महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-079
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति विवाहविभागकथनम्।। 1 ।। तथा कन्यानां भार्यात्वप्रापकविध्यादिनिरूपणम्।। 2 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-79-1x |
यन्मूलं सर्वधर्माणां प्रजनस्य गृहस्य च। पितृदेवातिथीनां च तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 13-79-1a 13-79-1b |
अयं हि सर्वधर्माणां धर्मश्चिन्त्यतमो मतः। कीदृशाय प्रदेया स्यात्कन्येति वसुधाधिप।। | 13-79-2a 13-79-2b |
भीष्म उवाच। | 13-79-3x |
शीलवृत्ते समाज्ञाय विद्यां योनिं च कर्म च। अद्भिरेव प्रदातव्या कन्या गुणवते भवेत्। ब्राह्मणानां सतामेष नित्यं धर्मो युधिष्ठिर।। | 13-79-3a 13-79-3b 13-79-3c |
आवाह्यमावहेदेवं यो दद्यादनुकूलतः। शिष्टानां क्षत्रियाणां च धर्म एष सनातनः।। | 13-79-4a 13-79-4d |
आत्माभिप्रेतमुत्सृज्य कन्याभिप्रेत एष यः। अभिप्रेता च या यस्य तस्मै देया युधिष्ठिर। गान्धर्वमिति तं धर्मं प्राहुर्वेदविदो जनाः।। | 13-79-5a 13-79-5b 13-79-5c |
धनेन बहुधा क्रीत्वा सम्प्रलोभ्य च बान्धवान्। असुराणां नृपैतं वै धर्ममाहुर्मनीषिणः।। | 13-79-6a 13-79-6b |
हत्वा छित्त्वा च शीर्षाणि रुदतां रुदतीं गृहात्। प्रसह्य हरणं तात राक्षसो विधिरुच्यते।। | 13-79-7a 13-79-7b |
`सुसां मत्तां प्रमत्तां वा रहो रात्रौ च गच्छति। स पापिष्ठो विवाहानां पैशाचः कथितोऽधमः।। | 13-79-8a 13-79-8b |
पञ्चानां तु त्रयो धर्म्या द्वावधर्म्यौ युधिष्ठिर। पैशाचश्चासुरश्चैव न कर्तव्यौ कथञ्चन।। | 13-79-9a 13-79-9b |
ब्राह्मः क्षात्रोऽथ गान्धर्व एते धर्म्या नरर्षभ। पृथग्वा यदि वा मिश्राः कर्तव्या नात्र संशयः।। | 13-79-10a 13-79-10b |
तिस्त्रो भार्या ब्राह्मणस्य द्वे भार्ये क्षत्रियस्य तु। वैश्यः स्वजात्यां विन्देत तास्वपत्यं हिताय हि।। | 13-79-11a 13-79-11b |
द्विजस्य ब्राह्म्णी श्रेष्ठा क्षत्रिया क्षत्रियस्य तु। रत्यर्थमपि शूद्रा स्यान्नेत्याहुरपरे जनाः।। | 13-79-12a 13-79-12b |
अपत्यजन्म शूद्रायां न प्रशंसन्ति साधवः। शूद्रायां जनयविन्प्रः प्रायश्चित्ती विधीयते।। | 13-79-13a 13-79-13b |
`नातिबालां वहन्त्यन्ते अनित्यत्वात्प्रजार्थिनः। वहन्ति कर्मिणस्तस्यामन्तः शुद्धिव्यपेक्षया।। | 13-79-14a 13-79-14b |
अपरान्वयसम्भूतां संस्वप्नादिविवर्जिताम्। कामो यस्यां निषिद्धश्च केचिदिच्छन्ति चापदि।। | 13-79-15a 13-79-15b |
