महाभारतम्-12-शांतिपर्व-096
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति राजधर्मकथनम्।। 1।।
भीष्म उवाच। | 12-96-1x |
नाधर्मेण महीं जेतुं लिप्सेत जगतीपतिः। अधर्मविजयं लब्ध्वा को नु मन्येत भूमिपः।। | 12-96-1a 12-96-1b |
अधर्मयुक्तो विजयो ह्यध्रुवोऽस्वर्ग्य एव च। पातयत्येव राजानं महीं च भरतर्षभ।। | 12-96-2a 12-96-2b |
विशीर्णकवचं चैव तवास्मीति च वादिनम्। कृताञ्जलिं न्यस्तशस्त्रं गृहीत्वा न विहिंसयेत्।। | 12-96-3a 12-96-3b |
बलेन विजितो यश्च न तं युध्येत भूमिपः। संवत्सरं विप्रणयेत्तस्माज्जातः पुनर्भवेत्।। | 12-96-4a 12-96-4b |
नार्वाक्संवत्सरात्कन्या प्रष्टव्या विक्रमाहृता। एवमेव धनं सर्वं यच्चान्यत्सहसा हृतम्।। | 12-96-5a 12-96-5b |
न तु वध्ये धनं तिष्ठेत्पिबेयुर्ब्राह्मणाः पयः। युञ्जीरन्नप्यनडुहः क्षन्तव्यं वा पुनर्भवेत्।। | 12-96-6a 12-96-6b |
राज्ञा राजैव योद्धव्यस्तथा धर्मो विधीयते। नान्यो राजानमभ्यस्येदराजन्यः कथंचन।। | 12-96-7a 12-96-7b |
अनीकयोः संहतयोर्यदीयाद्ब्राह्मणोऽन्तरा। शान्तिमिच्छन्नुभयतो न योद्धव्यं तदा भवेत्।। | 12-96-8a 12-96-8b |
मर्यादां शाश्वतीं भिन्द्याद्ब्राह्मणं योऽभिलङ्घयेत्। अथ चेल्लङ्घयेदेव मर्यादां क्षत्रियब्रुवः। असङ्ख्येपतदूर्ध्वं स्यादनादेयश्च संसदि।। | 12-96-9a 12-96-9b 12-96-9c |
यस्तु धर्मविलोपेन मर्यादाभेदनेन च। तां वृत्तिं नानुवर्तेत विजिगीषुर्महीपतिः।। | 12-96-10a 12-96-10b |
धर्मलब्धाद्धि विजयाल्लाभः कोऽभ्यधिको भवेत्।। | 12-96-11a |
सहसा न्याय्यभूतानि क्षिप्रमेव प्रसादयेत्। सान्त्वेन भोगदानेन स राज्ञां परमो नयः।। | 12-96-12a 12-96-12b |
भुज्यमाना ह्यभोगेन स्वराष्ट्रादभितापिताः। अमित्रान्पर्युपासीरन्व्यसनौघप्रतीक्षिणः।। | 12-96-13a 12-96-13b |
अमित्रोपग्रहं चास्य ते कुर्युः क्षिप्रमापदि। संतुष्टाः सर्वतो राजन्राजव्यसनकाङ्क्षिणः।। | 12-96-14a 12-96-14b |
नामित्रो विनिकर्तव्यो नातिच्छेद्यः कथंचन। जीवितं ह्यप्यतिच्छिन्नः संत्यजेदेकदा नरः।। | 12-96-15a 12-96-15b |
अल्पेनापि च संयुक्तस्तुष्यते नापराधितः। शुद्धं जीवितमेवापि तादृशो बहुमन्यते।। | 12-96-16a 12-96-16b |
यस्य स्फीतो जनपदः संपन्नः प्रियराजकः। संतुष्टभृत्यसचिवो दृढमूलः स पार्थिवः।। | 12-96-17a 12-96-17b |
ऋत्विक्पुरोहिताचार्या ये चान्ये श्रुतसत्तमाः। पूजार्हाः पूजिता यस्य स वै लोकविदुच्यते।। | 12-96-18a 12-96-18b |
एतेनैव च वृत्तेन महीं प्राप सुरोत्तमः। अन्येऽपि चैव विजयं विजिगीषन्ति पार्थिवाः।। | 12-96-19a 12-96-19b |
भूमिवर्जं धनं राजा जित्वा राजन्महाहवे। अपि चान्नोषधीः शश्वदाजहार प्रतर्दनः।। | 12-96-20a 12-96-20b |
अग्रिहोत्राग्निशेषं च हविर्भोजनमेव च। आजहार दिवोदासस्ततो विप्रकृतोऽभवत्।। | 12-96-21a 12-96-21b |
सराजकानि राष्ट्राणि नाभागो दक्षिणां ददौ। अन्यत्र श्रोत्रियस्वाच्च तापसार्थाच्च भारत।। | 12-96-22a 12-96-22b |
उच्चावचानि वित्तानि धर्मज्ञानां युधिष्ठिर। आसन्राज्ञां पुराणानां सर्वं तन्मम रोचते।। | 12-96-23a 12-96-23b |
सर्वविद्यातिरेकेण जयमिच्छेन्महीपतिः। न मायया न दम्भेन य इच्छेद्भूतिमात्मनः।। | 12-96-24a 12-96-24b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि जधर्मपर्वणि षण्णवतितमोऽध्यायः।। 96।। |
12-96-4 --णयेद्दासोऽस्मीति वदेति तं शिक्षयेत्। ततः संवत्सरादूध्वरा एवाऽब्रुवन्नपि ततो जातो जेतुः पुत्रएव भवेत्। ततश्च मोक्तव्य इत्यर्थः।। 12-96-5 नश्व संवत्सरं कन्याः स्प्रष्टव्याः सहसाहृताः इति ड. पाठः।। 12-96-7 अभ्यस्येदभिमुखं शस्त्रं क्षिपेत्।। 12-96-9 क्षत्रियब्रुवः क्षत्रियाधमः।। 12-96-10 असंख्येयः क्षत्रियेषु न गणनीयः।। 12-96-14 अमित्रोपग्रहं तद्वैरिणामानुकूल्यम्। ते बलाद्भुज्यमानाः।। 12-96-15 विनिकर्तव्यो निकृत्य वञ्चयितव्यः।। 12-96-21 अग्निशेषं यज्ञाङ्गभूतं हविः। भोजनं सिद्धान्नम्। एतन्न हर्तव्यमित्यर्थः। विप्रकृतो वञ्चितः।। 12-96-23 राज्ञा सर्वं हर्तव्यमित्यर्थः।।
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