महाभारतम्-12-शांतिपर्व-211
← शांतिपर्व-210 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-211 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-212 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति गरुडेनात्मानं प्रत्युक्तश्रीभगवन्महिमानुवादः।। 1।।
* युधिष्ठिर उवाच। | 12-211-1x |
देवानुरमनुष्येषु ऋषिमुख्येषु वा पुनः। विष्णोस्तत्वं यथाख्यातं को विद्वाननुवेत्ति तत्।। | 12-211-1a 12-211-1b |
एतन्मे सर्वमाचक्ष्व न मे तृप्तिर्हि तत्वतः। वर्तते भरतश्रेष्ठ सर्वज्ञोऽसीति मे मतिः।। | 12-211-2a 12-211-2b |
भीष्म उवाच। | 12-211-3x |
कारितोऽहं त्वया राजन्यदॄत्तं च पुरा मम। गरुडेन पुरा मह्यं संवादोऽभूभृतोत्तम्।। | 12-211-3a 12-211-3b |
पुराहं तप आस्थाय वासुदेवपरायणः। ध्यायन्स्तुवन्नमस्यंश्च यजमानस्तमेवच। गङ्गद्वीपे समासीनो दशवर्षाणि भारत।। | 12-211-4a 12-211-4b 12-211-4c |
माता च मम ता देवी जननी लोकपावनी। समासीना समीपे मे रक्षणार्थं ममाच्युत।। | 12-211-5a 12-211-5b |
तस्मिन्कालेऽद्भुतः श्रीमान्सर्ववेदमयः प्रभुः। सुपर्णः पततांश्रेष्ठो मेरुमन्दरसन्निभः। आजगाम विशुद्धात्मा गङ्गां द्रष्टुं महायशाः।। | 12-211-6a 12-211-6b 12-211-6c |
तमागतं महात्मानं प्रत्युद्गम्याहमर्थितः। प्रणिपत्य यथान्यायं कृताज्जलिरवस्थितः।। | 12-211-7a 12-211-7b |
सोऽपि देवो महाभागामभिनन्द्य च जाह्नवीम्। तथा च पूजितः श्रीमानुणेपाविशदासने।। | 12-211-8a 12-211-8b |
ततः कथान्तरे तं वै वचनं चेदमव्रवम्। वेदवेद महावीर्य वैनतेग महाबल।। | 12-211-9a 12-211-9b |
नारायणं हृषीकेशं सहमानोऽनिशं हरिम्। जानासि तं यथा वक्तुं यादृग्भूतो जनार्दनः। ममापि तस्य सद्भातं वक्तुमर्हसि सत्तम।। | 12-211-10a 12-211-10b 12-211-10c |
गरुड उवाच। | 12-211-11x |
शृणु भीष्म यथान्यायं पुरा त्वमिह सत्तमाः। अनेके पुनयः सिद्धा मानसोत्तरवासिनः।। पगच्छुर्मा महाप्राज्ञा वासुदेवपरायणाः।। | 12-211-11a 12-211-11b 12-211-11c |
पक्षीन्द्र वासुदेवस्य तत्वं वेत्सि परं पदम्। स्वसा सयो न तस्यास्ति सन्निकृष्टप्रियोपि च।। | 12-211-12a 12-211-12b |
तेषामहं वचः श्रुत्वा प्रणिपत्य महाहरिम्। अब्रवं च यथावृत्तं मम नारायणस्य च।। | 12-211-13a 12-211-13b |
शृणुध्वं मुनिशार्दूला हृत्वा सोममहं पुरा। आकाशे पतमानस्तु वाक्यं तत्र शृणोमि वै।। | 12-211-14a 12-211-14b |
साधुसाधु महाबाहो प्रीतोस्मि तव दर्शनात्। वृणीष्व वचनं मत्तः पक्षीन्द्र गरुडाधुना।। | 12-211-15a 12-211-15b |
