
नाम न व्यक्तमुक्तं वै वाक्यं संदिग्धया गिरा। तस्मात्सकृदिदानीं त्वं ब्रूहि यन्नाम ते द्विज।। | 13-142-46a 13-142-46b |
शुनःसख उवाच। | 13-142-47x |
सकृदुक्तं मया नाम न गृहीतं त्वया यदि। तस्मात्त्रिदण्डाभिहता गच्छ भस्मेति माचिरम्।। | 13-142-47a 13-142-47b |
भीष्म उवाच। | 13-142-48x |
सा ब्रह्मदण्डकल्पेन तेन मूर्ध्नि हता तदा। कृत्या पपात मेदिन्यां भस्म साच जगाम ह।। | 13-142-48a 13-142-48b |
शुनःसखश्च हत्वा तां यातुधानीं महाबलाम्। भुवि त्रिदण्डं विष्टभ्य शाद्वले समुपाविशत्।। | 13-142-49a 13-142-49b |
ततस्ते मुनयः सर्वेः पुष्कराणि बिसानि च। यथाकाममुपादाय समुत्तस्थुर्मुदाऽन्विताः।। | 13-142-50a 13-142-50b |
श्रमेण महता युक्तास्ते बिसानि कलापशः। तीरे निक्षिप्य पद्मिन्यास्तर्पणं चक्रुरम्भसा।। | 13-142-51a 13-142-51b |
अथोत्थाय जलात्तस्मात्सर्वे ते समुपागमन्। नापश्यंश्चापि ते तानि बिसानि पुरुषर्षभाः।। | 13-142-52a 13-142-52b |
ऋषय ऊचुः। | 13-142-53x |
केन क्षुधाभिभूतानामस्माकं पापकर्मणाम्। नृशंसेनापनीतानि बिसान्याहारकाङ्क्षिणाम्।। | 13-142-53a 13-142-53b |
भीष्म उवाच। | 13-142-54x |
ते शङ्कमानास्त्वन्योन्यं पप्रच्छुर्द्विजसत्तमाः। त ऊचुः शपथं सर्वे कुर्म इत्यरिकर्शन।। | 13-142-54a 13-142-54b |
त उक्त्वा बाढमित्येव सर्व एव तदा समम्। क्षुधार्ताः सुपरिश्रान्ताः शपथायोपचक्रमुः।। | 13-142-55a 13-142-55b |
अत्रिरुवाच। | 13-142-56x |
स गां स्पृशतु पादेन सूर्यं च प्रतिमेहतु। अध्यायेष्वधीयीत बिसस्तैन्यं करोति यः।। | 13-142-56a 13-142-56b |
वसिष्ठ उवाच। | 13-142-57x |
अनध्याये पठेल्लोके शुनः स परिकर्षतु। परिव्राट् कामवृत्तिस्तु बिसस्तैन्यं करोति यः।। | 13-142-57a 13-142-57b |
शरणागतं हन्तु मित्रं स्वसुतां चोपजीवतु। अर्थान्काङ्क्षतु कीनाशाद्बिसस्तैन्यं करोति यः।। | 13-142-58a 13-142-58b |
कश्यप उवाच। | 13-142-59x |
विष्णुं ब्रह्मण्यदेवेशं देवदेवं जगद्गुरुम्। आधातारं विधातारं सन्धातारं जगद्गुरुम्। विहाय स भजत्वन्यं बिसस्तैन्यं करोति यः।। | 13-142-59a 13-142-59b 13-142-59c |
सर्वत्र सर्वं लपतु न्यासलोपं करोतु च। कूटसाक्षित्वमभ्येतु बिसस्तैन्यं करोति यः।। | 13-142-60a 13-142-60b |
वृथा मांसाशनश्चास्तु वृथा दानं करोतु च। यातु स्त्रियं दिवा चैव बिसस्तैन्यं करोति यः।। | 13-142-61a 13-142-61b |
भरद्वाज उवाच। | 13-142-62x |
