महाभारतम्-12-शांतिपर्व-283
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति कालस्य द्रुततरपातितया सद्यस्साधनस्य संपादनीयत्वे प्रमाणतया पितृपुत्रसंवादानुवादः।। 1।।
* युधिष्ठिर उवाच। | 12-283-1x |
अतिक्रामति कालेऽस्मिन्सर्वभूतभयावहे। किं श्रेयः प्रतिपद्येत तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-283-1a 12-283-1b |
भीष्म उवाच। | 12-283-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। पितुः पुत्रेण संवादं तं निबोध युधिष्ठिर।। | 12-283-2a 12-283-2b |
द्विजातेः कस्यजित्पार्थ स्वाध्यायनिरतस्य वै। पुत्रो बभूव मेधावी मेधावी नाम नामतः।। | 12-283-3a 12-283-3b |
सोऽब्रवीत्पितरं पुत्रः स्वाध्यायकरणे रतम्। मोक्षधर्मेष्वकुशलं मोक्षधर्मविचक्षणः।। | 12-283-4a 12-283-4b |
पुत्र उवाच। | 12-283-5x |
धीरः किंस्वित्तात कुर्यात्प्रजानन् क्षिप्रं ह्यायुर्भ्रश्यते मानवानाम्। पितस्तथाऽऽख्याहि यथार्थयोगं ममानुपूर्व्या येन धर्मं चरेयम्।। | 12-283-5a 12-283-5b 12-283-5c 12-283-5d |
पितोवाच। | 12-283-6x |
अधीत्य वेदान्ब्रह्मचर्येषु पुत्र पुत्रानिच्छेत्पावनार्थं पितृणाम्। अग्नीनाधाय विधिवच्चेष्टयज्ञो वनं प्रविश्याथ मुनिर्बुभूषेत्।। | 12-283-6a 12-283-6b 12-283-6c 12-283-6d |
पुत्र उवाच। | 12-283-7x |
एवमभ्याहते लोके सर्वतः परिवारिते। अमोधासु पतन्तीषु किं धीर इव भाषसे।। | 12-283-7a 12-283-7b |
पितोवाच। | 12-283-8x |
कथमभ्याहतो लोकः केन वा परिवारितः। अमोघाः काः पतन्तीह किंनु भीषयसीव माम्।। | 12-283-8a 12-283-8b |
पुत्र उवाच। | 12-283-9x |
मृत्युनाऽऽभ्याहतो लोको जस्या परिवारितः। अहोरात्राः पतन्तीमे तच्च कस्मान्न बुध्यसे।। | 12-283-9a 12-283-9b |
यदाहमेव जानामि न मृत्युस्तिष्ठतीति ह। सोहं कथं प्रतीक्षिप्ये ज्ञानेनापिहितश्चरन्।। | 12-283-10a 12-283-10b |
रात्र्यांरात्र्यां व्यतीतायामायुरल्पतरं यदा। गाधोदके मत्स्य इव सुखं विन्देत कस्तदा।। | 12-283-11a 12-283-11b |
`यामेकरात्रिं प्रथमां गर्भो विशति मातरम्। तामेव रात्रिं प्रस्वाप्य मरणाय विवर्तकः।।' | 12-283-12a 12-283-12b |
पुष्पाणीव विचिन्वन्तमन्यत्र गतमानसम्। अनवाप्तेषु कामेषु मृत्युरभ्येति गानवम्।। | 12-283-13a 12-283-13b |
श्वः कार्यमद्य कुर्वीत पूर्वाङ्गे चापराहिकम्। न हि प्रतीक्षते मृत्युः कृतं वाऽस्य न वा कृतम्।। | 12-283-14a 12-283-14b |
अद्यैव कुरु यच्छ्रेयो मा त्वां कालोऽत्यगान्महान्। को हि जानाति कस्याद्य मृत्युकालो मविष्यति।। | 12-283-15a 12-283-15b |
अकृतेष्वेव कार्येषु मृत्युर्वै संप्रकर्षति। युवैव धर्मशीलः स्यादनिमित्तं हि जीवितम्।। | 12-283-16a 12-283-16b |
कृते धर्म भवेत्प्रीतिरिह प्रेत्य च शाश्वती। मोहेन हि समाविष्टः पुत्रदारार्तमुद्यतः।। | 12-283-17a 12-283-17b |
कृत्वा कार्यमकार्यं वा तुष्टिमेषां प्रयच्छति। तं पुत्रपशुसंपन्नं व्याभक्तमनसं नरम्।। | 12-283-18a 12-283-18b |
सप्तं व्यायं महौघो वा मृत्युरादाय गच्छति। संविन्वानकमेवैनं कामानामवितृप्तकम्।। | 12-283-19a 12-283-19b |
वृकीवोरपमासाद्य मुत्युरादाय गच्छति। इदं कृतमिदं कार्यमिदमन्यत्कृताकृतम्।। | 12-283-20a 12-283-20b |