त्वामहं भक्तितत्वज्ञो ब्रवै वचनमुत्तमम्। इत्याह स्म ध्रुवं तत्र मामाह भगवान्पुनः।। | 12-211-16a 12-211-16b |
ऋषिरस्मि महावीर्य न मां जानाति वा मयि। असूयति च मां मूढ तच्छ्रुत्वा गर्वमास्थितः।। | 12-211-17a 12-211-17b |
अहं देवनिकायानां मध्ये वचनमब्रवम्। ऋषे पूर्वं वरं मत्तस्त्वं वृणीष्व ततो ह्यहम्। वृणे त्वत्तो वरं पश्चादित्येवं मुनिसत्तमाः।। | 12-211-18a 12-211-18b 12-211-18c |
तस्मात्त्वां भगवान्देवः श्रीमाञ्श्रीवत्सलक्षणः। अद्य पश्यति पक्षीन्द्र वाहनं भव मे सदा। वृणेऽहं वरमेतद्धि त्वत्तोऽद्य पतगेश्वर।। | 12-211-19a 12-211-19b 12-211-19c |
तथेति तं वीक्ष्य मातामनहंकारमास्थितम्। जेतुकामो ह्यहं विष्णुं मायया मायिनं हरिम्।। | 12-211-20a 12-211-20b |
त्वत्तो ह्यहं वृणे त्वद्य वरं ऋषिवरोत्तम। तवोपरिष्टात्स्थास्यामि वरमेतत्प्रयच्छ मे।। | 12-211-21a 12-211-21b |
तथेति च हसन्प्राह हरिर्नारायणः प्रभुः। ध्वजं च मे भव सदा त्वमेव विहगेश्वर। उपरिष्टात्स्थितिस्तेऽस्तु मम पक्षीन्द्र सर्वदा।। | 12-211-22a 12-211-22b 12-211-22c |
इत्युक्त्वा भगवान्देवः शङ्खचक्रगदाधरः। सहस्रचरणः श्रीमान्सहस्रादित्यसन्निभः।। | 12-211-23a 12-211-23b |
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्रनयनो महान्। सहस्रमकुटोऽचिन्त्यः सहस्रवदनो विभुः।। | 12-211-24a 12-211-24b |
विद्युन्मालानिभैर्दिव्यैर्नानाभरणराजिभिः। क्वचित्संदृश्यमानस्तु चतुर्बाहुः क्वचिद्वरिः।। | 12-211-25a 12-211-25b |
क्वचिज्ज्योतिर्मयोचिन्त्यः क्वचित्स्कन्धे समाहितः। एवं मम जयन्देवस्तत्रैवान्तरधीयत।। | 12-211-26a 12-211-26b |
ततोऽहं विस्मयापन्नः कृत्वा कार्यमनुत्तमम्। अस्याविमुच्य जननीं मया सह मुनीश्वराः।। | 12-211-27a 12-211-27b |
अचिन्त्योऽयमहं भूयः कोऽसौ मामब्रवीत्पुरा। कीदृग्विधः स भगवानिति मत्वा तमास्थितः।। | 12-211-28a 12-211-28b |
अनन्तरं देवदेवं स्कन्धे मम समाश्रितम्। अद्राक्षं पुण्डरीकाक्षं वहमानोऽहमद्भुतम्।। | 12-211-29a 12-211-29b |
अवशस्तस्य भावेन यत्र यत्र स चेच्छति। विस्मयापन्नहृदयो ह्यहं किमिति चिन्तयन्। अन्तर्जलमहं सर्वं वहमानोऽगमं पुनः।। | 12-211-30a 12-211-30b 12-211-30c |
सेन्द्रैर्देवैर्महाभागैर्ब्रह्माद्यैः कल्पजीविभिः। स्तूयमानो ह्यहमपि तैस्तैरभ्यर्चितः पृथक्।। | 12-211-31a 12-211-31b |
क्षीरोदस्योत्तरे कूले दिव्ये मणिमये शुभे। वैकर्णनाम सदनं हरेस्तस्य महात्मनः।। | 12-211-32a 12-211-32b |
