महाभारतम्-12-शांतिपर्व-060
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति आश्रमचतुष्टयधर्मकथनम्।। 1।।
भीष्म उवाच। | 12-60-1x |
आश्रमाणां महाबाहो शृणु सत्यपराक्रम। चतुर्णामपि नामानि कर्माणि च युधिष्ठिर।। | 12-60-1a 12-60-1b |
वानप्रस्थं भैक्षचर्यं गार्हस्थ्यं च महाश्रमम्। ब्रह्मचर्याश्रमं प्राहुश्चतुर्थं ब्रह्मणेरितम्।। | 12-60-2a 12-60-2b |
चूडाकरणसंस्कारं द्विजातित्वमवाप्य च। आधानादीनि कर्माणि प्राप्य वेदानधीत्य च।। | 12-60-3a 12-60-3b |
सदारो वाऽप्यदारो वा विनीतः संयतेन्द्रियः। वानप्रस्थाश्रमं गच्छेत्कृतकृत्यो गृहाश्रमात्।। | 12-60-4a 12-60-4b |
तत्रारण्यकशास्त्राणि समधीत्य स धर्मवित्। ऊर्ध्वरेताः प्रजा हित्वा गच्छत्यक्षरसात्मताम्।। | 12-60-5a 12-60-5b |
एतान्येव निमित्तानि मुनीनामूर्ध्वरेतसाम्। कर्तव्यानीह विप्रेण राजन्नादौ विपश्चिता।। | 12-60-6a 12-60-6b |
चरितब्रह्मचर्यस्य ब्राह्मणस्य विशांपते। भैक्षचर्यास्वधीकारः प्रशस्तो देहमोक्षणे।। | 12-60-7a 12-60-7b |
यत्रास्तमितशायी स्यान्निरग्निरनिकेतनः। यथोपलब्धजीवी स्यान्मुनिर्दान्तो जितेन्द्रियः।। | 12-60-8a 12-60-8b |
निराशीर्निर्नमस्कारो निर्भोगो निर्विकारवान्। विप्रः क्षेमाश्रमं प्राप्तो गच्छत्यक्षरसात्मताम्।। | 12-60-9a 12-60-9b |
अधीत्य वेदान्कृतसर्वकृत्यः संतानमुत्पाद्य सुखानि भुक्त्वा। समाहितः प्रचरेद्दुश्चरं तं गार्हस्थ्यधर्मं मुनिधर्मजुष्टम्।। | 12-60-10a 12-60-10b 12-60-10c 12-60-10d |
स्वदारतुष्टस्त्वृतुकालगामी नियोगसेवी न शठो न जिह्नः। मिताशनो देवरतः कृतज्ञः सत्यो मृदुश्चानृशंसः क्षमावान्।। | 12-60-11a 12-60-11b 12-60-11c 12-60-11d |
दान्तो विधेयो हव्यकव्याप्रमत्तो ह्यन्नस्य दाता सततं द्विजेभ्यः। अमत्सरी सर्वलिङ्गप्रदाता वैताननित्यश्च गृहाश्रमी स्यात्।। | 12-60-12a 12-60-12b 12-60-12c 12-60-12d |
अथात्र नारायणगीतमाहु र्महर्षयस्तात महानुभावाः। महार्थमत्यन्ततपः प्रयुक्तं तदुच्यमानं हि मया निबोध।। | 12-60-13a 12-60-13b 12-60-13c 12-60-13d |
सत्यार्जवं चातिथिपूजनं च धर्मस्तथार्थश्च रतिः स्वदारैः। निषेवितव्यानि सुखानि लोके ह्यस्मिन्परे चैव मतं ममैतत्।। | 12-60-14a 12-60-14b 12-60-14c 12-60-14d |
भरणं पुत्रदाराणां वेदानां चानुपालनम्। सेवतामाश्रमं श्रेष्ठं वदन्ति परमर्षयः।। | 12-60-15a 12-60-15b |
एवं हि यो ब्राह्मणो यज्ञशीलो गार्हस्थ्यमध्यावसते यथावत्। गृहस्थवृत्तिं प्रतिगाह्य सम्य क्स्वर्गे विशुद्धं फलमश्नुते सः।। | 12-60-16a 12-60-16b 12-60-16c 12-60-16d |
तस्य देहं परित्यज्य इष्टकामाक्षया मताः। आनन्त्यायोपकल्पन्ते सर्वतोक्षिशिरोमुखाः।। | 12-60-17a 12-60-17b |
वसन्नेको जपन्नेकः सर्वान्वेदान्युधिष्ठिर। एकस्मिन्नेव चाचार्ये शुश्रूषुर्मलपङ्कवान्।। | 12-60-18a 12-60-18b |
ब्रह्मचारी व्रती नित्यं नित्यं दीक्षापरो वशी। `गुरुच्छायानुगो नित्यमधीयानः सुयन्त्रितः।' अविचाल्यव्रतोपेतं कृत्यं कुर्वन्वसेत्सदा।। | 12-60-19a 12-60-19b 12-60-19c |
शुश्रूषां सततं कुर्वन्गुरोः संप्रणमेत च। षट्कर्मस्वनिवृत्तश्च न प्रवृत्तश्च सर्वशः।। | 12-60-20a 12-60-20b |
नाचरत्यधिकारेण सेवेत द्विषतो न च। एषोऽऽश्रमपदस्तात ब्रह्मचारिण इष्यते।। | 12-60-21a 12-60-21b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि षष्टितमोऽध्यायः।। 60।। |
12-60-2 क्रमो न विवक्षितः। चतुर्थं ब्राह्मणैर्वृतमिति झ. पाठः।। 12-60-5 अक्षरसाम्यतमिति ट. द. पाठः।। 12-60-6 एतानि द्विजत्वावाप्त्यादीनि।। 12-60-7 मध्यममाश्रमद्वयमनित्यमित्याह चरितेति।। 12-60-11 शठो धूर्तः। जिह्नः कुटिलः।। 12-60-12 विधेयः गुरुशास्त्राज्ञापालकः। अप्रमत्तः अवहितः। सर्वेभ्यो लिङ्गयुक्तेभ्य आश्रमेभ्यः प्रदाताऽन्नादेः। लिङ्गप्रदातेति मध्यमपदलोपी समासः। वैतानं श्रौतकर्म तत्र नित्यः।। 12-60-17 कामाः अक्षया इति च्छेदः। संधिरार्षः। सर्वतोक्षिशिरोमुखा इत्यनेन यत्रय देशे काले वा योग्यं संकल्पयति तत्सर्वं सद्य उपतिष्ठतीत्यर्थः।।
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