महाभारतम्-12-शांतिपर्व-007
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युधिष्ठिरस्य परिशोचनम्।। 1।।
वैशंपायन उवाच। | 12-7-1x |
युधिष्ठिरस्तु धर्मात्मा शोकव्याकुलचेतनः। शुशोच दुःखसंतप्तः स्मृत्वा कर्णं महारथम्।। | 12-7-1a 12-7-1b |
आविष्टो दुःखशोकाभ्यां निःश्वसंश्च पुनः पुनः। दृष्ट्वार्जुनमुवाचेदं वचनं शोककर्शितः।। | 12-7-2a 12-7-2b |
युधिष्ठिर उवाच। | 12-7-3x |
यद्भैक्ष्यमाचरिष्याम वृष्ण्यन्धकपुरे वयम्। ज्ञातीन्निष्पुरुषान्कृत्वा नेमां प्राप्स्याम दुर्गतिम्।। | 12-7-3a 12-7-3b |
अमित्रा नः समृद्धार्था वृत्तार्थाः कुरवः किल। आत्मानमात्मना हत्वा किं धर्मफलमाप्नुमः।। | 12-7-4a 12-7-4b |
धिगस्तु क्षात्रमाचारं धिगस्तु बलमौरसम्। धिगस्तु चार्थं येनेमामापदं गमिता वयम्।। | 12-7-5a 12-7-5b |
साधु क्षमा दमः शौचमविरोधो विमत्सरः। अहिंसा सत्यवचनं नित्यानि वनचारिणाम्।। | 12-7-6a 12-7-6b |
वयं तु लोभान्मोहाच्च दम्भं मानं च संश्रिताः। इमामवस्थां संप्राप्ता राज्यक्लेशबुभुक्षया।। | 12-7-7a 12-7-7b |
त्रैलोक्यस्यापि राज्येन नास्मान्कश्चित्प्रहर्षयेत्। बान्धवान्निहतान्दृष्ट्वा पृथिव्यामामिषैषिणः।। | 12-7-8a 12-7-8b |
ते वयं पृथिवीहेतोरवध्यान्पृथिवीतले। संपरित्यज्य जीवामो हीनार्था हतबान्धवाः।। | 12-7-9a 12-7-9b |
आमिषे गृध्यमानानामशुभं वै शुनामिव। आमिषं चैव नो नष्टमामिषस्य च भोजिनाम्।। | 12-7-10a 12-7-10b |
न पृथिव्या सकलया न सुवर्णस्य राशिभिः। न गजाश्वेन सर्वेण ते त्याज्या य इमे हताः।। | 12-7-11a 12-7-11b |
काममन्युपरीतास्ते क्रोधामर्षसमन्विताः। मृत्युयानं समारुह्य गता वैवस्वतक्षयम्।। | 12-7-12a 12-7-12b |
बहुकल्याणमिच्छन्त ईहन्ते पितरः सुतान्। तपसा ब्रह्मचर्येण वन्दनेन तितिक्षया।। | 12-7-13a 12-7-13b |
उपवासैस्तथेज्याभिर्व्रतकौतुकमङ्गलैः। लभन्ते मातरो गर्भांस्तान्मासान्दश बिभ्रति।। | 12-7-14a 12-7-14b |
यदि स्वस्ति प्रजायन्ते जाता जीवन्ति वा यदि। संभाघिता जातबला विदध्युर्यदि नः सुखम्। इह चामुत्र चैवेति कृपणाः फलहेतवः।। | 12-7-15a 12-7-15b 12-7-15c |
तासामयं समुद्योगो निर्वृत्तः केवलोऽफलः। यदासां निहताः पुत्रा युवानो मृष्टकुण्डलाः।। | 12-7-16a 12-7-16b |
अभुक्त्वा पार्थिवान्भोगानृणान्यनपहाय च। पितृभ्यो देवताभ्यश्च गता वैयस्वतक्षयम्।। | 12-7-17a 12-7-17b |
यदैषामम्ब पितरौ जातकर्मकराविह। संजातबालरूपेषु तदैव निहता नृषाः।। | 12-7-18a 12-7-18b |
संयुक्ताः काममन्युभ्यां क्रोधामर्षसमन्विताः। न ते जयफलं किंचिद्भोक्तारो जातु कर्हिचित्।। | 12-7-19a 12-7-19b |
