महाभारतम्-12-शांतिपर्व-118
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति सचिवादिगुणवर्णनम्।। 1।।
भीष्म उवाच। | 12-118-1x |
स श्वा प्रकृतिमापन्नः परं दैन्यमुपागमत्। ऋषिणा हुंकृतः पापस्तपोवनबहिष्कृतः।। | 12-118-1a 12-118-1b |
एवं राज्ञा मतिमता विदित्वा शीलशौचताम्। आर्जवं प्रकृतिं सत्वं श्रुतं वृत्तं कुलं दमम्।। | 12-118-2a 12-118-2b |
अनुक्रोशं बलं वीर्यं प्रभावं प्रशमं क्षमाम्। भृत्यायेमन्त्रिणो योग्यास्तत्र स्थाप्याः सुरक्षिताः।। | 12-118-3a 12-118-3b |
नाषरीक्ष्य महीपालः प्रकर्तुं भृत्यमर्हति। अकुलीननराकीर्णो न राजा सुखमेधते।। | 12-118-4a 12-118-4b |
कुलजः प्राकृतो राजंस्तत्कुलीनतया सदा। न पापे कुरुते बुद्धिं निन्द्यमानोऽप्यनागसि।। | 12-118-5a 12-118-5b |
अकुलीनस्तु पुरुषः प्राकृतः साधुसंक्षयात्। दुर्लभैश्वर्यतां प्राप्तो निन्दितः शत्रुतां व्रजेत्।। | 12-118-6a 12-118-6b |
`काकः श्वानोऽकुलीनश्च बिडालः सर्प एव च। अकुलीना च या नारी तुल्यास्ते परिकीर्तिताः।। | 12-118-7a 12-118-7b |
लोकपालाः सदोद्विग्नाः पश्यन्त्यकुलजान्यथा। नारीं वा पुरुषं वाऽथ शीलं तत्रापि कारणम्।। | 12-118-8a 12-118-8b |
दुष्कुलीना च या स्त्री स्याद्दुष्कुलीनश्च यः पुम। अहिंसाशीलसंयोगाद्धर्मश्चाऽऽकुलतां व्रजेत्।। | 12-118-9a 12-118-9b |
धर्मं प्रति महाराज श्लोकानाह बृहस्पतिः। शृणु सर्वान्महीपाल हृदि तांश्च करिष्यसि।। | 12-118-10a 12-118-10b |
असितं सितकर्माणं यथा दान्तं तपस्विनम्। वृत्तस्थमपि चण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः।। | 12-118-11a 12-118-11b |
यदि घातयते कश्चित्पापसत्वं प्रजाहितः। सर्वसत्वहितार्थाय न तेनासौ विहिंसकः।। | 12-118-12a 12-118-12b |
द्वीपिनं शरभं सिंहं व्याघ्रं कुञ्जरमेव च। महिषं च वराहं च सूकरं श्वानपन्नगान्।। | 12-118-13a 12-118-13b |
गोब्राह्मणहितार्थाय बालस्त्रीरक्षणाय च। वृद्धातुरपरित्राणे यो हिनस्ति स धर्मवित्।। | 12-118-14a 12-118-14b |
ब्राह्मणः पापकर्मा च म्लेच्छो वा धार्मिकः शु वः। श्रेयांस्तत्र भवेन्म्लेच्छो ब्राह्मणः पापकृत्तमः।। | 12-118-15a 12-118-15b |
दुष्कुलीनः कुलीनो वा यः कश्चिच्छीलवान्नरः। प्रकृतिं तस्य विज्ञाय स्थिरां वा यदि वाऽस्थिराम्।। | 12-118-16a 12-118-16b |
शीलं वाऽनुत्तमं कर्म कुर्याद्राजा समाहितः। नियुञ्जीत महीपालो दुर्वृत्तं पापकर्मसु।।' | 12-118-17a 12-118-17b |
कुलीनं शिक्षितं प्राज्ञं ज्ञानविज्ञानकोविदम्। सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञं सहिष्णुं देशजं तथा।। | 12-118-18a 12-118-18b |
कृतज्ञं बलवन्तं च क्षान्तं दान्तं जितेन्द्रियम्। अलुब्धं लब्धसंतुष्टं स्वामिमित्रबुभूषकम्।। | 12-118-19a 12-118-19b |
सचिवं देशकालज्ञं सर्वसंग्रहणे रतम्। संस्कृतं युक्तवचनं हितैषिणमतन्द्रितम्।। | 12-118-20a 12-118-20b |
युक्ताचारं स्वविषये संधिविग्रहकोविदम्। शस्तं त्रिवर्गवेत्तारं पौरजानपदप्रियम्।। | 12-118-21a 12-118-21b |
सेनाव्यूहनतत्त्वज्ञं बलहर्षणकोविदम्। इङ्गिताकरातत्त्वज्ञं यात्रासेनाविशारदम्।। | 12-118-22a 12-118-22b |
हस्तिशिक्षाश्वतत्त्वज्ञमहंकारविवर्जितम्। प्रगल्भं दक्षिणं दान्तं बलिनं युक्तमन्त्रिणम्।। | 12-118-23a 12-118-23b |
चौक्षं चौक्षजनाकीर्णं सुवेषं सुखदर्शनम्। नायकं नीतिकुशलं गुणैः षङ्भिः समन्वितम्।। | 12-118-24a 12-118-24b |