दिव्यं तेजोमयं श्रीमदचिन्त्यममरैरपि। तेजोनिलमयैः स्तम्भैर्नानासंस्थानसंस्थितैः।। | 12-211-33a 12-211-33b |
विभूषितं हिरण्येन भास्वरेण समन्ततः। दिव्यं ज्योतिः समायुक्तं गीतवादित्रशोभितम्।। | 12-211-34a 12-211-34b |
शृणोमि शब्दं तत्राहं न पश्यामि शरीरिणम्। न च स्थलं न चान्यच्च पादयोस्तं समन्ततः। वेपमानो ह्यहं तत्र विष्ठितोऽहं कृताञ्जलिः।। | 12-211-35a 12-211-35b 12-211-35c |
ततो ब्रह्मादयो देवा लोकपालास्तथैव च। सनन्दनाद्या मुनयस्तथाऽन्ये परजीविनः।। | 12-211-36a 12-211-36b |
प्राप्तास्तत्र सभाद्वारि देवगन्धर्वसत्तमाः। ब्रह्माणं परतः कृत्वा कृताञ्जलिपुटास्तदा।। | 12-211-37a 12-211-37b |
ततस्तदन्तरे तस्मिन्क्षीरोदार्णवशीकरैः। बोध्यमानो महाविष्णुराविर्भूत इवाबभौ।। | 12-211-38a 12-211-38b |
फणासहस्रमालाढ्यं शेषमव्यक्तसंस्थितम्। पश्याम्यहं मुदाऽऽकाशे यस्योपरि जनार्दनम्।। | 12-211-39a 12-211-39b |
दीर्घवृत्तैः समैः पीनैः केयूरवलयोज्ज्वलैः। चर्तुभिर्बाहुभिर्युक्तं------------।। | 12-211-40a 12-211-40b |
पिताम्बरेण संवीतं कौस्तुभेन विराजितम्। वक्षस्थलेन संयुक्तं पद्मयाऽधिष्ठितेन च।। | 12-211-41a 12-211-41b |
ईषदुन्मीलिताक्षं तं सर्वकारणकारणम्। क्षीरोदस्योपरि बभौ नीलाभ्रं परमं यथा।। | 12-211-42a 12-211-42b |
न कश्चिद्वदते कश्चिन्न व्याहरति कश्चन। ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तं माशब्दमिति रोषितम्। भ्रुकुटीकुटिलाक्षास्ते नानाभूतगणाः स्थिताः।। | 12-211-43a 12-211-43b 12-211-43c |
कृत्वा च प्रस्थितं तत्र जगतां हितकाम्यया। गच्छध्वमिति मामुक्त्वा गरुडेत्याह मां ततः।। | 12-211-44a 12-211-44b |
ततोऽहं प्रणिपत्याग्रे कृताञ्जलिरवस्थितः। आगच्छेति च मामुक्त्वा पूर्वोत्तरपथं गतः।। | 12-211-45a 12-211-45b |
अतीव मृदुभावेन गच्छन्निव स दृश्यते। अयुतं नियुतं चाहं प्रयुतं चार्बुदं तथा। पतमानोऽहमनिशं योजनानि ततस्ततः।। | 12-211-46a 12-211-46b 12-211-46c |
ननु तत्वमहं भक्तो विष्ठितोस्मि प्रशास्तु नः। आगच्छ गरुडेत्येवं पुनराह स माधवः।। | 12-211-47a 12-211-47b |
ततो भूयो ह्यहं पातं पतमानो विहायसम्। आजगाम ततो घोरं शतकोटिसमावृतम्।। | 12-211-48a 12-211-48b |
तामसानीव भूतानि पर्वताभानि तत्र ह। समानानीव पद्मानि ततोऽहं भीत आस्थितः।। | 12-211-49a 12-211-49b |
ततो मां किंकरो घोरः शतयोजनमायतम्। निगृह्य पाणिना तस्माच्चिक्षेप च स लोष्टवत्।। | 12-211-50a 12-211-50b |
