महाभारतम्-12-शांतिपर्व-185
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भृगुणा भरद्वाजंप्रति संघातातिरिक्तजीवसमर्थनपूर्वकं तन्निरूपणम्।। 1।।
भृगुरुवाच। | 12-185-1x |
न प्रणाशोऽस्ति जीवानां दत्तस्य च कृतस्य च। याति देहान्तरं प्राणी शरीरं तु विशीर्यते।। | 12-185-1a 12-185-1b |
न शरीराश्रितो जीवस्तस्मिन्नष्टे प्रणश्यति। यथा समित्सु दग्धासु न प्रणश्यति पावकः।। | 12-185-2a 12-185-2b |
भरद्वाज उवाच। | 12-185-3x |
अग्नेर्यथा समिद्धस्य यदि नाशो न विद्यते। इन्धनस्योपयोगान्ते स चाग्निर्नोपलभ्यते।। | 12-185-3a 12-185-3b |
नश्यतीत्येव जानामि शान्तमग्निमनिन्धनम्। मतिर्यस्य प्रमाणं वा संस्थानं वा न दृश्यते।। | 12-185-4a 12-185-4b |
भृगुरुवाच। | 12-185-5x |
`जीवस्य चेन्धनाग्नेश्च सदा नाशो न विद्यते।' समिधामुपयोगान्ते सन्नेवाग्निर्न दृश्यते। आकाशानुगतत्वाद्धि दुर्ग्रहः स निराश्रयः।। | 12-185-5a 12-185-5b 12-185-5c |
तथा शरीरसंत्यागे जीवो ह्याकाशमाश्रितः। न गृह्यते तु सूक्ष्मत्वाद्यथा ज्योतिरनिन्धनम्।। | 12-185-6a 12-185-6b |
प्राणान्धारयते योऽग्निः स जीव उपधार्यताम्। वायुसंधारणो ह्यग्निर्नश्यत्युच्छ्वासनिग्रहात्।। | 12-185-7a 12-185-7b |
तस्मिन्नष्टे शरीराग्नौ शरीरं तदचेतनम्। पतितं याति भूमित्वमयनं तस्य हि क्षितिः।। | 12-185-8a 12-185-8b |
जङ्गमानां हि सर्वेषां स्थावराणां तथैव च। आकाशं पवनोऽन्वेति ज्योतिस्तमनुगच्छति। तेषां त्रयाणामेकत्वं द्वयं भूमौ प्रतिष्ठितम्।। | 12-185-9a 12-185-9b 12-185-9c |
यत्र खं तत्र पवनस्तत्राग्निर्यत्र मारुतः। अमूर्तयस्ते विज्ञेया आपो मूर्तास्तथा क्षितिः।। | 12-185-10a 12-185-10b |
भरद्वाज उवाच। | 12-185-11x |
यद्यग्निमारुतौ भूमिः खमापश्च शरीरिषु। जीवः किंलक्षणस्तत्रेत्येतदाचक्ष्व मेऽनघ।। | 12-185-11a 12-185-11b |
पञ्चात्मके पञ्चरतौ पञ्चविज्ञानसंयुते। शरीरे प्राणिनां जीवं वेत्तुमिच्छामि यादृशम्।। | 12-185-12a 12-185-12b |
मांसशोणितसंघाते मेदः स्नाय्वस्थिसंचये। भिद्यमाने शरीरे तु जीवो नैवोपलभ्यते।। | 12-185-13a 12-185-13b |
यद्यजीवं शरीरं तु पञ्चभूतसमन्वितम्। शारीरे मानसे दुःखे कस्तां वेदयते रुजम्।। | 12-185-14a 12-185-14b |
शृणोति कथितं जीवः कर्णाभ्यां न शृणोति तत्। महर्षे मनसि व्यग्रे तस्माज्जीवो निरर्थकः।। | 12-185-15a 12-185-15b |
सर्वं पश्यति यद्दृश्यं मनोयुक्तेन चक्षुषा। मनसि व्याकुले तस्मिन्पश्यन्नपि न पश्यति।। | 12-185-16a 12-185-16b |
न पश्यति न चाघ्राति न शृणोति न भाषते। न च स्पर्शरसौ वेत्ति निद्रावशगतः पुनः।। | 12-185-17a 12-185-17b |
हृष्यति क्रुध्यते कोऽत्र शोचत्युद्विजते च कः। इच्छति ध्यायति द्वेष्टि वाचमीरयते च कः।। | 12-185-18a 12-185-18b |
भृगुरुवाच। | 12-185-19x |
न पञ्चसाधारणमत्र किंचि च्छरीरमेकी वहतेऽन्तरात्मा। स वेत्ति गन्धांश्च रसाञ्श्रुतीश्च स्पर्शं च रूपं च गुणाश्च येऽन्ये।। | 12-185-19a 12-185-19b 12-185-19c 12-185-19d |