एवमीहासमायुक्तं मृत्युरादाय गच्छति। कृतानां फलमप्राप्तं कार्याणां कर्मसङ्गिनाम्।। | 12-283-21a 12-283-21b |
क्षेत्रापणगृहासक्तं मृत्युरादाय गच्छति। दुर्बलं बलवन्तं च प्राज्ञं शूरं जडं कविम्।। | 12-283-22a 12-283-22b |
अप्राप्तसर्वकामार्थं मृत्युरादाय गच्छति। मृत्युर्जरा च व्याधिश्चदुःखं चानेककारणम्।। | 12-283-23a 12-283-23b |
असंत्याज्यं यदा मर्त्यैः किं स्वस्थ इव तिष्ठति। जातमेवान्तकोऽन्ताय जरा चाभ्येति देहिनम्।। | 12-283-24a 12-283-24b |
अनुषक्ता द्वयेनैते भावाः स्थावरजङ्गमाः। न मृत्युसेनामायान्तीं जातु कश्चित्प्रबाधते।। | 12-283-25a 12-283-25b |
बलात्सत्यमृते त्वेकं सत्ये ह्यमृतमाश्रितम्। मृत्योर्वा गृहमेतद्वै या ग्रामे वसतो रतिः।। | 12-283-26a 12-283-26b |
देवानामेषु वै गोष्ठो यदरण्यमिति श्रुतिः। निबन्धनी रज्जुरेषा या ग्रामे वसतो रतिः।। | 12-283-27a 12-283-27b |
छित्त्वैनां सुकृतो यान्ति नैनां छिन्दन्ति दुष्कृतः। यो न हिंसति सत्वानि मनोवाक्कर्महेतुभिः।। | 12-283-28a 12-283-28b |
जीवितार्थापनयनैः प्राणिभिर्न स बध्यते। तस्मात्सत्यव्रताचारः सत्यव्रतपरायणः।। | 12-283-29a 12-283-29b |
सत्यकामः समो दान्ताः सत्येनैवान्तकं जयेत्। अमृतं चैव मृत्युश्च द्वयं देहे प्रतिष्ठितम्।। | 12-283-30a 12-283-30b |
मृत्युरापद्यते मोहात्सत्येनापद्यतेऽमृतम्। सोहं सत्यमहिंसाथीं कामक्रोधबहिष्कृतः।। | 12-283-31a 12-283-31b |
समाश्रित्य सुखं क्षेमी मृत्युं हास्याम्यमृत्युवत्। शान्तियज्ञरतो दान्तो ब्रह्मयज्ञे स्थितो मुनिः।। | 12-283-32a 12-283-32b |
वाङ्भनः कर्मयज्ञश्च भविष्याम्युदगायने। पशुयज्ञैः कथं हिंस्रैर्मादृशो यष्टुमर्हति।। | 12-283-33a 12-283-33b |
अन्तवद्भिरुत प्राज्ञः क्षत्रयज्ञैः पिशाचवत्। आत्मन्येवात्मना जात आत्मनिष्ठोऽप्रजः पितः।। | 12-283-34a 12-283-34b |
आत्मयज्ञो भविष्यामि न मां तारयति प्रजा। यस्य वाङ्भनसी स्यातां सम्यक्प्रणिहिते सदा।। | 12-283-35a 12-283-35b |
तपस्त्यागश्च योगश्च स तैः सर्वमवाप्नुयात्। नास्ति विद्यासमं चक्षुर्नास्ति विद्यासमं फलम्।। | 12-283-36a 12-283-36b |
नास्ति रागसमं दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम्।। | 12-283-37a |
नैतादृशं ब्राह्मणस्यास्ति वित्तं यथैकता समता सत्यता च। शीले स्थितिर्दण्डविधानमार्जवं ततस्ततश्चोपरमः क्रियाभ्यः।। | 12-283-38a 12-283-38b 12-283-38c 12-283-38d |
किं ते धनैर्बान्धवैर्वाऽपि किं ते किं ते दारैब्राह्मण यो मरिष्यसि। आत्मानमन्विच्छ गृहा प्रविष्टं पितामहास्ते क्व गताः पिता च।। | 12-283-39a 12-283-39b 12-283-39c 12-283-39d |
भीष्म उवाच। | 12-283-40x |
पुत्रस्यैतद्वचः श्रुत्वा तथाकार्षीत्पिता नृप। तथा त्वमपि राजेन्द्र सत्यधर्मपरो भव।। | 12-283-40a 12-283-40b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि त्र्यशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 283।। |
* यद्यप्ययमध्यायः पूर्वत्र 174 तमाध्यायतया स्थापितः। तथापि ड. थे. तरपुस्तकेषु द्वितीयवारमत्रापि दृश्यमानतयाऽस्माभिरत्रापि स्थापितः।
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