महाभारतम्-12-शांतिपर्व-177
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति प्रपञ्चस्यानित्यत्वादिज्ञानपूर्वकविरक्तेः सुखहेतुतायां प्रमाणतया प्रह्लादाजगरमुनिसंवादानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-177-1x |
केन वृत्तेन वृत्तज्ञ वीतशोकश्चरेन्महीम्। किंच कुर्वन्नरो लोके प्राप्नोति गतिमुत्तमाम्।। | 12-177-1a 12-177-1b |
भीष्म उवाच। | 12-177-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। प्रह्लादस्य च संवादं मुनेराजगरस्य च।। | 12-177-2a 12-177-2b |
चरन्तं ब्राह्मणं कंचित्कल्यचित्तमनामयम्। पप्रच्छ राजा प्रह्लादो बुद्धिमान्प्राज्ञसत्तमः।। | 12-177-3a 12-177-3b |
प्रह्लाद उवाच। | 12-177-4x |
स्वस्थः शक्तो मृदुर्दान्तो निर्विधित्सोऽनसूयकः। सुवाग्बहुमतो लोके प्राज्ञश्चरसि बालवत्।। | 12-177-4a 12-177-4b |
नैव प्रार्थयसे लाभं नालाभेष्वनुशोचसि। नित्यतृप्त इव ब्रह्मन्न किंचिदिव मन्यसे।। | 12-177-5a 12-177-5b |
स्रोतसा ह्रियमाणासु प्रजासु विमना इव। धर्मकामार्थकार्येषु कूटस्थ इव लक्ष्यसे।। | 12-177-6a 12-177-6b |
नानुतिष्ठसि धर्मार्थौ न कामे चापि वर्तसे। इन्द्रियार्थाननादृत्य मुक्तश्चरसि साक्षिवत्।। | 12-177-7a 12-177-7b |
का नु प्रज्ञा श्रुतं वा किं वृत्तिर्वा का नु ते मुने। क्षिप्रमाचक्ष्व मे ब्रह्मञ्श्रेयो यदिह मन्यसे।। | 12-177-8a 12-177-8b |
भीष्म उवाच। | 12-177-9x |
अनुयुक्तः स मेधावी लोकधर्मविधानवित्। उवाच श्लक्ष्णया वाचा प्रह्लादमनपार्थया।। | 12-177-9a 12-177-9b |
पश्य प्रह्लाद भूतानामुत्पत्तिमनिमित्ततः। ह्रासं वृद्धिं विनाशं च न प्रहृष्ये न च व्यथे।। | 12-177-10a 12-177-10b |
स्वभावादेव संदृश्या वर्तमानाः प्रवृत्तयः। स्वभावनिरताः सर्वाः प्रतिपाद्या न केनचित्।। | 12-177-11a 12-177-11b |
पश्य प्रह्लाद संयोगान्विप्रयोगपरायणान्। संचयांश्च विनाशान्तान्न क्वचिद्विदधे मनः।। | 12-177-12a 12-177-12b |
अन्तवन्ति च भूतानि गुणयुक्तानि पश्यतः। उत्पत्तिनिधनज्ञस्य किं पर्यायेणोपलक्षये। | 12-177-13a 12-177-13b |
जलजानामपि ह्यन्तं पर्यायेणोपलक्षये। महतामपि कायानां सूक्ष्माणां च महोदधौ।। | 12-177-14a 12-177-14b |
जङ्गमस्थावराणां च भूतानामसुराधिप। पार्थिवानामपि व्यक्तं मृत्युं पश्यामि सर्वशः।। | 12-177-15a 12-177-15b |
अन्तरिक्षचराणां च दानवोत्तमपक्षिणाम्। उत्तिष्ठते यथाकालं मृत्युर्बलवतामपि।। | 12-177-16a 12-177-16b |
दिवि संचरमाणानि ह्रस्वानि च महान्ति च। ज्योतींष्यपि यथाकालं पतमानानि लक्षये।। | 12-177-17a 12-177-17b |
इति भूतानि संपश्यन्ननुषक्तानि मृत्युना। सर्वं सामान्यतो विद्वान्कृतकृत्यः सुखं स्वपे।। | 12-177-18a 12-177-18b |
