महाभारतम्-12-शांतिपर्व-062
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति ब्राह्मणैस्त्याज्यधर्मकथनम्।। 1।। तथा क्षत्रियादिधर्मकथनपूर्वकं राजधर्मप्रशंसनम्।। 2।।
भीष्म उवाच। | 12-62-1x |
ज्याकर्षणं शत्रुनिवर्हणं च कृपिर्वणिज्या पशुपालनं च। शुश्रूषणं चापि तथाऽर्थहेतो रकार्यमेतत्परमं द्विजस्य।। | 12-62-1a 12-62-1b 12-62-1c 12-62-1d |
सेव्यं तु ब्रह्म षट्कर्म गृहस्थेन मनीषिणा। कृतकृत्यस्य चारण्ये वासो विप्रस्य शस्यते।। | 12-62-2a 12-62-2b |
राजप्रेष्यं कृषिधनं जीवनं च वणिज्यया। कौटिल्यं कौलटेयं च ब्राह्मणस्य विगर्हितम्।। | 12-62-3a 12-62-3b |
शूद्रो राजन्भवति ब्रह्मबन्धु र्दुश्चारित्रो यश्च धर्मादपेतः। वृपलीपतिः पिशुनो नर्तनश्च। ग्रामप्रेष्यो यश्च भवेद्विकर्मा।। | 12-62-4a 12-62-4b 12-62-4c 12-62-4d |
राजन्नेतान्वर्जयेद्देवकृत्ये।। | 12-62-5f |
निर्मर्यादे वाक्छठे क्रूरवृत्तौ। हिंसाकामे त्यक्तवृत्तस्वधर्मो। हव्यं कव्यं यानि चान्यानि राजन् देयान्यदेयानि भवन्ति तस्मिन्।। | 12-62-6a 12-62-6b 12-62-6c 12-62-6d |
तस्माद्धर्मो विहितो ब्राह्मणस्य दमः शौचं चार्जवं चापि राजन्। तथा विप्रस्याश्रमाः सर्व एव पुरा राजन्ब्रह्मणा संनिसृष्टाः।। | 12-62-7a 12-62-7b 12-62-7c 12-62-7d |
यः स्याद्दान्तः सोमपाश्चार्यशीलः सानुक्रोशः सर्वसहो निराशीः। ऋजुर्मृदुरनृशंसः क्षमावान् स वै विप्रो नेतरः पापकर्मा।। | 12-62-8a 12-62-8b 12-62-8c 12-62-8d |
विप्रं वैश्यं राजपुत्रं च राजन् लोकाः सर्वे संश्रिता धर्मकामाः। तस्माद्वर्णाञ्जातिधर्मेषु सक्ता ञ्जेतुं विष्णुर्नेच्छति पाण्डुपुत्र।। | 12-62-9a 12-62-9b 12-62-9c 12-62-9d |
लोकश्चायं सर्वलोकस्य न स्या च्चातुर्वर्ण्यं वेदवादाश्च न स्युः। सर्वाश्चेज्याः सर्वलोकक्रियाश्च सद्यः सर्वे चाश्रमाश्चैव न स्युः।। | 12-62-10a 12-62-10b 12-62-10c 12-62-10d |
यच्च त्रयाणां वर्णानामिच्छेदाश्रमसेवनम्। कर्तुमाश्रमदृष्टांश्च धर्मास्ताञ्शृणु पाण्डव।। | 12-62-11a 12-62-11b |
शुश्रूषोः कृतकार्यस्य कृतसंतानकर्मणः। अभ्यनुज्ञाप्य राजानं शूद्रस्य जगतीपते।। | 12-62-12a 12-62-12b |
अल्पान्तरगतस्यापि देशधर्मगतस्य वा। आश्रमा विहिताः सर्वे वर्जयित्वा निराशिषम्।। | 12-62-13a 12-62-13b |
भैक्षचर्यां नचैवाहुस्तस्य तद्धर्मवादिनः। तथा वैश्यस्य राजेन्द्र राजपुत्रस्य चैव हि।। | 12-62-14a 12-62-14b |
कृतकृत्यो वयोतीतो राज्ञः कृतपरिश्रमः। वैश्यो गच्छेदनुज्ञातो नृपेणाश्रमसंश्रयम्।। | 12-62-15a 12-62-15b |
वेदानधीत्य धर्मेण राजशास्त्राणि चानघ। संतानादीनि कर्माणि कृत्वा सोमं निषेव्य च।। | 12-62-16a 12-62-16b |
पालयित्वा प्रजाः सर्वा धर्मेण वदतांवर। राजसूयाश्वमेधादीन्मखानन्यांस्तथैव च।। | 12-62-17a 12-62-17b |
आनयित्वा यथान्यायं विप्रेभ्यो दत्तदक्षिणः। संग्रामे विजयं प्राप्य तथाऽल्पं यदि वा बहु।। | 12-62-18a 12-62-18b |
स्थापयित्वा प्रजापालं पुत्रं राज्ये च पाण्डव। अन्यगोत्रं प्रशस्तं वा क्षत्रियं क्षत्रियर्षभ।। | 12-62-19a 12-62-19b |
