महाभारतम्-12-शांतिपर्व-083
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति मन्त्र्यादिलक्षणकथनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-83-1x |
सभासदः सहायाश्च सुहृदश्च विशांपते। परिच्छदास्तथाऽमात्याः कीदृशाः स्युः पितामह।। | 12-83-1a 12-83-1b |
भीष्म उवाच। | 12-83-2x |
ह्रीनिषेवास्तथा दान्ताः सत्यार्जवसमन्विताः। शक्ताः कथयितुं सम्यक्ते तव स्युः सभासदः।। | 12-83-2a 12-83-2b |
अमात्याश्चातिशूराश्च ब्रह्मण्याश्च बहुश्रुताः। सुसंतृष्टाश्च कौन्तेय महोत्साहाश्च कर्मसु।। | 12-83-3a 12-83-3b |
एतान्सहायाँल्लिप्सेथाः सर्वास्वापत्सु भारत।। | 12-83-4a |
कुलीनः पूजितो नित्यं न हि शक्तिं निगूहति। प्रसन्नमप्रसन्नं वा पीडितं हतमेव वा। आवर्तयति भूयिष्ठं तदेव ह्यनुपालितम्।। | 12-83-5a 12-83-5b 12-83-5c |
कुलीना देशजाः प्राज्ञा रूपवन्तो बहुश्रुताः। प्रगल्भाश्चानुरक्ताश्च ते तव स्युः परिच्छदाः।। | 12-83-6a 12-83-6b |
दौष्कुलेयाश्च लुब्धाश्च नृशंसा निरपत्रपाः। ते त्वां तात निषेवेयुर्यावदार्द्रकपाणयः।। | 12-83-7a 12-83-7b |
कुलीनाञ्शीलसंपन्नानिङ्गितज्ञाननिष्ठुरान्। देशकालविधानज्ञान्भर्तृकार्यहितैपिणः। नित्यमर्थेषु सर्वेषु राजा कुर्वीत मन्त्रिणः।। | 12-83-8a 12-83-8b 12-83-8c |
अर्थमानार्घसत्कारैर्भोगैरुच्चावचैः प्रियैः। यानर्थभाजो मन्येथास्तेते स्युः सुखभागिनः।। | 12-83-9a 12-83-9b |
अभिन्नवृत्ता विद्वांसः सद्वॄत्ताश्चरितव्रताः। नत्वां नित्यार्थिनो जह्युरक्षुद्राः सत्यवादिनः।। | 12-83-10a 12-83-10b |
अनार्या ये न जानन्ति समयं मन्दचेतसः। तेभ्यः परिजुगुप्सेथा ये चापि समयच्युताः।। | 12-83-11a 12-83-11b |
नैकमिच्छेद्गणं हित्वा स्याच्चेदन्यतरग्रहः। यस्त्वेको बहुभिः श्रेयान्कामं तेन गणं त्यजेत्।। | 12-83-12a 12-83-12b |
श्रेयसो लक्षणं चैतद्विक्रमो यस्य दृश्यते। कीर्तिप्रधानो यश्च स्यात्समये यश्च तिष्ठति।। | 12-83-13a 12-83-13b |
समर्थान्पूजयेद्यश्च नास्पर्ध्यैः स्पर्धते च यः। न च कामाद्भयात्क्रोधाल्लोभाद्वा धर्ममुत्सृजेत्।। | 12-83-14a 12-83-14b |
अमानी अत्यवाक्शक्तो जितात्मा मानसंयुतः। स ते मन्त्रसहायः स्यात्सर्वावस्थापरीक्षितः।। | 12-83-15a 12-83-15b |
कुलीनः कुलसंपन्नस्तितिक्षुर्दश आत्मवान्। शूरः कृतज्ञः सत्यश्च श्रेयसः पार्थ लक्षणम्।। | 12-83-16a 12-83-16b |
तस्यैवं वर्तमानस्य पुरुषस्य विजानतः। अमित्राः संप्रसीदन्ति तथा मित्रीभवन्त्यपि।। | 12-83-17a 12-83-17b |
अत ऊर्ध्वममात्यानां परीक्षेत गुणागुणम्। संयतात्मा कृतप्रज्ञो भूतिकामश्च भूमिपः।। | 12-83-18a 12-83-18b |