सुमहान्तमपि ग्रासं ग्रसे लब्धं यदृच्छया। शये पुनरभुञ्जानो दिवसानि बहून्यपि।। | 12-177-19a 12-177-19b |
आशयन्त्यपि मामन्नं पुनर्बहुगुणं बहु। पुनरल्पं पुनस्तोकं पुनर्नैवोपपद्यते।। | 12-177-20a 12-177-20b |
कणं कदाचित्खादामि पिण्याकमपि च ग्रसे। भक्षये शालिमांसानि भक्षांश्चोच्चावचान्पुनः।। | 12-177-21a 12-177-21b |
शये कदाचित्पर्यङ्के भूमावपि पुनः शये। प्रासादे चापि मे शय्या कदाचिदुपपद्यते।। | 12-177-22a 12-177-22b |
धारयामि च चीराणि शाणक्षौमाजिनानि च। महार्हाणि च वासांसि धारयाम्यहमेकदा।। | 12-177-23a 12-177-23b |
न सन्निपतितं धर्म्यमुपभोगं यदृच्छया। प्रत्याचक्षे न चाप्येनमनुरुध्ये सुदुर्लभम्।। | 12-177-24a 12-177-24b |
अचलमनिधनं शिवं विशोकं शुचिमतुलं विदुषां मते प्रविष्टम्। अनभिमतमसेवितं विमूढै र्व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि।। | 12-177-25a 12-177-25b 12-177-25c 12-177-25d |
अचलितमतिरच्युतः स्वधर्मा त्परिमितसंसरणः परावरज्ञः। विगतभयकषायलोभमोहो व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि।। | 12-177-26a 12-177-26b 12-177-26c 12-177-26d |
अनियतफलभक्ष्यभोज्यपेयं विधिपरिणामविभक्तदेशकालम्। हृदयसुखमसेवितं कदर्यै र्व्रतमिदमाजगरं सुचिश्चरामि।। | 12-177-27a 12-177-27b 12-177-27c 12-177-27d |
इदमिदमिति तृष्णयाऽभिभूतं जनमनवाप्तधनं विषीदमानम्। निपुणमनुनिशाम्य तत्त्वबुद्ध्या व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि।। | 12-177-28a 12-177-28b 12-177-28c 12-177-28d |
बहुविधमनुदृश्य चार्थहेतोः कृपणमिहार्यमनार्यमाश्रयं तम्। उपशमरुचिरात्मवान्प्रशान्तो व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि।। | 12-177-29a 12-177-29b 12-177-29c 12-177-29d |
सुखमसुखमलाभमर्थलाभं रतिमरतिं मरणं च जीवितं च। विधिनियतमवेक्ष्य तत्त्वतोऽहं व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि।। | 12-177-30a 12-177-30b 12-177-30c 12-177-30d |
अपगतभयरागमोहदर्पो धृतिमतिबुद्धिसमन्वितः प्रशान्तः। उपगतफलभोगिनो निशाम्य व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि।। | 12-177-31a 12-177-31b 12-177-31c 12-177-31d |
अनियतशयनासनः प्रकृत्या दमनियमव्रतसत्यशौचयुक्तः। अपगतफलसंचयः प्रहृष्टो व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि।। | 12-177-32a 12-177-32b 12-177-32c 12-177-32d |
अपगतमसुखार्थमीहनार्थै रुपगतबुद्धिरवेक्ष्य चात्मसंस्थम्। तृपितमनियतं मनो नियन्तुं व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि।। | 12-177-33a 12-177-33b 12-177-33c 12-177-33d |