त्रिंशद्वर्षो दशवर्षां भार्यां विन्देत नग्निकाम्। एकविंशतिवर्षो वा सप्तवर्षामवाप्नुयात्।। | 13-79-16a 13-79-16b |
यस्यास्तु न भवेद्भाता पिता वा भरतर्षभ। नोपयच्छेत तां जातु पुत्रिकाधर्मिणी हि सा।। | 13-79-17a 13-79-17b |
त्रीणि वर्षाण्युदीक्षेत कन्या ऋतुमती सती। चतुर्थेऽत्वथ सम्प्राप्ते स्वयं भर्तारमर्जयेत्।। | 13-79-18a 13-79-18b |
प्रजा न हीयते तस्या रतिश्च भरतर्षभ। अतोऽन्यथा वर्तमाना भवेद्वाच्या प्रजापतेः।। | 13-79-19a 13-79-19b |
असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितुः। इत्येतामुपयच्छेत तं धर्मं मनुरब्रवीत्।। | 13-79-20a 13-79-20b |
युधिष्ठिर उवाच। | 13-79-21x |
शुल्कमन्येन दत्तं स्याद्ददानीत्याह चापरः। बलादन्यः प्रभाषेत धनमन्यः प्रदर्शयेत्।। | 13-79-21a 13-79-21b |
पाणिग्रहीत्ता चान्यः स्यात्कस्य भार्या पितामह। तत्त्वं जिज्ञासमानानां चक्षुर्भवतु नो भवान्।। | 13-79-22a 13-79-22b |
भीष्म उवाच। | 13-79-23x |
यत्किञ्चित्कर्म मानुष्यं संस्थानाय प्रदृश्यते। मन्त्रवन्मन्त्रितं तस्य मृषावादस्तु पातकः।। | 13-79-23a 13-79-23b |
भार्यापत्यृत्विगाचार्याः शिष्योपाध्याय एव च। मृषोक्ते दण्डमर्हन्ति नेत्याहुरपरे जनाः।। | 13-79-24a 13-79-24b |
नह्यकामेन संवादं मनुरेवं प्रशंसति। अयशस्यमधर्म्यं च यन्मृषा धर्मगोपनम्।। | 13-79-25a 13-79-25b |
नैकान्तो दोष एकस्मिंस्तदा केनोपपद्यते। धर्मतो यां प्रयच्छन्ति यां च क्रीणन्ति भारत।। | 13-79-26a 13-79-26b |
बन्धुभिः समनुज्ञाते मन्त्रहोमौ प्रयोजयेत्। तथा सिध्यन्ति ते मन्त्रा नादत्तायाः कथञ्चन।। | 13-79-27a 13-79-27b |
यस्त्वत्र मन्इत्रसमयो भार्यापत्योर्मिथः कृतः। तमेवाहुर्गरीयांसं यश्चासौ ज्ञातिभिः कृतः।। | 13-79-28a 13-79-28b |
देवदत्तां पतिर्भार्यां वेत्ति धर्मस्य शासनात्। स दैवीं मानुषीं वाचमनृतां पर्युदस्यति।। | 13-79-29a 13-79-29b |
युधिष्ठिर उवाच। | 13-79-30x |
कन्यायां प्राप्तसुल्कायां ज्यायांश्चेदाव्रजेद्वरः। धर्मकामार्थसम्पन्नो वाच्यमत्रानृतं न वा।। | 13-79-30a 13-79-30b |
तस्मिन्नुभयतो दोषे कुर्वञ्श्रेयः समाचरेत्। अयं नः सर्वधर्माणां धर्मश्चिन्त्यतमो मतः।। | 13-79-31a 13-79-31b |
तत्त्वं जिज्ञासमानानां चक्षुर्भवतु नो भवान्। तदेतत्सर्वमाचक्ष्व न हि तृप्यामि कथ्यताम्।। | 13-79-32a 13-79-32b |