संबन्धिपुरुषैराप्तैरभिजातैः स्वदेशजैः। अहार्यैरव्यभीचारैः सर्वशः सुपरीक्षितैः।। | 12-83-19a 12-83-19b |
यौनाः श्रौतास्तथा मौलास्तथैवाप्यनहंकृताः। कर्तव्या भूतिकामेन पुरुषेण बुभूपता।। | 12-83-20a 12-83-20b |
एषां वैनयिकी बुद्धिः प्रकृतिश्चैव शोभना। तेजो धैर्यं क्षमा शौचमनुरागः स्थितिर्धृतिः।। | 12-83-21a 12-83-21b |
परीक्ष्य च गुणान्नित्यं प्रौढभावान्धुरंधरान्। पञ्चोपधाव्यतीतांश्च कुर्याद्राजाऽर्थकारिणः।। | 12-83-22a 12-83-22b |
पर्याप्तवचनान्वीरान्प्रतिपत्तिविशारदान्। कुलीनान्सत्वसंपन्नानिङ्गितज्ञाननिष्ठुरान्।। | 12-83-23a 12-83-23b |
देशकालविधानज्ञान्भर्तृकार्यहितैषिणः। नित्यमर्थेषु सर्वेषु राजन्कुर्वीत मन्त्रिणः।। | 12-83-24a 12-83-24b |
हीनतेजोभिसंसृष्टो नैव जातु व्यवस्यति। अवश्यं जनयत्येव सर्वकर्मसु संशयम्।। | 12-83-25a 12-83-25b |
एवमल्पश्रुतो मन्त्री कल्याणाभिजनोऽप्युत। धर्मार्थकामसंयुक्तो नालं मन्त्रं परीक्षितुम्।। | 12-83-26a 12-83-26b |
तथैवानभिजातोऽपि काममस्तु बहुश्रुतः। अनायक इवाचक्षुर्मुह्यत्यूह्येषु कर्मसु।। | 12-83-27a 12-83-27b |
यो वाऽप्यस्थिरसंकल्पो बुद्धिमानागतागमः। उपायज्ञोऽपि नालं स कर्म प्रापयितुं चिरम्।। | 12-83-28a 12-83-28b |
केवलात्पुनरादानात्कर्मणो नोपपद्यते। परामर्शो विशेषणामश्रुतस्येह दुर्मतेः।। | 12-83-29a 12-83-29b |
मन्त्रिण्यननुरक्ते तु विश्वासो नोपपद्यते। तस्मादननुरक्ताय नैव मन्त्रं प्रकाशयेत्।। | 12-83-30a 12-83-30b |
व्यथयेद्धि स राजानं मन्त्रिभिः सहितोऽनृजुः। मारुतोपहितच्छिद्रैः प्रविश्याग्निरिव द्रुमम्।। | 12-83-31a 12-83-31b |
संक्रुद्धश्चैकदा स्वामी स्थानाच्चैवापकर्षति। वाचा क्षिपति संरब्धः पुनः पश्चात्प्रसीदति।। | 12-83-32a 12-83-32b |
तानितान्यनुरक्तेन शक्यानि हि तितिक्षितुम्। मन्त्रिणां च भवेत्क्रोधो विस्फूर्जितमिवाशनेः।। | 12-83-33a 12-83-33b |
यस्तु संहरते तानि भर्तुः प्रियचिकीर्षया। समानसुखदुःखं तं पृच्छेदर्थेषु मानवम्।। | 12-83-34a 12-83-34b |
अनृजुस्त्वनुरक्तोऽपि संपन्नश्चेतरैर्गुणैः। राज्ञः प्रज्ञानयुक्तोऽपि न मन्त्रं श्रोतुमर्हति।। | 12-83-35a 12-83-35b |
योऽमित्रैः सह संबद्धो न परान्बहुमन्यते। असुहृत्तादृशो ज्ञेयो न मन्त्रं श्रोतुमर्हति।। | 12-83-36a 12-83-36b |
अविद्वानशुचिः स्तब्धः शत्रुसेवी विकत्थनः। असुहृत्क्रोधनो लुब्धो न मन्त्रं श्रोतुमर्हति।। | 12-83-37a 12-83-37b |
आगन्तुश्चानुरक्तोऽपि काममस्तु बहुश्रुतः। सत्कृतः संविभक्तो वा न मन्त्रं श्रोतुमर्हति।। | 12-83-38a 12-83-38b |
विधर्मतो विप्रकृतः पिता यस्याभवत्पुरा। सत्कृतः स्थापितः सोऽपि न मन्त्रं श्रोतुमर्हति।। | 12-83-39a 12-83-39b |
