महाभारतम्-12-शांतिपर्व-225
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति दान्तलक्षणकथनपूर्वकं दमप्रशंसनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-225-1x |
किं कुर्वन्सुखमाप्नोति किं कुर्वन्दुःखमाप्नुयात्। किं कुर्वन्निर्भयो लोके सिद्धश्चरति भारत।। | 12-225-1a 12-225-1b |
भीष्म उवाच। | 12-225-2x |
दममेव प्रशंसन्ति वृद्धाः श्रुतिसमाधयः। सर्वेषामेव वर्णानां ब्राह्मणस्य विशेषतः।। | 12-225-2a 12-225-2b |
नादान्तस्य क्रियासिद्धिर्यथावदुपपद्यते। क्रिया तपश्च देवाश्च दमे सर्वं प्रतिष्ठितम्।। | 12-225-3a 12-225-3b |
दमस्तेजो वर्धयति पवित्रं दम उच्यते। विपाष्मा निर्भयो दान्तः पुरुषो विन्दते महत्।। | 12-225-4a 12-225-4b |
सुखं दान्तः प्रस्वपिति सुखं च प्रतिबुध्यते। सुखं लोके विपर्येति मनश्चास्य प्रसीदति।। | 12-225-5a 12-225-5b |
तेजो दमन ध्रियते तत्र तीक्ष्णोऽधिगच्छति। अमित्रांश्च बहून्नित्यं पृथगात्मनि पश्यति।। | 12-225-6a 12-225-6b |
क्रव्याद्भ्य इव भूतानामदान्तेभ्यः सदा भयम्। तेषां विप्रतिषेधार्थं राजा सृष्टः स्वयंभुवा।। | 12-225-7a 12-225-7b |
आश्रमेषु च सर्वेषु दम एव विशिष्यते। धर्मः संरक्ष्यते तैस्तु यतस्ते धर्मसेतवः।' यच्च तेषु फलं धर्म्यं भूयो दान्ते तदुच्यते।। | 12-225-8a 12-225-8b` 12-225-8c |
तेषां लिङ्गानि वक्ष्यानि येषां समुदयो दमः। अकार्पण्यमसंरम्भः संतोषः श्रद्दधानता।। | 12-225-9a 12-225-9b |
अक्रोध आर्जवं नित्यं नातिवादोऽभिमानिता। गुरुपूजाऽनसूया च दया भूतेष्वपैशुनम्।। | 12-225-10a 12-225-10b |
जनवादमृषावादस्तुतिनिन्दाविवर्जनम्। साधुकामांश्च स्पृहयेन्नायतिं प्रत्ययेषु च।। | 12-225-11a 12-225-11b |
अवैरकृत्सूपचारः समो निन्दाप्रशंसयोः। सुवृत्तः शीलसंपन्नः प्रसन्नात्माऽऽत्मवाञ्शुचिः।। | 12-225-12a 12-225-12b |
प्राप्य लोके च सत्कारं स्वर्गं वै प्रेत्य गच्छति। दुर्गमं सर्वभूतानां प्रापयन्मोदते सुखी।। | 12-225-13a 12-225-13b |
सर्वभूतहिते युक्तो न स्म यो द्विषते जनम्। महाह्रद इवाक्षोभ्यः प्राज्ञस्तृप्तः प्रसीदति।। | 12-225-14a 12-225-14b |
अभयं यस्य भूतेभ्यः सर्वेषामभयं यतः। नमस्यः सर्वभूतानां दान्तो भवति बुद्धिमान्।। | 12-225-15a 12-225-15b |
न हृष्यति महत्यर्थे व्यसने च न शोचति। सदाऽपरिमितप्रज्ञः स दान्तो द्विज उच्यते।। | 12-225-16a 12-225-16b |
कर्मभिः श्रुतसंपन्नः सद्भिराचारेतः शुचिः। सदैव दमसंयुक्तस्तस्य भुङ्क्ते महाफलम्।। | 12-225-17a 12-225-17b |
अनसूयाऽक्षमा शान्तिः संतोषः प्रियवादिता। सत्यं दानमनायासो नैष मार्गो दुरात्मनाम्।। | 12-225-18a 12-225-18b |
कामक्रोधौ च लोभश्च परस्येर्ष्या विकत्थना। `अतुष्टिरनृतं मोह एष मार्गो दुरात्मनाम्।।' | 12-225-19a 12-225-19b |
कामक्रोधौ वशे कृत्वा ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः। विक्रम्य घोरे तमसि ब्राह्मणः संशितव्रतः। कालाकाङ्क्षी चरेल्लोकान्निरपाय इवात्मवान्।। | 12-225-20a 12-225-20b 12-225-20c |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि पञ्चविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 225।। |
12-225-2 श्रुतिसमाधयो वेदद्रष्ठारः।। 12-225-3 तपश्च सत्यं चेति झ. पाठः।। 12-225-6 तीक्ष्णो राजसः। अमित्रान् कामादीन्।। 12-225-7 क्रव्याद्भ्यो व्याघ्रादिभ्यो मांसभक्षकेभ्यः।। 12-225-8 भूयोऽधिकम्।। 12-225-9 समुदेत्यस्मादिति समुदयो हेतुः। अकार्पण्यमदीनत्वम्। असंरम्भोऽभिनिवेशाभावः।। 12-225-11 प्रत्ययेषु सुखदुःखाद्यनुभवेषु। आयतिमुत्तरकालम्। न स्पृहयेत्। प्राप्तं सुखादिकं भुञ्जीत नतु कालान्तरीयौ तज्जौ हर्षविषादौ चिन्तनीयावित्यर्थः।। 12-225-12 सूपचारः शाठ्यवर्जितादरः।। 12-225-13 दुर्गमं दुष्काले दुर्लभमन्नादि प्रापयन् दयावानित्यर्थः।। 12-225-15 दान्तो भवति धर्मवित् इति ध. पाठः।। 12-225-19 डम्भो दर्पश्च मानश्च नैष मार्गो महात्मनाम् इति ट. ड. पाठः।।
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