भीष्म उवाच। | 13-79-33x |
नैव निष्ठाकरं शुल्कं ज्ञात्वाऽऽसीत्तेन नानृतम्। न हि शुल्कपराः सन्तः कन्यां ददति कर्हिचित्। अन्यैर्गुणैरुपेतं तु शुल्कं याचन्ति बान्धवाः।। | 13-79-33a 13-79-33b 13-79-33c |
अलङ्कृत्वा वहस्वेति यो दद्यादनुकूलतः। यच्च तां च ददत्येवं न शुल्कं विक्रयो न सः। प्रतिगृह्य भवेद्देमेव धर्मः सनातनः।। | 13-79-34a 13-79-34b 13-79-34c |
दास्यामि भवते कन्यामिति पूर्वं नभाषितम्। ये चाहुर्ये च नाहुर्ये ये चावश्यं वदन्त्युत।। | 13-79-35a 13-79-35b |
तस्मादाग्रहणात्पाणेर्याचयन्ति परस्परम्। कन्यावरः पुरा दत्तो मरुद्भिरिति नः श्रुतम्।। | 13-79-36a 13-79-36b |
नानिष्टाय प्रदातव्या कन्या इत्यृषिचोदितम्। तन्मूलं काममूलस्य प्रजनस्येति मे मतिः।। | 13-79-37a 13-79-37b |
समीक्ष्य च बहून्दोषान्संवासाद्विद्धि पाणयोः। यथा निष्ठाकरं शुल्कं न जात्वासीत्तथा शृणु।। | 13-79-38a 13-79-38b |
अहं विचित्रवीर्यस्य द्वे कन्ये समुदावहम्। जित्वाऽङ्गमागधान्सर्वान्काशीनथ च कोसलान्।। | 13-79-39a 13-79-39b |
गृहीतपाणिरेकाऽऽसीत्प्राप्तशुल्काऽपराऽभवत्। कन्याऽगृहीता तत्रैव विसर्ज्या इति मे पिता। अब्रवीदितरां कन्यामावहेति स कौरवः।। | 13-79-40a 13-79-40b 13-79-40c |
अप्यन्याननुपप्रच्छ शङ्कमानः पितुर्वचः। अतीव ह्यस्य धर्मेच्छा पितुर्मेऽभ्यधिकाऽभवत्।। | 13-79-41a 13-79-41b |
ततोहमब्रवं राजन्नाचारेप्सुरिदं वचः। आचारं तत्त्वतो वेत्तुमिच्छामि च पुनःपुनः।। | 13-79-42a 13-79-42b |
ततो मयैवमुक्ते तु वाक्ये धर्मभृतावरः।। पिता मम महाराज बीह्लीको वाक्यमब्रवीत्।। | 13-79-43a 13-79-43b |
यदि व शुल्कतो निष्ठा न पाणिग्रहणात्तथा। लाजान्तरमुपासीत प्राप्तशुल्क इति स्मृतिः।। | 13-79-44a 13-79-44b |
न हि धर्मविदः प्राहुः प्रमाणं वाक्यतः स्मृतम्। येषां वै शुल्कतो निष्ठा न पाणिग्रहणात्तथा।। | 13-79-45a 13-79-45b |
प्रसिद्धं भाषितं दाने नैषां प्रत्यायकं पुनः। ये मन्यन्ते क्रयं शुल्कं न ते धर्मविदो नराः।। | 13-79-46a 13-79-46b |
न चैतेभ्यः प्रदातव्या न वोढव्या तथाविधा। न ह्येव भार्या क्रेतव्या न विक्रय्यां कथञ्चन।। | 13-79-47a 13-79-47b |
ये च क्रीणन्ति दासीवद्विक्रीणन्ति तथैव च। भवेत्तेषां तथा निष्ठा लुब्धानां पापचेतसाम्।। | 13-79-48a 13-79-48b |
अस्मिन्नर्थे सत्यवन्तं पर्यपृच्छन्त वै जनाः। कन्यायाः प्राप्तशुल्कायाः शुल्कदः प्रशमं गतः।। | 13-79-49a 13-79-49b |