यः स्वल्पेनापि कार्येण सुहृदाक्षारितो भवेत्। पुनरन्यैर्गुणैर्युक्तो न मन्त्रं श्रोतुमर्हति।। | 12-83-40a 12-83-40b |
कृतप्रज्ञश्च मेधावी बुधो जानपदः शुचिः। सर्वकर्मसु यः शुद्धः स मन्त्रं श्रोतुमर्हति।। | 12-83-41a 12-83-41b |
ज्ञानविज्ञानसंपन्नः प्रकृतिज्ञः परात्मनोः। सुहृदात्मसमो राज्ञः स मन्त्रं श्रोतुमर्हति।। | 12-83-42a 12-83-42b |
सत्यवाक्शीलसंपन्नो गन्भीरः सत्रपो मृदुः। पितृपैतामहो यः स्यात्स मन्त्रं श्रोतुमर्हति।। | 12-83-43a 12-83-43b |
संतुष्टः संमतः सद्भिः शौटीरो द्वेष्यपापकः। मन्त्रवित्कालविच्छूरः स मन्त्रं श्रोतुमर्हति।। | 12-83-44a 12-83-44b |
सर्वलोकमिमं शक्तः सान्त्वेन कुरुते वशम्। तस्मै मन्त्रः प्रयोक्तव्यो दण्डमाधित्सता नृप।। | 12-83-45a 12-83-45b |
पौरजानपदा यस्मिन्विश्वासं धर्मतो गताः। योद्धा नयविपश्चिच्च स मन्त्रं श्रोतुमर्हति।। | 12-83-46a 12-83-46b |
तस्मात्सर्वैर्गुणैरेतैरुपपन्नाः सुपूजिताः। मन्त्रिणः प्रकृतिज्ञाः स्युख्यवरा महदीप्सवः।। | 12-83-47a 12-83-47b |
स्वासु प्रकृतिषु च्छिद्रं लक्षयेरन्परस्य च। मन्त्रिणां मन्त्रमूलं हि राज्ञो राष्ट्रं विवर्धते।। | 12-83-48a 12-83-48b |
नास्य च्छिद्रं परः पश्येच्छिद्रेषु परमन्वियात्। गूहेत्कूर्म इवाङगानि रक्षेद्विवरमात्मनः।। | 12-83-49a 12-83-49b |
मन्त्रग्राहा हि राजस्य मन्त्रिणो ये मनीषिणः। मन्त्रसंहननो राजा मन्त्राङ्गानीतरे जन्गः।। | 12-83-50a 12-83-50b |
राज्यं प्रणिधिमूलं हि मन्त्रसारं प्रचक्षते। स्वामिनं त्वनुवर्न्तते वृत्त्यर्थमिह मन्त्रिणः।। | 12-83-51a 12-83-51b |
संविनीयमदक्रोधौ मानमीर्ष्यां च निर्वृताः। नित्यं पञ्चोपधातीतैर्मन्त्रयेत्सह मन्त्रिभिः।। | 12-83-52a 12-83-52b |
तेषां त्रयाणां त्रिविधं विमर्शं विबुध्य चित्तं विनिवेश्य तत्र। स्वनिश्चयं तं परनिश्चयं च निदर्शयेदुत्तरमन्त्रकाले।। | 12-83-53a 12-83-53b 12-83-53c 12-83-53d |
धर्मार्थकामज्ञमुपेत्य पृच्छे द्युक्तो गुरुं ब्राह्मणमुत्तरार्थम्। निष्ठा कृता तेन यदा सहः स्या त्तं मन्त्रमार्गं प्रणयेदसक्तः।। | 12-83-54a 12-83-54b 12-83-54c 12-83-54d |
एवं सदा मन्त्रयितत्र्यमाहु र्ये मन्त्रतत्त्वार्थविनिश्चयज्ञाः। तस्मात्तमेवं प्रणयेत्सदैव मन्त्रं प्रजासंग्रहणे समर्थम्।। | 12-83-55a 12-83-55b 12-83-55c 12-83-55d |
न वामनाः कुब्जकृशा न खञ्जा नान्धा जडाः स्त्री च नपुंसकाश्च। न चात्र तिर्यक्च पुरो न पश्चा न्नोर्ध्वं न चाधः प्रपरेत्कथंचित्।। | 12-83-56a 12-83-56b 12-83-56c 12-83-56d |