पाञ्चालानां कुरूणां च हता एव हि ये हताः। न सकामा वयं ते च न चास्माभिर्न तैर्जितम्।। | 12-7-20a 12-7-20b |
न तैर्भुक्तेयमवनिर्न नार्यो गीतवादितम्। नामात्यसुहृदां वाक्यं न च श्रुतवतां श्रुतम्। न रत्नानि परार्ध्यानि न भूर्न द्रविणागमः।। | 12-7-21a 12-7-21b 12-7-21c |
न च धर्म्यानिमाँल्लोकान्प्रपद्याम स्वकर्मभिः। वयमेवास्य लोकस्य विनाशे कारणं स्मृताः। धृतराष्ट्रस्य पुत्रेण निकृतिप्रीतिसंयुताः।। | 12-7-22a 12-7-22b 12-7-22c |
सदैव निकृतिप्रज्ञो द्वेष्टा विद्वेषजीवनः। मिथ्यावृत्तश्च सततमस्मास्वनपराधिषु।। | 12-7-23a 12-7-23b |
ऋद्धिमस्मासु तां दृष्ट्वा विवर्णो हरिणः कृशः। धृतराष्ट्रश्च नृपतिः सौबलेन निवेदितः।। | 12-7-24a 12-7-24b |
तं पिता पुत्रगृध्नुत्वादनुमेनेऽनये स्थितम्। अनपेक्ष्यैव पितरं गाङ्गेयं विदुरं तथा।। | 12-7-25a 12-7-25b |
असंशयं त्वयं राजा यथैवाहं तथा गतः। अनियम्याशुचिं लुब्धं पुत्रं कामवशानुगम्।। | 12-7-26a 12-7-26b |
यशसः पतितो दीप्ताद्धातयित्वा सहोदरान्। इमौ हि वृद्धौ शोकाग्नौ प्रक्षिप्य स सुयोधनः। अस्मत्प्रद्वेषसंतप्तः पापबुद्धिः सदैव ह।। | 12-7-27a 12-7-27b 12-7-27c |
को हि बन्धुः कुलीनः संस्तथा ब्रूयात्सुहृज्जने। यथाऽसाववदद्वाक्यं युयुत्सुः कृष्णसन्निधौ।। | 12-7-28a 12-7-28b |
आत्मनो हि वयं दोषाद्विनष्टाः शाश्वतीः समाः। प्रदहन्तो दिशः सर्वा भास्वरा इव तेजसा।। | 12-7-29a 12-7-29b |
सोऽस्माकं वैरपुरुषो दुर्मतिः प्रग्रहं गतः। दुर्योधनकृते ह्येतत्कुलं नो विनिपातितम्।। | 12-7-30a 12-7-30b |
अवध्यानां वधं कृत्वा लोके प्राप्ताः स्म वाच्यतां ।। | 12-7-31a |
कुलस्यास्यान्तकरणं दुर्मतिं पापपूरुषम्। राजा राष्ट्रेश्वरं कृत्वा धृतराष्ट्रोऽद्य शोचति।। | 12-7-32a 12-7-32b |
हताः शूराः कृतं पापं विषयोऽसौ विनाशितः। हत्वा नो विगतो मन्युः शोको मां दारयत्ययम्।। | 12-7-33a 12-7-33b |
धनञ्जय कृतं पापं कल्याणेनोपहन्यते। [ख्यापनेनानुतापेन दानेन तपसाऽपि वा। निवृत्त्या तीर्थगमनाच्छुतिस्मृतिजपेन वा।।] | 12-7-34a 12-7-34b 12-7-34c |
त्यागवांश्च पुनः पापं नालं कर्तुमिति श्रुतिः। त्यागवाञ्जन्ममरणे नाप्नोतीति श्रुतिर्यतः। प्राप्तवर्त्मा कृतमतिर्ब्रह्म संपद्यते तदा।। | 12-7-35a 12-7-35b 12-7-35c |
स धनञ्जय निर्द्वन्द्वो मुनिर्ज्ञानसमन्वितः। वनमामन्त्र्य वः सर्वान्गमिष्यामि परंतप।। | 12-7-36a 12-7-36b |
न हि कृत्स्नतमो धर्मः शक्यः प्राप्तुमिति श्रुतिः। परिग्रहवता तन्मे प्रत्यक्षमरिसूदन।। | 12-7-37a 12-7-37b |