पाणिग्रहीता वाऽन्यः स्यादत्र नो धर्मसंशयः। तन्नश्छिन्धि महाप्राज्ञ त्वं हि वै प्राज्ञसम्मतः।। | 13-79-50a 13-79-50b |
तत्त्वं जिज्ञासमानानां चक्षुर्भवतु नो भवान्। तानेवं ब्रुवतः सर्वान्सत्यवान्वाक्यमब्रवीत्।। | 13-79-51a 13-79-51b |
यत्रेष्टं तत्र देया स्यान्नात्र कार्या विचारणा। कुर्वते जीवतोप्येवं मृते नैवास्ति संशयः।। | 13-79-52a 13-79-52b |
देवरं प्रविशेत्कन्या तप्येद्वाऽपि तपः पुनः। तमेवानुगता भूत्वा पाणिग्राहस्य नाम सा।। | 13-79-53a 13-79-53b |
लिखन्त्येव तु केषांचिदपरेषां शनैरपि। इति ये संवदन्त्यत्र त एतं निश्चयं विदुः।। | 13-79-54a 13-79-54b |
तत्पाणिग्रहणात्पूर्वमन्तरं यत्र वर्तते। सर्वमङ्गलमन्त्रं वै मृषावादस्तु पातकः।। | 13-79-55a 13-79-55b |
पाणिग्रहणमन्त्राणां निष्ठा स्यात्सप्तमे पदे। पाणिग्रहस्य भार्या स्याद्यस्य चाद्भिः प्रदीयते।। | 13-79-56a 13-79-56b |
इति देयं वदन्त्यत्र त एतं निश्चयं विदुः। अनुकूलामनुवशां भ्रात्रा दत्तामुपाग्निकाम्। परिक्रम्य यथान्यायं भार्यां विन्देद्द्विजोत्तमः।। | 13-79-57a 13-79-57b 13-79-57c |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि एकोनाशीतितमोऽध्यायः।। |
13-79-3 योनि मातृतः पितृतश्च शुद्धिम्। अयं ब्राह्माः प्रथमो विवाहः।। 13-79-4 एवं उक्तगुणवन्तं आवाह्यं विवाहयोग्यं आवहेत् आकारयेत्। ततश्च अनुकूलतो धनदानादिना अभिमुखीकृताय दद्यात्। अयं प्राजापत्यो नाम द्वितीयो विप्राणां क्षत्रियाणां च प्रशस्ततरः।। 13-79-6 आसुरं चतुर्थमाह धनेनेति।। 13-79-7 हत्वेति राक्षसः पञ्चमः। अत्रैव प्रमत्तानां बन्धूनां कन्याहरणात् पैशाचो हरणसामान्यादन्तर्भवति।। 13-79-13 नग्निकां एकवाससम्। अजातस्त्रीव्यञ्जनामिति यावत्।। 13-79-17 पुत्रिकाधर्मिणी यस्याः पिता इयमेव दुहिता मम पुत्रस्थाने इत्यभिप्रायवान्न वेति न ज्ञायते सा।। 13-79-19 वाच्या निद्या। प्रजनो हीयते इति ध. पाठः।। 13-79-23 संस्थानाय व्यवस्थार्थं मन्त्रवन्मन्त्रितं विचारवद्भिः सर्वैरेकीभूय मन्त्रितमियमस्मै देयेति विचारितम्। तस्य गृषाकरणं पातकः पातयितुं भवतीत्यर्थः। मृषावादस्त्वपातकमिति थ. ध. पाठः।। 13-79-25 तत्र नेति पक्षं निन्दति नहीति।। 13-79-28 यद्यपि ज्ञातिभिः कृतः समयो गुरुस्तथापि मन्त्रपूर्वकः समयो गुरुतर इत्यर्थः।। 13-79-29 देवः प्राक्कर्म ईश्वरो वा। वेत्ति लभते।। 