अस्तब्धं प्रश्रितं श्लक्ष्णं मृदुवादिनमेव च। धीरं महर्द्धि च देशकालोपपादकम्।। | 12-118-25a 12-118-25b |
सचि यः प्रकुरुते न चैनमवमन्यते। तस्य विस्तीर्यते राज्यं ज्योत्स्ना ग्रहपतेरिव।। | 12-118-26a 12-118-26b |
एतैरेव गुणैर्युक्तो राजा शास्त्रविशारदः। एष्टव्यो धर्मपरमः प्रजापालनतत्परः।। | 12-118-27a 12-118-27b |
धीरो मर्षी शुचिः शीघ्रः काले पुरुषकारवित्। शुश्रूषुः श्रुतवाञ्श्रोता ऊहापोहविशारदः।। | 12-118-28a 12-118-28b |
मेधावी धारणायुक्तो यथान्यायोपपादकः। दान्तः सदा प्रियाभाषी क्षमावांश्च विपर्यये।। | 12-118-29a 12-118-29b |
नातिच्छेत्ता स्वयंकारी श्रद्धालुः सुखदर्शनः। आर्तहस्तप्रदो नित्यमाप्तामात्यो नये रतः।। | 12-118-30a 12-118-30b |
नाहंवादी ननिर्द्वन्द्वो नयत्किंचनकारकः। कृते कर्मण्यमोघानां कर्ता भृत्यजनप्रियः।। | 12-118-31a 12-118-31b |
संगृहीतजनोऽस्तब्धः प्रसन्नवदनः सदा। त्राता भृत्यजनापेक्षी न क्रोधी सुमहामनाः।। | 12-118-32a 12-118-32b |
युक्तदण्डो न निर्दण्डो धर्मकार्यानुशासनः। चारनेत्रः प्रजावेक्षी धर्मार्थकुशलः सदा।। | 12-118-33a 12-118-33b |
राजा गुणशताकीर्ण एष्टव्यस्तादृशो भवेत्। योधाश्चैव मनुष्येन्द्र सर्वैर्गुणगणैर्वृताः।। | 12-118-34a 12-118-34b |
अन्वेष्टव्याः सुपुरुषाः सहाया राज्यधारणे। न विमानयितव्यास्ते राज्ञा वृद्धिमभीप्सता।। | 12-118-35a 12-118-35b |
योधाः समरशौण्डीराः कृतज्ञाः शास्त्रकोविदाः। धर्मशास्त्रसमायुक्ताः पदातिजनसंवृताः।। | 12-118-36a 12-118-36b |
अर्थमानविवृद्धाश्च रथचर्याविशारदाः। इष्वस्त्रकुशला यस्य तस्येयं नृपतेर्मही।। | 12-118-37a 12-118-37b |
`ज्ञातीनामनवज्ञानं भृत्येष्वशठता तथा। नैपुणं चार्थचर्यासु यस्यैते तस्य सा मही।। | 12-118-38a 12-118-38b |
आलस्यं चैव निद्रा च व्यसनान्यतिहास्यता। यस्तैतानि न विद्यन्ते तस्यैव सुचिरं मही।। | 12-118-39a 12-118-39b |
वृद्धसेवी महोत्साहो वर्णानां चैव रक्षिता। धर्मचर्याः सदा यस्य तस्येयं सुचिरं मही।। | 12-118-40a 12-118-40b |
नीतिवर्त्मानुसरणं नित्यमुत्थानमेव च। रिपूणामनवज्ञानं तस्येयं सुचिरं मही।। | 12-118-41a 12-118-41b |
उत्थानं चैव दैवं च तयोर्नानात्वमेव च।। मनुना वर्णितं पूर्वं वक्ष्ये शृणु तदेव हि।। | 12-118-42a 12-118-42b |
उत्थानं हि नरेन्द्राणां बृहस्पतिरभाषत। नयानयविधानज्ञः सदा भव कुरूद्वह।। | 12-118-43a 12-118-43b |
दुर्हृदां छिद्रदर्शी यः सुहृदामुपकारवान्। विशेषविच्च भृत्यानां स राज्यफलमश्नुते।। ' | 12-118-44a 12-118-44b |
सर्वसंग्रहणे युक्तो नृपो भवति यः सदा। उत्थानशीलो मन्त्राढ्यः स राजा राजसत्तमः।। | 12-118-45a 12-118-45b |
शक्या चाश्वसहस्रेण वीरारोहेण भारत। संगृहीतमनुष्येण कृत्स्ना जेतुं वसुंधरा।। | 12-118-46a 12-118-46b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि अष्टादशाधिकशततमोऽध्यायः।। 118।। |
12-118-6 अकुलीनस्तु निन्दामात्रेण शत्रुतां व्रजेत्। साधुसंश्रश्चादिति झ. पाठः।। 12-118-19 स्वामिनो मित्राणां बुभूषकं ऐश्वर्यलिप्सुम्।। 12-118-20 सर्वसंग्रहणे प्राणिमात्ररञ्जने।। 12-118-24 चौक्षं शुद्धम्।। 12-118-28 मर्षी क्षमी।। 12-118-29 विपर्ययेऽक्षमावति अपकारिणि क्षमावान्।। 12-118-31 ननिर्द्वन्द्वो ननिष्परिग्रहः।। 12-118-33 चारनेत्रः परापेक्षी इति ट. ड. थ. पाठः।। 12-118-37 अभया गजपृष्ठस्थाः इति झ. पाठः।।
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