महाभारतम्-12-शांतिपर्व-037
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राजमार्गे नागरैः स्तूयमानस्य युधिष्ठिरस्य राजगृहमेत्य सभाप्रवेशः।। 1।। तत्र युधिष्ठिरं निन्दतश्चार्वाकराक्षसस्य ब्राह्मणैर्हुंकारेण भस्मीकरणम्।। 2।।
वैशंपायन उवाच। | 12-37-1x |
प्रवेशने तु पार्थानां जनानां पुरवासिनाम्। दिदृक्षूणां सहस्राणि समाजग्मुः सहस्रशः।। | 12-37-1a 12-37-1b |
स राजमार्गः शुशुभे समलंकृतचत्वरः। यथा चन्द्रोदये राजन्वर्धमानो महोदधिः।। | 12-37-2a 12-37-2b |
गृहाणि राजमार्गेषु रत्नवन्ति महान्ति च। प्राकम्पन्तीव भारेण स्त्रीणां पूर्णानि भारत।। | 12-37-3a 12-37-3b |
ताः शनैरिव सव्रीडं प्रशशंसुर्युधिष्ठिरम्। भीमसेनार्जुनौ चैव माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ।। | 12-37-4a 12-37-4b |
धन्या त्वमसि पाञ्चालि या त्वं पुरुषसत्तमान्। उपतिष्ठसि कल्याणि महर्षिमिव गौतमी।। | 12-37-5a 12-37-5b |
तव कर्माण्यमोघानि व्रतचर्या च भामिनि। इति कृष्णां महाराज प्रशशंसुस्तदा स्त्रियः।। | 12-37-6a 12-37-6b |
प्रशंसावचनैस्तासां मिथः शब्दैश्च भारत। प्रीतिजैश्च तदा शब्दैः पुरमासीत्समाकुलम्।। | 12-37-7a 12-37-7b |
तमतीत्य यथायुक्तं राजमार्गं युधिष्ठिरः। अलंकृतं शोभमानमुपापाद्राजवेश्म ह।। | 12-37-8a 12-37-8b |
ततः प्रकृतयः सर्वाः पौरा जानपदास्तदा। ऊचुः कर्णसुखा वाचः समुपेत्य ततस्ततः।। | 12-37-9a 12-37-9b |
दिष्ट्या जयसि राजेन्द्र शत्रूञ्छत्रुनिषूदन। दिष्ट्या राज्यं पुनः प्राप्तं धर्मेण च बलेन च।। | 12-37-10a 12-37-10b |
भव नस्त्वं महाराज राजेह शरदां शतम्। प्रजाः पालय धर्मेण यथेन्द्रस्त्रिदिवं तथा।। | 12-37-11a 12-37-11b |
एवं राजकुलद्वारि मङ्गलैरभिपूजितः। आशीर्वादान्द्विजैरुक्तान्प्रतिगृह्य समन्ततः।। | 12-37-12a 12-37-12b |
प्रविश्य भवनं राजा देवराजगृहोपमम्। श्रुत्वा विजयसंयुक्तं रथात्पश्चादवातरत्।। | 12-37-13a 12-37-13b |
प्रविश्याभ्यन्तरं श्रीमान्दैवतान्यभिगम्य च। पूजयामास रत्नैश्च गन्धमाल्यैश्च सर्वशः।। | 12-37-14a 12-37-14b |
निश्चक्राम ततः श्रीमान्पुनरेव महायशाः। ददर्श ब्राह्मणांश्चैव सोऽभिरूपानवस्थितान्।। | 12-37-15a 12-37-15b |
स संवृतस्तदा विप्रैराशीर्वादविवक्षुभिः। शुशुभे विमलश्चन्द्रस्तारागणवृतो यथा।। | 12-37-16a 12-37-16b |
तांस्तु वै पूजयामास कौन्तेयो विधिवद्द्विजान्। सुमनोमोदकै रत्नैर्हिरण्येन च भूरिणा। गोभिर्वस्त्रैश्च राजेन्द्र विविधैश्च किमिच्छकैः।। | 12-37-17a 12-37-17b 12-37-17c |
धौम्यं गुरुं पुरस्कृत्य ज्येष्ठं पितरमेव च। `प्रविवेश सभां राजा सुधर्मां वासवो यथा।।' | 12-37-18a 12-37-18b |
ततः पुण्याहघोषोऽभूद्दिवं स्तब्ध्वेव भारत। सुहृदां प्रीतिजननः पुण्यः श्रुतिसुखावहः।। | 12-37-19a 12-37-19b |
हंसवन्नेदुषां राजन्द्विजानां तत्र भारती। शुश्रुवे वेदविदुषां पुष्कलार्थपदाक्षरा।। | 12-37-20a 12-37-20b |
ततो दुन्दुभिनिर्घोषः शङ्खानां च मनोरमः। जयं प्रवदतां तत्र स्वनः प्रादुरभून्नृप।। | 12-37-21a 12-37-21b |