पञ्चात्मके पञ्चगुणप्रदर्शी स सर्वगात्रानुगतोऽन्तरात्मा। स वेत्ति दुःखानि सुखानि चात्र तद्विप्रयोगात्तु न वेत्ति देही।। | 12-185-20a 12-185-20b 12-185-20c 12-185-20d |
यदा न रूपं न स्पर्शो नोष्मभावश्च पञ्चके। तदा शान्ते शरीराग्नौ देहं त्यक्त्वा न नश्यति।। | 12-185-21a 12-185-21b |
अम्मयं सर्वमेवेदमापो मूर्तिः शरीरिणाम्। तत्रात्मा मानसो ब्रह्मा सर्व भूतेषु लोककृत्।। | 12-185-22a 12-185-22b |
[आत्मा क्षेत्रज्ञ इत्युक्तः संयुक्तः प्राकृतैर्गुणैः। तैरेव तु विनिर्मुक्तः परमात्मेत्युदाहृतः।।] | 12-185-23a 12-185-23b |
आत्मानं तं विजानीहि सर्वलोकविपाचकम्। स तस्मिन्संश्रितो देहे ह्यब्बिन्दुरिव पुष्करे।। | 12-185-24a 12-185-24b |
क्षेत्रज्ञं तं विजानीहि नित्यं लोकहितात्मकम्। तमो रजश्च सत्त्वं च विद्धि जीवगुणानिमान्।। | 12-185-25a 12-185-25b |
सचेतनं जीवगुणं वदन्ति स चेष्टते चेष्टयते च सर्वम्। ततः परं क्षेत्रविदो वदन्ति प्रावर्तयद्यो भुवनानि सप्त।। | 12-185-26a 12-185-26b 12-185-26c 12-185-26d |
न जीवनाशोऽस्ति हि देहभेदे मिथ्यैतदाहुर्मुत इत्यबुद्धाः। जीवस्तु देहान्तरितः प्रयाति दशार्धतैवास्य शरीरभेदः।। | 12-185-27a 12-185-27b 12-185-27c 12-185-27d |
एवं सर्वेषु भूतेषु गूढश्चरति संवृतः। दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया तत्त्वदर्शिभिः।। | 12-185-28a 12-185-28b |
तं पूर्वापररात्रेषु युञ्जानः सततं बुधः। लध्वाहारो विशुद्धात्मा पश्यत्यात्मानंमात्मनि।। | 12-185-29a 12-185-29b |
चित्तस्य हि प्रसादेन हित्वा कर्म शुभाशुभम्। प्रसन्नात्माऽत्मनि स्थित्वा सुखमव्ययमश्नुते।। | 12-185-30a 12-185-30b |
मानसोऽग्निः शरीरेषु जीव इत्यभिधीयते। सृष्टिः प्रजापतेरेषा भूताध्यात्मविनिश्चया।। | 12-185-31a 12-185-31b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि पञ्चाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 185।। |
12-185-1 एतद्दूषयति न प्रणाश इति।। 12-185-3 अनुपलब्धेरग्नेरपि नाश एवेत्यर्थः।। 12-185-5 दग्धेन्धनाग्निवत्सन्नेवात्मा देहनाशे सति सौक्ष्म्यान्नोपलभ्यत इत्यर्थः।। 12-185-6 जीवो ह्याकाशवत्स्थित इति झ.ड. पाठः।। 12-185-10 अमूर्तयः अदृश्याः। अतस्तेषामप्यभावावधारणं दुःशकं किमुत सूक्ष्मस्य जीवस्येति भावः।। 12-185-11 शरीरिषु शरीराकारपरिणामवत्सु संघातेषु।। 12-185-12 पञ्चभूतात्मके पञ्चविषयरतौ। पञ्चविज्ञानानि ज्ञानकारणानि।। 12-185-15 मास्तु देहेन्द्रियसंघातश्चेतनो यस्मिन्व्यग्रे सति संघातः सन्निकृष्टोऽपि शब्दादीन्न गृह्णाति तन्मन एव आत्मास्त्वित्याह चतुर्भिः शृणोतीत्यादिभिः।। 12-185-19 पञ्चसाधारणं पञ्चेन्द्रियाधारं किंचिन्मनो न श्रूयते किंतु अन्तरात्मा जीव एव वहते धारयति।। 12-185-20 तद्विप्रयोगात् ते न मनसा वियोगे।। 12-185-21 देहं त्यक्त्वा स गच्छति इति ट. पाठः।। 12-185-24 सर्वलोकविधायकमिति ध. ड. थ. पाठः।। 12-185-26 क्षेत्रविदं वदन्तीति ट. पाठः।। 12-185-27 दशार्धता पञ्चत्वम्। शरीरनाश एव जीवस्य मरणमित्युच्यते।।
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