न हृदयमनुरुध्यते मनो वा प्रियसुखदुर्लभतामनित्यतां च। तदुभयमुपलक्षयन्निवाहं व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि।। | 12-177-34a 12-177-34b 12-177-34c 12-177-34d |
बहु कथितमिदं हि बुद्धिमद्भिः कविभिरपि प्रथयद्भिरात्मकीर्तिम्। इदमिदमिति तत्रतत्र हन्त स्वपरमतैर्गहनं प्रतर्कयद्भिः।। | 12-177-35a 12-177-35b 12-177-35c 12-177-35d |
तदिदमनुनिशाम्य विप्रपातं पृथगभिपन्नमिहाबुधैर्मनुष्यैः। अनवसितमनन्तदोषपारं नृपु विहरामि विनीतदोषतृष्णः।। | 12-177-36a 12-177-36b 12-177-36c 12-177-36d |
भीष्म उवाच। | 12-177-37x |
अजगरचरितं व्रतं महात्मा य इह नरोऽनुचरेद्विनीतरागः। अपगतभयलोभमोहमन्युः स खलु सुखी विचरेदिमं विहारम्।। | 12-177-37a 12-177-37b 12-177-37c 12-177-37d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि सप्तसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 177।। |
12-177-2 आजगरस्याऽजगरवृत्त्या जीवतः।। 12-177-4 निर्विधित्सो निरारम्भः।। 12-177-6 स्रोतसा कामादिवेगेन। कूटस्थो निर्व्यापारः।। 12-177-7 इन्द्रियार्थान् गन्धरसादीननादृत्य चरसि तन्निर्वाहमात्रार्थी अश्नासि।। 12-177-8 प्रज्ञा तत्त्वदर्शनम्। श्रुतं तन्मूलभूतं शास्त्रम्। वृत्तिस्तदर्थानुष्ठानम्। श्रेयो ममेति शेषः।। 12-177-9 अनुयुक्तः पृष्टः। लोकस्य धर्मो जन्मजरादिस्तस्य विधानं कारणं तदभिज्ञः लोकधर्मविधानवित्।। 12-177-10 अनिमित्ततः कारणहीनाद्ब्रह्मणः। पश्य आलोचय।। 12-177-12 तस्मादहं मनो न क्वचिद्विषये विदधे धारयामि तद्विनाशे शोकोत्पत्तिं जानन्।। 12-177-15 पार्थिवानां पृथिवीस्थानाम्।। 12-177-19 आजगरीं वृत्तिं प्रपञ्चयति सुमहान्तमित्यादिना।। 12-177-20 आशयन्ति भोजयन्ति।। 12-177-26 कषायः रागद्वेषादिः।। 12-177-28 धनप्राप्तौ कर्मैव कारणं न पौरुषमिति धिया निशाम्यालोच्य।। 12-177-29 अर्थहेतोरनार्यं नीचम्। अर्यं स्वामिनगाश्रयति यः कृपणो दीनजनस्तमनुदृश्योपशमरुचिः। आत्मवान् जितचित्तः।। 12-177-30 विधिनियतं दैवाधीनम्।। 12-177-31 मतिरालोचनम्। बुद्धिर्निश्चयः। उपगतं समीपागतं फलं प्रियं येषां तान् भोगिनः सर्पान् अजगरान् निशाम्य दृष्ट्वा। फलभोगिन इति मध्यमपदलोपः।। 12-177-32 प्रकृत्या दमादियुक्तः अपगतफलसंचयस्त्यक्तयोगफलसमूहः।। 12-177-33 एषणाविषयैः पुत्रवित्तादिर्भिर्हेतुभिः। असुखार्थं परिणामे दुःखार्थम्। अपगतमात्मनः पराङ्भुखं तृषितमनियतं च मनोऽवेक्ष्य। उपगतबुद्धिर्लव्धालोकः। आत्मसंस्थमात्मनि संस्था समाप्तिर्यस्य तत्तथा तुं व्रतं चरामि।।
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