नृशंसस्त्यक्तधर्माऽस्तु स्त्रीषु ज्ञातिषु गोषु च। ब्राह्मणं चापि जयतां बिसस्तैन्यं करोति यः।। | 13-142-62a 13-142-62b |
उपाध्यायमधः कृत्वा ऋचोऽध्येतु यजूंषि च। जुहोतु च स कक्षाग्नौ बिसस्तैन्यं करोति यः।। | 13-142-63a 13-142-63b |
जमदग्निरुवाच। | 13-142-64x |
पुरीषमुत्सृजत्वप्सु हन्तु गां चैव द्रुह्यत्। अनृतौ मैथुनं यातु बिसस्तैन्यं करोति यः।। | 13-142-64a 13-142-64b |
द्वेष्यो भार्योपजीवी स्याद्दुरबन्धुश्च वैरवान्। अन्योन्यस्यातिथिश्चास्तु बिसस्तैन्यं करोति यः।। | 13-142-65a 13-142-65b |
गौतम उवाच। | 13-142-66x |
अधीत्य वेदांस्त्यजतु त्रीनग्नीनपविध्यतु। विक्रीणातु तथा सोमं बिसस्तैन्यं करोति यः।। | 13-142-66a 13-142-66b |
उदपानोदके ग्रामे ब्राह्मणो वृषलीपतिः। तस्य सालोक्यतां यातु बिसस्तैन्यं करोति यः।। | 13-142-67a 13-142-67b |
विश्वामित्र उवाच। | 13-142-68x |
जीवतो वै गुरून्भृत्यान्भरन्त्वस्य परे जनाः। दरिद्रो बहुपुत्रः स्याद्बिसस्तैन्यं करोति यः।। | 13-142-68a 13-142-68b |
अशुचिर्ब्रह्मकूटोऽस्तु मिथ्या चैवाप्यहङ्कृतः। कर्षको मत्सरी चास्तु बिसस्तैन्यं करोति यः।। | 13-142-69a 13-142-69b |
हर्षं करोतु भृतको राज्ञश्वास्तु पुरोहितः। अयाज्यस्य भवेदृत्विक् बिसस्तैन्यं करोति यः | 13-142-70a 13-142-70b |
अरुन्धत्युवाच। | 13-142-71x |
नित्यं परिभवेच्छ्वश्रूं भर्तुर्भवतु दुर्मनाः। एका स्वादु समश्नातु बिसस्तैन्यं करोति या।। | 13-142-71a 13-142-71b |
ज्ञातीनां गृहमध्यस्था सक्तूनत्तु दिनक्षये। अभोग्या वीरसूरस्तु बिसस्तैन्यं करोति या।। | 13-142-72a 13-142-72b |
गण्डोवाच। | 13-142-73x |
अनृतं भाषतु सदा बन्धुभिश्च विरुध्यतु। ददातु कन्यां शुल्केन बिसस्तैन्यं करोति या।। | 13-142-73a 13-142-73b |
साधयित्वा स्वयं प्राशेद्दास्ये जीर्यतु चैव ह। विकर्मणा प्रमीयेत बिसस्तैन्यं करोति या।। | 13-142-74a 13-142-74b |
पशुसख उवाच। | 13-142-75x |
दास एव प्रजायेतामप्रसूतिरकिञ्चन। दैवतेष्वनमस्कारो बिसस्तैन्यं करोति यः।। | 13-142-75a 13-142-75b |
शुनःसख उवाच। | 13-142-76x |
अध्वर्यवे दुहितरं वा ददातु च्छन्दोगे वाऽऽचरितब्रह्मचर्ये। आथर्वणं वेदमधीत्य विप्रः स्नायीत वा यो हरते बिसानि।। | 13-142-76a 13-142-76b 13-142-76c 13-142-76d |
ऋषय ऊचुः। | 13-142-77x |
इष्टमेतद्द्विजातीनां योऽयं ते शपथः कृतः। त्वया कृतं बिसस्तैन्यं सर्वेषां नः शुनःसख।। | 13-142-77a 13-142-77b |