आरुह्य वा वेश्म तथैव शून्यं स्थलं प्रकाशं कुशकाशहीनम्। वागङ्गदोषान्परिहृत्य सर्वा न्संमन्त्रयेत्कार्यमहीनकालम्।। | 12-83-57a 12-83-57b 12-83-57c 12-83-57d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि त्र्यशीतितमोऽध्यायः।। 83।। |
12-83-1 सभासदः व्यवहारनिर्णायका। सहायाः युद्धादावुपयोगिनः। सुहृदो हितकर्तारः। परिच्छदाः सेनान्यादयः।। 12-83-2 क्रमेणैषां लक्षणान्याह हीति। कथयितुं न्यायान्यायौ वक्तुम् हीनिषेधास्तथा दान्ताः सत्यलज्जासमन्विताः इति थ. पाठः।। 12-83-5 सुल्दमाह सार्धेन कुलीन इति।। 12-83-7 यावदार्द्रकपाणयः। शुष्कहस्तास्तु सद्यो विक्रियन्ते इत्यर्थः। ते त्वां जातु न सेवेयुर्यावते स्वङ्गपाणयः। इति ड. थ.पाठः।। 12-83-9 अर्थो धनम्। मानः सन्मानः। अर्धो वस्रादिदानम्। सत्कार आदरः। यान्प्रियान्मन्येथात्तेऽर्थभाजः सुखभागिनश्च स्युः।। 12-83-11 समयं धर्माधर्ममयदाम्। जुगुप्सेथाः रक्षस्व।। 12-83-12 अन्यतरग्रहः गणैकयोरेक्तरस्य ग्राणप्रसङ्ग। एकश्चेद्गुणी तदा गणं त्यक्त्वा स एव ग्राह।। 12-83-13 श्रेयसः साधोः।। 12-83-14 सत्यः सत्यवान्।। 12-83-18 भूमिपः परीक्षेतेति योजना।। 12-83-19 अभिजातैः कुलीनैः। अहार्यैः धनादिना वशीकर्तुमशक्यैः। संबन्धिपुरुषैर्येषां संबन्धोऽस्ति तादृशैः।। 12-83-20 यौना उत्तमयोनयः। मौलाः परंपरागताः कर्तव्याः। मन्त्रिण इति शेषः।। 12-83-21 प्रकृतिः पूर्वकर्मजः संस्कारः। तेजः पराभिभवसामर्थ्यम्। स्थितिरव्यभिचारिता। धृतिर्धारणसमार्थ्यम्।। 12-83-22 पञ्च मन्त्रिण इति तृतीयेनान्वयः। उपधा च्छलं तद्व्यतीतान्।। 12-83-23 पर्याप्तं कृत्स्नस्य विवित्सितस्यार्थस्य निर्वाहकं वचनं येषां तान्।। 12-83-25 हीनतेजसा मित्रेणाभिसंसृष्टः संबद्धः। न व्यवस्यति न कर्तव्याकर्तव्ये निश्चिनोति।। 12-83-28 प्रापयितुं समापयितुम्।। 12-83-29 आरम्भशूरोऽपि मूर्खः कर्मणः फलविशेषान् ज्ञातुं न शक्नोतीत्यर्थः।। 12-83-32 अनुरक्तलक्षणमाह शिभिः संक्रुद्ध इत्यादिभिः।। 12-83-38 आगन्तुर्नूतनः। सोऽप्य विश्वास्य इत्यर्थः।। 12-83-39 विधर्मतोऽन्यायेन।। 12-83-40 आक्षारितो धनग्रहणेन रिक्तः कृतः।। 12-83-41 जानपदः स्वदेशजः।। 12-83-42 परस्य शत्रोः आत्मनश्च प्रकृतीः स्वाम्यमात्यादिका जानातीति प्रकृतिज्ञः।। 12-83-43 गम्भीरो मन्त्रगोपनसमर्थः।। 12-83-44 शौटीरः प्रगल्भः। द्वेष्यवद्धेयं पापं यस्य स द्वेष्यपापकः।। 12-83-45 आधित्सता आधातुच्छिता।। 12-83-47 पञ्चानामभावे त्रयो वा कार्या इत्यर्थः।। 12-83-49 विवरं छिद्रम् ।। 12-83-50 मन्त्रसंहननो मन्त्रकवचः।। 12-83-52 उपवाश्छलानि। तानि पञ्च।। 12-83-56 अत्र मन्त्रस्थाने।।
शांतिपर्व-082 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-084 |