अर्चयित्वा पितॄञ्श्राद्धैः पितृयज्ञैर्यथाविधि। देवान्यज्ञैर्ऋषीन्वेदैरर्चयित्वा तु यत्नतः।। | 12-62-20a 12-62-20b |
अन्तकाले च संप्राप्ते य इच्छेदाश्रमान्तरम्। सोनुपूर्व्याश्रमान्राजन्गत्वा सिद्धिमवाप्नुयात्।। | 12-62-21a 12-62-21b |
राजर्षित्वेन राजेन्द्र भैक्ष्यचर्याद्यसेवया। अपेतगृहधर्मापि चरेज्जीवितकाम्यया।। | 12-62-22a 12-62-22b |
न चैतन्नैष्ठिकं कर्म त्रयाणां भूरिदक्षिण। चतुर्णां राजशार्दूल प्राहुराश्रमवासिनाम्।। | 12-62-23a 12-62-23b |
बाह्वायत्तं क्षत्रियैर्मानवानां लोकश्रेष्ठं धर्ममासेवमानैः। सर्वे धर्माः सोपधर्मास्त्रयाणां राज्ञो धर्मं नीतिशास्त्रे शृणोमि।। | 12-62-24a 12-62-24b 12-62-24c 12-62-24d |
यथा राजन्हस्तिपदे पदानि संलीयन्ते सर्वसत्वोद्भवानि। एवं धर्मान्राजधर्मेषु सर्वान् सर्वावस्थान्संप्रलीनान्निबोध।। | 12-62-25a 12-62-25b 12-62-25c 12-62-25d |
अल्पाश्रयानल्पफलान्वदन्ति धर्मानन्यान्धर्मविदो मनुष्याः। महाश्रयं बहुकल्याणरूपं क्षात्रं धर्मं नेतरं प्राहुरार्याः।। | 12-62-26a 12-62-26b 12-62-26c 12-62-26d |
सर्वे धर्मा राजधर्मप्रधानाः सर्वे वर्णाः पाल्यमाना भवन्ति। सर्वस्त्यागो राजधर्मेषु राजं स्त्यागं धर्मं चाहुरग्र्यं पुराणम्।। | 12-62-27a 12-62-27b 12-62-27c 12-62-27d |
मज्जेत्रयी दण्डनीतौ हतायां सर्वे धर्माः प्रक्षयेयुर्विरुद्धाः। सर्वे धर्माश्चाश्रमाणां हताः स्युः क्षात्रे नष्टे राजधर्मे पुराणे।। | 12-62-28a 12-62-28b 12-62-28c 12-62-28d |
सर्वे भोगा राजधर्मेषु दृष्टाः सर्वा दीक्षा राजधर्मेषु चोक्ताः। सर्वा विद्या राजधर्मेषु युक्ताः सर्वे लोका राजधर्मे प्रविष्टाः।। | 12-62-29a 12-62-29b 12-62-29c 12-62-29d |
नान्यो लोके विद्यतेऽजातशत्रो।। | 12-62-30f |
सर्वाण्येतानि कर्माणि क्षात्रे भरतसत्तम। भवन्ति जीवलोकाश्च क्षत्रधर्मे प्रतिष्ठिताः।। | 12-62-31a 12-62-31b |
यथा जीवाः प्राकृतैर्वध्यमाना धर्मश्रुतीनामुपपीडनाय। एवं धर्मा राजधर्मैर्वियुक्ताः संचिन्वन्तो नाद्रियन्ते स्वधर्मम्।। | 12-62-32a 12-62-32b 12-62-32c 12-62-32d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि द्विषष्टितमोऽध्यायः।। 62।। |
12-62-3 कौटिल्यमनार्जवम्। कौलटेयं कुलटाप्रधानं जारकर्म। कुसीदं च विवर्जयेत् इति झ. पाठः। तत्र कुसीदं वृद्धिजीविकामित्यर्थः।। 12-62-5 राजप्रेष्यादिर्वेदान् जपन्नजपन्वा शूद्रइव पङ्क्तेर्वहिर्भोजनीय एवेति भावः।। 12-62-11 यो राजा त्रयाणां ब्राह्मणवैश्यशूद्राणां स्वराज्ये आश्रमधर्मसेवनं यथोक्तं इच्छेत् तेनावश्यज्ञातव्यान्धर्माञ्शृणु।। 12-62-12 शुश्रूषोर्वेदान्तेष्वनधिकारात्पुराणद्वारा आत्मानं श्रोतुमिच्छोः। कृतकार्यस्य यावच्छरीरसामर्थ्यं सेवितत्रैवर्ण्यस्य।। 12-62-13 अल्पान्तरगतस्य आचारनिष्ठया त्रैवर्णिकसमस्य आश्रमाः सर्वे विहिताः। शूद्रोऽपि नैष्ठिकं ब्रह्मचर्यं वानप्रस्थं वा सकलविक्षेपककर्मत्यागरूपं संन्यासं वाऽनुतिष्ठेदेव। निराशिषं शान्तिदान्त्यादिकल्याणगुणरहितम्।। 12-62-22 अपेतगृहधर्मोऽपीति ख. पाठः।।
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