निःशब्दे च स्थिते तत्र ततो विप्रजने पुनः। राजानं ब्राह्मणच्छझा चार्वाको राक्षसोऽब्रवीत्।। | 12-37-22a 12-37-22b |
तत्र दुर्योधनसखा भिक्षुरूपेण संवृतः। साङ्ख्यः शिखी त्रिदण्डी च धृष्टो विगतसाध्वसः।। | 12-37-23a 12-37-23b |
वृतः सर्वैस्तथा विप्रैराशीर्वादविवक्षुभिः। परस्सहस्रै राजेन्द्र तपोनियमसंस्थितैः।। | 12-37-24a 12-37-24b |
सुदुष्टः पापमाशंसुः पाण्डवानां महात्मनाम्। अनामन्त्र्यैव तान्विप्रांस्तमुवाच महीपतिम्।। | 12-37-25a 12-37-25b |
चार्वाक उवाच। | 12-37-26x |
इमे प्राहुर्द्विजाः सर्वे समारोप्य वचो मयि। धिग्भवन्तं कुनृपतिं ज्ञातिघातिनमस्तु वै।। | 12-37-26a 12-37-26b |
किं ते राज्येन कौन्तेय कृत्वेमं ज्ञातिसंक्षयम्। घातयित्वा गुरूंश्चैव मृतं श्रेयो न जीवितम्।। | 12-37-27a 12-37-27b |
इति ते वै द्विजाः श्रुत्वा तस्य दुष्टस्य रक्षसः। विव्यथुश्चुक्रुशुश्चैव तस्य वाक्यप्रधर्षिताः।। | 12-37-28a 12-37-28b |
ततस्ते ब्राह्मणाः सर्वे स च राजा युधिष्ठिरः। व्रीडिताः परमोद्विग्रास्तूष्णीमासन्विशांपते।। | 12-37-29a 12-37-29b |
युधिष्ठिर उवाच। | 12-37-30x |
प्रसीदन्तु भवन्तो मे प्रणतस्याभियाचतः। प्रत्यासन्नव्यसनिनं न मां धिक्कर्तुमर्हथ।। | 12-37-30a 12-37-30b |
वैशंपायन उवाच। | 12-37-31x |
ततो राजन्ब्राह्माणास्ते सर्व एव विशांपते। ऊचुर्नैष द्विजोऽस्माकमन्यस्तु तव पार्थिव।। | 12-37-31a 12-37-31b |
जज्ञुश्चैनं महात्मानस्ततस्तं ज्ञानचक्षुषा। ब्राह्मणा वेदविद्वांसस्तपोभिर्विमलीकृताः।। | 12-37-32a 12-37-32b |
ब्राह्मणा ऊचुः। | 12-37-33x |
एष दुर्योधनसखा विश्रुतो ब्रह्मराक्षसः। परिव्राजकरूपेण हितं तस्य चिकीर्षति।। | 12-37-33a 12-37-33b |
न वयं ब्रूम धर्मात्मन्व्येतु ते भयमीदृशम्। उपतिष्ठतु कल्याणं भवन्तं भ्रातृभिः सह।। | 12-37-34a 12-37-34b |
वैशंपायन उवाच। | 12-37-35x |
ततस्ते ब्राह्मणाः सर्वे हुंकारैः क्रोधमूर्च्छिताः। निर्भर्त्सयन्तः शुचयो निजघ्नुः पापराक्षसम्।। | 12-37-35a 12-37-35b |
स पपात विनिर्दग्धस्तेजसा ब्रह्मवादिनाम्। महेन्द्राशनिनिर्दग्धः पादपोऽङ्कुरवानिव।। | 12-37-36a 12-37-36b |
पूजिताश्च ययुर्विप्रा राजानमभिनन्द्य तम्। राजा च हर्षमापेदे पाण्डवः ससुहृज्जनः।। | 12-37-37a 12-37-37b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि सप्तत्रिंशोऽध्यायः।। 37।। |
12-37-3 स्त्रीणां स्त्रीभिः।। 12-37-15 अभिरूपान्मङ्गलद्रव्यपाणीन्।। 12-37-17 किमिच्छसि किमिच्छसीति पृच्छद्भिर्भृत्यैर्विविधैर्गोवस्त्रादिद्रव्यैर्निमन्त्रयद्भिरित्यर्थः।। 12-37-19 स्तब्ध्धा व्याप्य।। 12-37-23 साक्षः शिखीति झ.पाठः।। 12-37-30 प्रत्यासन्नाः समीपस्थाः व्यसनिनश्चिरदुःखिनो भ्रात्रादयो यस्य तम्। भ्रात्रादिदुःखपरिहारार्थं ममेदं राज्यकरणं नतु स्वसुखार्थमित्यर्थः।। 12-37-32 जज्ञुर्ज्ञातवन्तः।। 12-37-33 चार्वाको नाम राक्षसः इति झ. पाठः।।
शांतिपर्व-036 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-038 |