महाभारतम्-12-शांतिपर्व-074
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति मुचुकुन्दचरितदृष्टान्तीकरणेन क्षत्रस्य ब्रह्माधीनत्वसमर्थनम्।। 1।।
`युधिष्ठिर उवाच। | 12-74-1x |
ब्रह्मक्षत्रस्य सामर्थ्यं कथितं ते पितामह। पुरोहितप्रभावश्च लक्षणं च पुरोधसः।। | 12-74-1a 12-74-1b |
इदानीं श्रोतुमिच्छामि ब्रह्मक्षत्रविनिर्णयम्। ब्रह्मक्षत्रं हि सर्वस्य कारणं जगतः परम्। योगक्षेमो हि राष्ट्रस्य ताभ्यामायत्त एव च।।' | 12-74-2a 12-74-2b 12-74-2c |
भीष्म उवाच। | 12-74-3x |
योगक्षेमो हि राष्ट्रस्य राजन्यायत्त उच्यते। योगक्षेमो हि राज्ञो हि समायत्तः पुरोहिते।। | 12-74-3a 12-74-3b |
यत्रादृष्टं भयं ब्रह्म प्रजानां शमयत्युत। दृष्टं च राजा बाहुभ्यां तद्राज्यं सुखमेधते।। | 12-74-4a 12-74-4b |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। मुचुकुन्दस्य संवादं राज्ञो वैश्रवणस्य च।। | 12-74-5a 12-74-5b |
मुचुकुन्दो विजित्येमां पृथिवीं पृथिवीपतिः। जिज्ञासमानः स बलमभ्ययादलकाधिपम्।। | 12-74-6a 12-74-6b |
ततो वैश्रवणो राजा राक्षसानसृजत्तदा। ते बलान्यवमृद्गन्त मुचुकुन्दस्य नैर्ऋताः।। | 12-74-7a 12-74-7b |
स हन्यमाने सैन्ये स्वे मुचुकुन्दो नराधिपः। गर्हयामास विद्वांसं पुरोहितमरिन्दमः।। | 12-74-8a 12-74-8b |
तत उग्रं तपस्तप्त्वा वसिष्ठो धर्मवित्तमः। रक्षांस्युपावधीत्तत्र पन्थानं चाप्यविन्दत।। | 12-74-9a 12-74-9b |
ततो वैश्रवणो राजा मुचुकुन्दमगर्हयत्। वध्यमानेषु सैन्येषु वचनं चेदमब्रवीत्।। | 12-74-10a 12-74-10b |
धनद उवाच। | 12-74-11x |
बलवन्तस्त्वया पूर्वे राजानः सपुरोहिताः। न चैवं समवर्तन्त यथा त्वमिव वर्तसे।। | 12-74-11a 12-74-11b |
ते खल्वपि कृतास्त्राश्च बलवन्तश्च भूमिपाः। आगम्य पर्युपासन्ते मामीशं सुखदुःखयोः।। | 12-74-12a 12-74-12b |
यद्यस्ति बाहुवीर्यं ते तद्दर्शयितुमर्हसि। किं ब्राह्मणबलेन त्वमतिमात्रं प्रवर्तसे।। | 12-74-13a 12-74-13b |
मुचुकुन्दस्ततः क्रुद्धः प्रत्युवाच धनेश्वरम्। न्यायपूर्वमसंलब्धमसंभ्रान्तमिदं वचः।। | 12-74-14a 12-74-14b |
ब्रह्मक्षत्रमिदं सृष्टमेकयोनि स्वयंभुवा। पृथग्बलविधानं च तल्लोकं परिपालयेत्।। | 12-74-15a 12-74-15b |
तपोमन्त्रबलं नित्यं ब्राह्मणेषु प्रतिष्ठितम्। अस्रबाहुबलं नित्यं क्षत्रियेषु प्रतिष्ठितम्।। | 12-74-16a 12-74-16b |
ताभ्यां संभूय कर्तव्यं प्रजानां परिपालनम्। तथा च मां प्रवर्तन्तं किं गर्हस्यलकाधिप।। | 12-74-17a 12-74-17b |
ततोऽब्रवीद्वैश्रवणो राजानं सपुरोहितम्। नाहं राज्यमनिर्दिष्टं कस्मैचिद्विदधाम्युत।। | 12-74-18a 12-74-18b |
नाच्छिन्दे वाऽप्यनिर्दिष्टमिति जानीहि पार्थिव। प्रशाधि पृथिवीं कृत्स्नां मद्दत्तामखिलामिमाम्। [एवमुक्तः प्रत्युवाच मुचुकुन्दो महीपतिः।।] | 12-74-19a 12-74-19b 12-74-19c |
नाहं राज्यं भवद्दत्तं भोक्तुमिच्छामि पार्थिव। बाहुवीर्यार्जितं राज्यमश्नीयामिति कामये।। | 12-74-20a 12-74-20b |
भीष्म उवाच। | 12-74-21x |
ततो वैश्रवणो राजा विस्मयं परमं ययौ। क्षत्रधर्मे स्थितं दृष्ट्वा मुचुकुन्दमरिन्दमम्।। | 12-74-21a 12-74-21b |
ततो राजा मुचुकुन्दः सोन्वशासद्वसुंधराम्। बाहुवीर्यार्जितां सम्यक्क्षत्रधर्ममनुव्रतः।। | 12-74-22a 12-74-22b |
एवं यो ब्रह्मविद्राजा ब्रह्मपूर्वं प्रवर्तते। स भुङ्क्ते विजितामुवीं यशश्च महदश्नुते।। | 12-74-23a 12-74-23b |
नित्योदकी ब्राह्मणः स्यान्नित्यशस्त्रश्च क्षत्रियः। तयोर्हि सर्वमायत्तं यत्किंचिज्जगतीगतम्।। | 12-74-24a 12-74-24b |
यशश्च तेजश्व महीं च कृत्स्नां प्राप्नोति राजन्विपुलां च कीर्तिम्। प्रधानधर्मं नृपते नियच्छ तथा च धर्मस्य चतुर्थमंशम्।। | 12-74-25a 12-74-25b 12-74-25c 12-74-25d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि चतुःसप्ततितमोऽध्यायः।। 74।। |
12-74-7 असृजदतिसृष्टवान्। आज्ञापितवानिति यावत्।। 12-74-11 त्वया त्वत्तः।। 12-74-25 नियच्छ गृहाणेत्यर्थः।
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