मया निसृष्टं पापं हि परिग्रहमभीप्सता। जन्मक्षयनिमित्तं च प्राप्तुं शक्यमिति श्रुतिः।। | 12-7-38a 12-7-38b |
स परिग्रहमुत्सृज्य कृत्स्नं राज्यं सुखानि च। गमिष्यामि विनिर्मुक्तो विशोको निर्ममः क्वचित्। प्रशासध्वमिमामुर्वी क्षेमां निहतकण्टकाम्। न ममार्थोऽस्ति राज्येन भोगैर्वा कुरुनन्दन।। | 12-7-39a 12-7-39b 12-7-39c 12-7-39d |
एतावदुक्त्वा वचनं कुरुराजो युधिष्ठिरः। उपारमत्ततः पार्थः कनीयान्प्रत्यभाषत।। | 12-7-40a 12-7-40b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि सप्तमोऽध्यायः।। 7।। |
12-7-2 दुःखं देहेन्द्रियादीनां तापः। शोकस्तत्कृतं वैकल्यम्।। 12-7-3 यद्यदि भैक्ष्यमाचीर्णं स्यात्तर्हि ज्ञातिवधाज्जाता दुर्गतिर्न प्राप्ता स्यादित्यर्थः। लिङ्निमित्ते लृङ्क्रियातिपत्तौ।। 12-7-8 पृथिव्यां विजयैषिण इति झ. पाठः।। 12-7-10 अमिषे गृध्यमानानामशुभं वै शुनामिव। आमिषं चैव नोहीष्टमामिषस्य विवर्जनमिति झ. पाठः। तत्र आमिषे राज्यनिमित्ते। अशुभं ज्ञातिद्रोहाख्यम्। शुनामिवेतरेषां भवति नो ह्यस्माकं त्वामिषं चाऽऽमिषस्य विवर्जनं चेति द्वयमपीष्टमित्यर्थः।। 12-7-11 बन्धूनामर्थे सर्वं त्याज्यमित्यर्थः।। 12-7-14 व्रतानि गौरीव्रतादीनि। कौतुकानि दुर्गोत्सवादीनि। मङ्गलानि लक्ष्मीनारायणशिलादीनि तैः।। 12-7-16 यदा संनिहिताः पुत्रा इति थ. द. पाठः।। 12-7-17 अनपहाय अपरिहृत्य। अनवदायेति पाठे अपरिशोध्य। पितृभ्य इति षष्ठ्यर्थे चतुर्थी।। 12-7-18 अर्जुनेन सह वदन्नपि सन्निहितां मातरं सम्बोधयति हे अम्बेति। पितरौ मातापितरौ गान्धारीधृतराष्ट्रौ यदैव जातकर्मकरौ तदैव ते नृपा दुर्योधनप्रभृतयो हताः।। 12-7-19 न ते जन्मफलं किंचिदिति द. पाठः।। 12-7-21 श्रुतवतां पण्डितानाम्। रत्नानीत्यादौ भुक्तानीत्यादिर्यथालिङ्गं शेषः। नामात्यसमितौ कथ्यं इति ट. ड. थ. पाठः।। 12-7-24 हरिणः पाण्डुरः। धृतराष्ट्रस्य नृपतेरिति ड.थ. द. पाठः।। 12-7-27 पापबुद्धिः सुहृज्जनैरिति ट. ड. थ. पाठः।। 12-7-29 भास्करस्येव तेजसेति ट. ड. थ. पाठः।। 12-7-30 प्रग्रहं दृढबन्धनम्। गतः प्राप्तः। नोऽत्माभिः।। 12-7-33 विषयः आपिषम्। नोऽस्माकम्। तान्हत्वा विगतः।। 12-7-34 कल्याणेनोपकारेण। निवृत्त्या त्यागेन।। 12-7-35 श्रुतिस्त्यागेनैके अमृतत्वमानशुरिति। प्राप्तवर्त्मा लब्धयोगमार्गः। त्यागे यदा कृतमतिरिति ट. ड. द. पाठः।। 12-7-37 नहि कश्चिद्गृहे धर्म इति ड. द. पाठः। परिग्रहवता गृहस्थेन नहि प्राप्तुं शक्यः।।
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