महाभारतम्-12-शांतिपर्व-009
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युधिष्ठिरस्य निर्वेदवचनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-9-1x |
मुहूर्तं तावदेकाग्रो मनः श्रोत्रेऽन्तरात्मनि। धारयन्नपि ते श्रुत्वा रोचते वचनं मम।। | 12-9-1a 12-9-1b |
सार्थगम्यमहं मार्गं न जातु त्वत्कृते पुनः। गच्छेयं तं गमिष्यामि हित्वा ग्राम्यसुखान्युत।। | 12-9-2a 12-9-2b |
क्षेम्यश्चैकाकिना गम्यः पन्था कोस्तीति पृच्छ माम्। अथवा नेच्छसि प्रष्टुमपृच्छन्नपि मे शृणु।। | 12-9-3a 12-9-3b |
हित्वा ग्राम्यसुखाचारं तप्यमानो महत्तपः। अरण्ये फलमूलाशी चरिष्यामि मृगैः सह।। | 12-9-4a 12-9-4b |
जुह्वानोऽग्निं यथाकालमुभौ कालावुपस्पृशन्। कृशः परिमिताहारश्चर्मचीरजटाधरः।। | 12-9-5a 12-9-5b |
शीतवातातपसहः क्षुत्पिपासाश्रमक्षमः। तपसा विधिदृष्टेन शरीरमुपशोषयन्।। | 12-9-6a 12-9-6b |
मनःकर्णसुखा नित्यं श्रृण्वन्नुच्चावचा गिरः। मुदितानामरण्येषु नदतां मृगपक्षिणाम्। | 12-9-7a 12-9-7b |
आजिघ्रन्पेशलान्गन्धान्फुल्लानां वृक्षवीरुधाम्।। नानारूपान्वने पश्यन्रमणीयान्वनौकसः।। | 12-9-8a 12-9-8b |
वानप्रस्थजनस्यापि दर्शनं कूलवासिनः। नाप्रियाण्याचरिष्यामि किंपुनर्ग्रामवासिनाम्।। | 12-9-9a 12-9-9b |
एकान्तशीली विमृशन्पक्वापक्वेन वर्तयन्। पितॄन्देवांश्च वन्येन वाग्भिरद्भिश्च तर्पयन्।। | 12-9-10a 12-9-10b |
एवमारण्यशास्त्राणामुग्रमुग्रतरं विधिम्। सेवमानः प्रतीक्षिष्ये देहस्यास्य समापनम्।। | 12-9-11a 12-9-11b |
अथवैकोऽहमेकाहमेकैकस्मिन्वनस्पतौ। चरन्भैक्षं मुनिर्मुण्डः क्षपयिष्ये कलेवरम्।। | 12-9-12a 12-9-12b |
पांसुभिः समभिच्छन्नः शून्यागारप्रतिश्रयः। वृक्षमूलनिकेतो वा त्यक्तसर्वप्रियाप्रियः।। | 12-9-13a 12-9-13b |
न शोचन्न प्रहृष्यंश्च तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः। निराशीर्निर्ममो भूत्वा निर्द्वन्द्वो निष्परिग्रहः।। | 12-9-14a 12-9-14b |
आत्मारामः प्रसन्नात्मा जडान्धबधिराकृतिः। अकुर्वाणः परैः कांचित्संविदं जातु कैरपि।। | 12-9-15a 12-9-15b |
जङ्गमाजङ्गमान्सर्वानविहिंसंश्चतुर्विधान्। प्रजाः सर्वाः स्वधर्मस्थाः समः प्राणभृतः प्रति।। | 12-9-16a 12-9-16b |
न चाप्यवहसन्कंचिन्न कुर्वन्भ्रुकुटीः क्वचित्। प्रसन्नवदनो नित्यं सर्वेन्द्रियसुसंयतः।। | 12-9-17a 12-9-17b |