शुनःसख उवाच। | 13-142-78x |
न्यस्तमद्यं न पश्यद्भिर्यदुक्तं कृतकर्मभिः। सत्यमेतन्न मिथ्यैतद्बिसस्तैन्यं कृतं मया।। | 13-142-78a 13-142-78b |
मया ह्यन्तर्हितानीह बिसानीमानि पश्यत। परीक्षार्थं भगवतां कृतमेवं मयाऽनघाः।। | 13-142-79a 13-142-79b |
रक्षणार्थं च सर्वेषां भवतामहमागतः। यातुधानी ह्यतिक्रूरा कृत्यैषा वो वधैषिणी।। | 13-142-80a 13-142-80b |
वृषादर्भिप्रयुक्तैषा निहता मे तपोधनाः। दुष्टा हिंस्यादियं पापा युष्मान्प्रत्यग्निसम्भवा।। | 13-142-81a 13-142-81b |
तस्मादस्म्यागतो विप्रा वासवं मां निबोधत। अलोभादक्षया लोकाः प्राप्ता वः सार्वकामिकाः। उत्तिष्ठध्वमितः क्षिप्रं तानवाप्नुत वै द्विजाः।। | 13-142-82a 13-142-82b 13-142-82c |
भीष्म उवाच। | 13-142-83x |
ततो महर्षयः प्रीतास्तथेत्युक्त्वा पुरन्दरम्। सहैव त्रिदशेन्द्रेण सर्वे जग्मुस्त्रिविष्टपम्।। | 13-142-83a 13-142-83b |
एवमेते महात्मानो योगैर्बहुविधैरपि। क्षुधा परमया युक्ताश्छन्द्यमाना महात्मभिः। नैव लोभं तदा यक्रुस्ततः स्वर्गमवाप्नुवन्।। | 13-142-84a 13-142-84b 13-142-84c |
तस्मात्सर्वास्ववस्थासु नरो लोभं विवर्जयेत्। एष धर्मः परो राजंस्तस्माल्लोभं विवर्जयेत्।। | 13-142-85a 13-142-85b |
इदं नरः सुचरितं समवायेषु कीर्तयन्। अर्थभागी च भवति न च दुर्गाण्यवाप्नुते।। | 13-142-86a 13-142-86b |
प्रीयन्ते पितरश्चास्य ऋषयो देवतास्तथा। यशोधर्मार्थभागी च भवति प्रेत्य मानवः।। | 13-142-87a 13-142-87b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि द्विचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 142 ।। |
13-142-2 परिव्राजं शुना सहेति झ.पाठः।। 13-142-4 तेन पीवान्शुना सहेति झ.पाठः।। 13-142-9 भार्यापवादः कृत्तिकास्वभिशापात्।। 13-142-10 त्रिकौशेयं कुशा रज्जुस्तया निर्वृत्तं काशेयं पाटितसन्धानम्। त्रीणि कौशेयानि यस्मिन्। राङ्कवं रङ्कोर्मृगावेशेषस्य चर्म तदपि त्रिवर्षीयमतिजीर्णम्।। 13-142-12 परिचर्यां करिष्यामि कुर्वित्यन्योन्यमुक्त्वेत्यर्थः।। 13-142-13 एकरूप एव निश्चयः कार्यं च येषां ते।। 13-142-16 उपतीर्थमवतरणमार्गः।। 13-142-24 नामार्थद्वारा सामर्थ्यं ज्ञात्वा अस्माकं वधैषिणीयमिति विज्ञायेत्यर्थः।। 