महाभारतम्-12-शांतिपर्व-252
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति कठवल्ल्यर्थप्रतिपादकव्यासवाक्यानुवादः।। 1।।
व्यास उवाच। | 12-252-1x |
प्रकृतेस्तु विकारा ये क्षेत्रज्ञस्तैरधिष्ठितः। न चैनं ते प्रजानन्ति स तु जानाति तानपि।। | 12-252-1a 12-252-1b |
तैश्चैवं कुरुते कार्यं मनःषष्ठैरिहेन्द्रियैः। सुदान्तैरिव संयन्ता दृढैः परमवाजिभिः।। | 12-252-2a 12-252-2b |
इन्द्रियेभ्यः परे ह्यर्था अर्थेभ्यः परमं मनः। मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्परः।। | 12-252-3a 12-252-3b |
महतः परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुषः परः। पुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः।। | 12-252-4a 12-252-4b |
एवं सर्वेषु भूतेषु गूढोत्मा न प्रकाशते। दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः।। | 12-252-5a 12-252-5b |
अन्तरात्मनि संलीय मनः षष्ठानि मेधया। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थांश्च बहुचिन्त्यमचिन्तयन्।। | 12-252-6a 12-252-6b |
ध्यानोपरमणं कृत्वा विद्यासंपादितं मनः। अनिश्चरः प्रशान्तात्मा ततोर्च्छत्यमृतं पदम्।। | 12-252-7a 12-252-7b |
इन्द्रियाणां तु सर्वेषां पश्यात्मा चलितस्मृतिः। आत्मनः संप्रदानेन मर्त्यो मृत्युमुपाश्नुते।। | 12-252-8a 12-252-8b |
हित्वा तु सर्वसंकल्पान्सत्वे चित्तं निवेशयेत्। सत्वे चित्तं समावेश्य ततः कालंजरो भवेत्।। | 12-252-9a 12-252-9b |
चित्तप्रसादेन यतिर्जहातीह शुभाशुभम्। प्रसन्नात्मात्मनि स्थित्वा सुखमत्यन्तमश्नुते।। | 12-252-10a 12-252-10b |
लक्षणं तु प्रसादस्य यथा तृप्तः सुखं स्वपेत्। निवाते वा यथा दीपो दीप्यमानो न कम्पते।। | 12-252-11a 12-252-11b |
एवं पूर्वापरे रात्रौ युञ्जन्नात्मानमात्मनि। लघ्वाहारो विशुद्धात्मा पश्यत्यात्मानमात्मनि।। | 12-252-12a 12-252-12b |
रहस्यं सर्ववेदानामनैतिह्यमनागतम्। आत्मप्रत्ययिकं शास्त्रमिदं पुत्रानुशासनम्।। | 12-252-13a 12-252-13b |
धर्माख्यानेषु सर्वेषु चित्राख्यानेषु यद्वसु। दृश्यते ऋक्सहस्राणि निर्मथ्यामृतमुद्धृतम्।। | 12-252-14a 12-252-14b |
नवनीतं यथा दध्नः काष्ठादग्निर्यथैव च। तथैव विदुषां ज्ञानं पुत्रहेतोः समुद्धृतम्।। | 12-252-15a 12-252-15b |
स्नातकानामिदं शास्त्रं वाच्यं पुत्रानुशासनम्। तदितं नाप्रशान्ताय नादान्तायातपस्विने।। | 12-252-16a 12-252-16b |
नावेदविदुषे वाच्यं तथा नानुगताय च। नासूयकायानृजवे न चानिर्दिष्टकारिणे।। | 12-252-17a 12-252-17b |
न तर्कशास्त्रदग्धाय तथैव पिशुनाय च। श्लाघिने श्लाघनीयाय प्रशान्ताय तपस्विने।। | 12-252-18a 12-252-18b |
इदं प्रियाय पुत्राय शिष्यायानुगताय च। रहस्यधर्मं वक्तव्यं नान्यस्मै तु कथंचन।। | 12-252-19a 12-252-19b |
यद्यप्यस्य महीं दद्याद्रत्नपूर्णामिमां नरः। इदमेव ततः श्रेय इति मन्येत तत्त्ववित्।। | 12-252-20a 12-252-20b |
अतो गुह्यतरार्थं तदध्यात्ममतिमानुषम्। यत्तन्महर्षिभिर्जुष्टं वेदान्तेषु च गीयते।। | 12-252-21a 12-252-21b |
तत्तेऽहं संप्रवक्ष्यामि यन्मां त्वं परिपृच्छसि।। | 12-252-22a |
यच्च ते मनसि वर्तते परं यत्र चास्ति तव संशयः क्वचित्। श्रूयतामयमहं तवाग्रतः पुत्र किं हि कथयामि ते पुनः।। | 12-252-23a 12-252-23b 12-252-23c 12-252-23d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि द्विपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 252।। |
12-252-4 अव्यक्तात्परतोऽमृतम्। अमृतान्न परं इति झ. थ. पाठः।। 12-252-5 महात्मा तत्वदर्शिभिरिति थ. ध. पाठः।।
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