13-79-31 दोषे सति कुर्वन् कर्ता श्रेयः प्रशस्ततरं किं समाचरेदित्यध्याहृत्य योज्यम् ।। 13-79-32 कथ्यतामित्यादरसूचनार्था पुनरुक्तिः।। 13-79-33 गुणैर्वयोधिकत्वादिभिः।। 13-79-34 कन्यार्तालङ्कारग्रहणे न दोषोऽस्तीत्याह अलङ्कृत्वेति।। 13-79-35 नभाषितमित्येकपदम्। ये पूर्वं दास्यामीत्याहुर्ये च नदास्यामीत्याहुर्ये च अवश्यं दास्यामीति वदन्ति तत्सर्वं नभाषितं अनुक्तवदेवेत्यर्थः।। 13-79-36 यस्मादेवं तस्मात् आपाणिग्रहणात्कन्यां याचेतेति मरुतां वरस्तेन ततः पूर्वं विशिष्टवरार्थमपहारेपि न दोष इति भावः।। 13-79-37 तत्कन्या कामो मूलं यस्य। तस्मादुत्तमदौहित्रार्थिना श्रेयसे एव कन्या प्रदेयेति भावः।। 13-79-38 संवासाच्चिरपरिचयात्। पाणयोः क्रयविक्रययोः संवादे विद्विषाणयोरिति ध.पाठः।। 13-79-39 वीर्यमपि शुल्कं भवतीत्यभिप्रायेणाह अहमिति। अम्बिकाम्बालिकयोरेकत्वविवक्षयां द्वे इत्युक्तम्।। 13-79-40 प्राप्तशुल्का वीर्येण निर्जितापि कन्या अगृहीता अप्राप्तपाणिग्रहेयं अम्बा विसर्ज्या उत्स्रष्टं योग्या इति पिता पितृव्यो बाह्लीकोऽब्रवीत्।। 13-79-41 अनुपप्रच्छ अनुपृष्टवानहम्।। 13-79-44 प्राप्तं शुल्कं येन। पाठान्तरे यस्याः सा। कन्यापिता कन्या वा लाजान्तरं वरान्तरमुपासीत इति या स्मृतिस्तर्हि बाध्येतेत्यध्याहृत्य योजना। लाजा विद्यन्ते ह्यौम्यद्रव्यमस्य स इति लाजशब्दोऽर्शआद्यच्प्रत्ययान्तः। लाजोप्तारमुपासीतेति थ.ध.पाठः।। 13-79-45 येषां शुल्कतो निष्ठा तेषां वाक्यतो वाक्यं प्रमाणं स्मृतमिति धर्मविदो नह्याहुरित्यन्वयः 13-79-46 लोकविरोधमप्याहार्धेन। प्रसिद्धमिति कन्याया दानमित्येवोच्यते नतु क्रयो जयो वेति। एषां शुल्कवादिनां प्रत्यायकं भार्यात्वज्ञापकं किमपि नास्ति। परिणयनादेव भार्या भवति न शुल्कमात्रादिति लोकव्यवहारस्य स्पष्टत्वादित्यर्थः।। 13-79-52 जीवत इत्यनादरे षष्ठी। जीवन्तमपि शुल्कदमनादृत्य शिष्टा एवं यथेष्टदानं कुर्वत इत्यर्थः।। 13-79-53 देवरमिति युगान्तरधर्मः।। 13-79-54 केषांचिन्मते देवरादयः अलिखितां भ्रातृभार्या लिखन्त्येव सुरतेन योजयन्त्येव। अपरेषां मते शनैक्मन्थरा इयं प्रवृत्तिः। ऐच्छिकी नतु वैधीत्यर्थः।। 13-79-55 सङ्कल्पपूर्वकं दत्ताया अपि कन्याया योऽपहारस्तज्जन्यो मृषावादः पातको भवति दातुर्नतु तावन्मात्रेण तस्यां भार्यात्वमुत्पन्नमित्यर्थः।।
अनुशासनपर्व-078 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-080 |