13-142-25 अरात्त्रिः अरयः कामादयः सन्त्यस्मिन्नित्यरं पापं अर्शआदिभ्योऽजित्यच्। तस्मात्त्रायत इत्यरात्त्रिः। अरशब्दादलुप्तपञ्चमीकात् परस्य त्रायतेरुपरि क्विप्प्रत्ययः। यस्मादरात्रिस्तस्मादत्रिः। अत्तीत्यद् मृत्युस्तस्मात्त्रायत इत्यत्रिः। मृत्युशब्दस्य पाप्मनि प्रयोगदर्शनात्।। 13-142-26 मयि नाम महामुने इति झ.पाठः।। 13-142-27 वायुश्च पृथिवी चेति श्रुतिप्रसिद्धा वाय्वादयो वसवस्ते यस्य स्वाधीना भवन्ति स वसुमान्प्राप्ताणिमाद्यैश्वर्यो महायोगी। अतिशयेन वसुमानिति वसिष्ठस्तादृशोऽहमस्ति। वसुमच्छब्दादिष्ठन्प्रत्यये परे मतुब्लोपे टिलोपे च वसिष्ठः। वासगृहेषु वासयोग्येषु गृहस्थाश्रमेषु सर्वेषामुपजीव्येषु वसे वसामि अतोऽहं वस्तॄणां मध्ये अतिश्रेष्ठ इति वसिष्ठोऽस्मि।। 13-142-29 कशा अश्वताडनरज्जुस्तामर्हन्ति ते कश्या अश्वाः। इन्द्रियाण्येवाश्वाः कश्यास्तदाश्रयत्वाच्छरीराण्यपि कश्यानि। कुलङ्कुलमिति वीप्सायां द्विर्वचनम्। सर्वशरीरेष्वहमेवैकः कश्यपो नाम द्विजोऽस्मि। कश्यानि शरीराणि पाति रक्षति पिबति भुङ्क्ते पाययति योषयति वा कश्यप इति योगात्। कुवमः कुवम इति। कुः पृथवीं तस्यां वमति वर्षतीति कुवम आदित्यः पूर्ववद्द्विवचनम्। सर्वोप्यादित्योऽहमेव। मत्पुत्रत्वात्सर्वेषामादित्यानामित्यर्थः। काश्यो दीप्तिमान्। तत्र हेतुः। काशनिकाशत्वात् बहुकालीनत्वेन काशपुष्पसदृशः सर्वतः पलितश्चिरन्तनस्तपसा दीप्तोऽस्मीस्तर्थः। कुलं कुलं च कुशलः कुपयः काश्यपो द्विजः। काश्यपः काशनीकाश एतन्मे नाम धारयेति क.ड.थ.पाठः।। 13-142-31 प्रजा वै वाजस्ता एष बिभर्तीति श्रुत्यनुसारेण स्वनामाह भरे इति। असुतान् अपुत्रानुदासीनानपि दीनानदीनान्पालयामि। भरे सुतान्भरे शिष्यानिति झ.पाठः।। 13-142-33 गोपदार्थं स्वर्गं भूमिं च दमयति वशीकरोतीति गोदमः। तत्र हेतुः दमत इति। दमेन इन्द्रियजयेन दमयतीति जितेन्द्रियत्वात् गां द्यां च दमितुं शक्तोस्मीत्यर्थः। अधूमः निर्धूमाग्नितुल्यः। अत एवादमः अन्येन दमितुमयोग्यः तत्र हेतुः। ते त्वयि। समदर्शनात्समस्य ब्रह्मणो दर्शनात् ब्रह्मज्ञानित्वादित्यर्थः। अत्र दकारस्थाने तकारः। गौतमो दमगोधूमो धूमो दुर्दर्शनश्च ते इति थ.ध.पाठः।। 13-142-35 मित्रे चर्षौ इति विश्वपदान्तस्य दीर्घः। गवां इन्द्रियाणाम्।। 13-142-37 जजामाद्यं जजामायं जजामाहं जजायुषीति क.थ.ध.