अपृच्छन्कस्यचिन्मार्गं प्रव्रजन्नेव केनचित्। न देशं न दिशं कांचिद्गन्तुमिच्छन्विशेषतः।। | 12-9-18a 12-9-18b |
गमने निरपेक्षश्च पश्चादनवलोकयन्। ऋजुः प्रणिहितो गच्छन्स्त्रीसंस्थापरिवर्जकः।। | 12-9-19a 12-9-19b |
स्वभावस्तु प्रयात्यग्रे प्रभवन्त्यशनान्यपि। द्वन्द्वानि च विरुद्धानि तानि सर्वाण्यचिन्तयन्।। | 12-9-20a 12-9-20b |
अल्पं वा स्वादु वा भोज्यं पूर्वालाभेन जातुचित्। अन्येष्वपि चरँल्लाभमलाभे सप्त पूरयन्।। | 12-9-21a 12-9-21b |
विधूमे न्यस्तमुसले व्यङ्गारे भुक्तवज्जने। अतीतपात्रसंचारे काले विगतभिक्षुके।। | 12-9-22a 12-9-22b |
एककालं चरन्भैक्षं त्रीनथ द्वे च पञ्च वा। स्नेहपाशं विमुच्याहं चरिष्यामि महीमिमाम्।। | 12-9-23a 12-9-23b |
अलाभे सति वा लाभे समदर्शी महातपाः। न जिजीविषुवत्किंचिन्न मुमूर्षुवदाचरन्।। | 12-9-24a 12-9-24b |
जीवितं मरणं चैव नाभिनन्दन्न च द्विपन्। वास्यैकं तक्षतो बाहुं चन्दनेनैकपुक्षतः। नाकल्याणं न कल्याणं चिन्तयन्नुभयोस्तयोः।। | 12-9-25a 12-9-25b 12-9-25c |
याः काश्चिज्जीवता शक्याः कर्तुमभ्युदयक्रियाः। सर्वास्ताः समभित्यज्य निमेषादिव्यवस्थितः।। | 12-9-26a 12-9-26b |
तेषु नित्यमसक्तश्च त्यक्तसर्वेन्द्रियक्रियः। अपरित्यक्तसंकल्पः सुनिर्णिक्तात्मकल्मपः।। | 12-9-27a 12-9-27b |
विमुक्तः सर्वसङ्गेभ्यो व्यतीतः सर्ववागुराः। न वशे कस्यचित्तिष्ठन्सधर्मा मातरिश्वनः।। | 12-9-28a 12-9-28b |
वीतरागश्चरन्नेवं तुष्टिं प्राप्स्यामि मानसीम्। तृष्णया हि महत्पापमज्ञानादस्मि कारितः।। | 12-9-29a 12-9-29b |
कुशलाकुशलान्येके कृत्वा कर्माणि मानवाः। कार्यकारणसंश्लिष्टं स्वजनं नाम ब्रिभ्रति।। | 12-9-30a 12-9-30b |
आयुपोऽन्ते प्रहायेदं क्षीणप्राणं कलेवरम्। प्रतिगृह्णाति तत्पापं कर्तुः कर्मफलं हि तत्।। | 12-9-31a 12-9-31b |
एवं संसारचक्रेऽस्मिन्व्याविद्धे रथचक्रवत्। समेति भूतग्रामोऽयं भूतग्रामेण कार्यवान्।। | 12-9-32a 12-9-32b |
जन्ममृत्युजराव्याधिवेदनाभिरभिद्रुतम्। अपारमिव चास्वस्थं संसारं त्यजतः सुखम्।। | 12-9-33a 12-9-33b |
दिवः पतत्सु देवेषु स्थानेभ्यश्च महर्षिषु। को हि नाम भवेनार्थी भवेत्कारणतत्त्ववित्।। | 12-9-34a 12-9-34b |
कृत्वा हि विविधं कर्म तत्तद्विविधलक्षणम्। पार्थिवैर्नृपतिः स्वल्पैः कारणैरेव बध्यते।। | 12-9-35a 12-9-35b |
तस्मात्प्रज्ञामुतमिदं चिरान्मां प्रत्युपस्थितम्। तत्प्राप्य प्रार्थये स्थानमव्ययं शाश्वतं ध्रुवम्।। | 12-9-36a 12-9-36b |
एतया संततं धृत्या चरन्नेवंप्रकारया। जन्ममृत्युजराव्याधिवेदनाभिरभिद्रुतम्। देहं संस्थापयिष्यामि निर्भयं मार्गमास्थितः।। | 12-9-37a 12-9-37b 12-9-37c |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि नवमोऽध्यायः।। 9।। |
12-9-1 मुहूर्तं तावदेकाग्रो मनः श्रोत्रेऽन्तरात्मनि। धारयन्नपि तच्छुत्वा रोचेत वचनं ममेति झ. पाठः। 12-9-8 पेशलान्रभ्यान्।। 12-9-15 आत्मारामः योगेनात्मन्येव रममाणः। प्रसन्नात्मा शुद्धसत्वः। केनचिन्निमित्तेन संविदं संवादमकुर्वाणः कृत्याभावात्।। 12-9-16 चतुर्विधान् जंगमस्य जरायुजाण्डजस्वेदजभेदेन त्रैविध्यात्। स्वधर्मस्थाः प्राणभृत इन्द्रियपोषकाश्च प्रजाः प्रति सम इत्यन्वयः।। 12-9-18 केनचिन्मार्गेण।। 12-9-19 प्रणिहितोऽन्तर्मुखः।। 12-9-21 पूर्वालाभेन पूर्वस्मिन् गृहेऽलाभेः हेतुना जातु कदाचित्। अन्येष्वपि गृहेषु लाभं लब्धमन्नं चरन्भक्षयन्।। 12-9-22 भैक्षकालमाह विधूमे इति। गृहे इति शेषः।। 12-9-23 त्रीन्गृहान्।। 12-9-24 जिजीविषुवद्धनादिसंग्रहम्। मुमूर्षुवदन्नादित्यागम्।। 12-9-25 वासी तक्षायुधं तया।। 12-9-26 निमेषोन्मेषाशनपानादिशारीरनिर्वाहमात्रकर्मस्ववस्थित इतर्थः।। 12-9-27 तेष्वपि कर्मसु असक्तः। अपरित्यक्तो नित्यं वशीकृतः संकल्पो मनः क्रियायेन। दृढमना इत्यर्थः। सुनिर्णिक्तात्मकल्मषः सम्यग्दूरीकृतधीमलः।। 12-9-28 वागुराः स्नेहपाशान्।। 12-9-30 एके मूढाः कार्यकारणसंश्लिष्टं स्वसुखेन निमित्तभूतेन संलग्नं स्त्र्यादिकं बिभ्रत्यात्मोपकारकत्वेन पुष्णन्ति। कुशलाकुशलान्येवं कृत्वा कर्गाणि मानवः। कार्यकारणसंश्लियः स्वजनं नाभिनन्दति इति ड. पाठः।। 12-9-32 व्याविद्धे भ्राम्यमाणे। समेति संयोगमेति।। 12-9-35 विविधं सामाद्युपायवत् विविधलक्षणं नानाविधकपटादिरूपं कर्म कृत्वा स्वल्पैः पार्थिवैः क्षुद्रराजभिर्तृपतिर्महाराजो बध्यते। कारणैः स्वापमानादिभिर्हेतुभिः बहवो मिलित्वा एकं महान्तं घ्नन्तीत्यर्थः।। 12-9-36 यस्माद्दुःखमयं क्षयिष्णु च ऐश्वर्यं तस्मात्। स्थानं मोक्षम्। अव्ययमपक्षयशून्यम्। शाश्वतमनादि। ध्रुवं सदैकरूपम्।। 12-9-37 संस्थापयिष्यामि समापयिष्यामि।।
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