पाठः। भूयोभूयोऽतिशयेन जमन्ति युगपदनेकेषु यज्ञादिष्वनेकवारं पुनःपुनर्भक्षयन्ति हवींषि ते जाजमन्तो देवाः। `जमु भक्षणे' यङ्लुकि शत्रन्तस्य रूपम्। इज्यन्ते देवता अस्मिन्निति यजोऽग्निः तेषां जान आविर्भावस्तस्मिन जिजायिषि जातोऽस्मि इहलोके अतो मां जिजाहि जानीहि। ततो योगात् मां जमदग्निरिति नामतो विद्धि। जाजमदित्यत्राद्यपदे प्रथमाक्षरलोपे द्वितीयस्याग्नित्वे जमदग्निरिति सिद्धम्। ततो जाजमन्तोऽग्निश्चास्मिन् सन्तीति जमदग्निमान्। ततो मतुब्लोपेन जमदग्निरिति पदम्। एतेनापि स्वस्याधर्षणीयत्वमुक्तम्।। 13-142-39 धरान्पर्वतान्। धरित्रीं भुवम्। वसून्देवान्धत्ते इति व्युत्पत्त्या वसुधां दिवं च तिष्ठामि अधितिष्ठामि। भर्तुर्वसिष्ठस्यानन्तरं अव्यवधानेन अनुरुन्धतीत्या नुकारलोपः। सारं धरित्रीवसुधां नेच्छे भर्तुरनन्तरम्। इति ध.पाठः। वसुधामिच्छे भर्तुरिति क.थ.पाठः।। 13-142-41 गडि वदनैकदेश इति धातोः गण्डेति नुमा सहितस्यानुकरणम्। मा माम्। वृषादर्भिणाऽग्नौ हुत्वाऽस्या उत्पादितत्वादनलसंभवत्वम्। गण्डं गतवती गण्डं गण्डा गण्डेति संज्ञिता। गण्डं गण्डेति गण्डेतीति ध.पाठः। चण्डं गतवत्प्रचण्डा चण्डाचण्डेति संज्ञिता। चण्डाचण्डेति चण्डेतीति थ.पाठः।। 13-142-43 पशून् जीवान् रञ्जामि रञ्जयामि। मां मम नामेत्यर्थः। सखे सखायौ सख्येय इति थ.पाठः। सहेऽपराधं सख्येय इति ङ.पाठः।। 13-142-45 श्वा धर्मः तत्सखायो मुनयः तेषां सखा शुनःसखसखः तम्। शुनां सदा सखायं मामिति ङ.थ. पाठः।। 13-142-47 भस्म भस्मताम्।। 13-142-51 कलापशः सङ्घशः।। 13-142-55 सर्व एव शुनस्सखमिति थ.ध.पाठः।। 13-142-57 शुनः सारमेयान्परिकर्षतु क्रीडार्थं मृगयार्थं वा। परिव्राट् कर्मवृत्तिस्त्विति थ.ध.पाठः।। 13-142-58 स्वसुतां शुल्कग्रहणेन। कीनाशात् कर्षकात्।। 13-142-60 सर्वत्र सर्वं पणतु न्यासलोभं करोतु चेति ट.थ.पाठः।। 13-142-61 वृथा यागादिनिमित्तं विना। वृथा नटनर्तकादौ।। 13-142-62 जयतां युद्धे वादे वा। मातरं चापि जहत्विति क.पाठः।। 13-142-63 कक्षाप्तौ तत्र हि हुतं भस्मीभावमप्राप्य होतुर्दोषकरमित्याशयः।। 13-142-67 निर्गुणान्बिभृयाद्भृत्यानिति क.ट.थ.पाठः।। 13-142-69 ऋद्ध्या चैवाप्यहंकृत इति झ.पाठः।। 13-142-70 वर्षाचरोस्तु भृतक इति झ.पाठः।। 13-142-72 ज्ञातीनां अनादरे षष्ठी। ज्ञातीननादृत्येत्यर्थः। अभोग्या योनिदूषिता।। 13-142-73 साधुभिश्च विरुध्यत्विति ट.थ.पाठः।। 13-142-74 साधयित्वा अन्नं पक्त्वा।। 13-142-78 अद्यं भक्ष्यम्।। 13-142-79 अन्तर्हितानि अन्तर्धानं प्रापितानि।। 13-142-85 राजन्ब्राह्मणस्य प्रकीर्तित इति क.थ.पाठः।।
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