तत्तमोऽहमतिक्रम्य ह्यापं चैव विहायसम्। हुङ्कारघोपं तत्राहमशनीपातसन्निभान्। कर्णमूले ह्यशृण्वन्तस्ततो भूतैः समास्थितः।। | 12-211-51a 12-211-51b 12-211-51c |
ततोऽहं देवदेवेश त्राहि मां पुष्करेक्षण। इत्यब्रवमहं तत्र ततो विष्णुरुवाच माम्।। | 12-211-52a 12-211-52b |
सुषिरस्य मुखे कश्चिन्मां चिक्षेप भयङ्करः। अतीतोऽहं क्षणादग्निमपश्यं वायुमण्डलम्।। | 12-211-53a 12-211-53b |
आकाशमिव संप्रेक्ष्य क्षेप्तुकाममुपागतः। तत्राहं दुःखितो भूतः क्रोशमानो ह्यवस्थितः।। | 12-211-54a 12-211-54b |
क्षणान्तरेण घोरेण क्रुद्धो हि परमात्मना। स्वपक्षराजिना दृष्ट्वा मां चिक्षेप भयङ्करः।। | 12-211-55a 12-211-55b |
-----गरुडकुलं सहस्रादित्यसन्निभम्। मां दृष्ट्वाऽप्यथ संस्थेऽथ ह्यल्पकालोऽतिदुर्बलः।। | 12-211-56a 12-211-56b |
अहो विहङ्गमः प्राप्त इति विस्मयमानसाः। मां दृष्ट्वोचुरहं तत्र पश्यामि गरुडध्वजम्।। | 12-211-57a 12-211-57b |
सहस्रयोजनायामं सहस्रादित्यवर्चसम्। सहस्रगरुडारूढं गरुडास्ते महाबलाः।। | 12-211-58a 12-211-58b |
अत्याश्चर्यमिमं देव वपुषाऽस्मत्कुलोद्भवः। स्वल्पप्राणः स्वल्पकायः कोसौ पक्षी इहागतः।। | 12-211-59a 12-211-59b |
तच्छ्रुत्वाऽहं नष्टगर्वो भीतो लज्जासमन्वितः। स्वयं बुद्ध्श्च संविग्नस्ततो ह्यशृणवं पुनः।। | 12-211-60a 12-211-60b |
आगच्छ गरुडेत्येव ततोऽहं यानमास्थितः। परार्ध्यं च ततो गत्वा योजनानां शतं पुनः। तत्रापश्यमहं यो वै ब्रह्माणं परमेष्ठिनम्।। | 12-211-61a 12-211-61b 12-211-61c |
तत्रापि चापरं तत्र शतकोटिपितामहान्। पुनरेहीत्युवाचोच्चैर्भगवान्मधुसूदनः।। | 12-211-62a 12-211-62b |
महाकुलं ततोऽपश्यं प्रमाणानि तमव्ययम्। कपित्थफलसंकाशमन्धकारैः समाश्रितम्।। | 12-211-63a 12-211-63b |
तत्र स्थितो हरिः श्रीमानण्डमेकं बिभेद ह। महद्भूतं हि मां गृह्य दत्त्वा वै प्राक्षिपत्पुनः।। | 12-211-64a 12-211-64b |
तन्सध्ये सागरान्सप्त ब्रह्माणं च तथा सुरान्। पश्याम्यहं यथायोगं मातरं स्वकुलं तथा।। | 12-211-65a 12-211-65b |
एवं मयाऽनुभूतं हि तत्वान्वेषणकाङ्क्षिणा। शिबिकासदृशं मां वै पश्यध्वं मुनिसत्तमाः।। | 12-211-66a 12-211-66b |
इत्येवमब्रवं विप्रान्भीष्म यन्मे पुराऽभवत्। तत्ते सर्वं यथान्यायमुक्तवानस्मि सत्तम।। | 12-211-67a 12-211-67b |
योगिनस्तं प्रपश्यन्ति ज्ञानं दृष्ट्वा परं हरिम्। नान्यथा शक्यरूपोसौ ज्ञानगम्यः परः पुमान्।। | 12-211-68a 12-211-68b |
अनन्यया च भक्त्या च प्राप्तुं शक्यो महाहरिः।। | 12-211-69a |
भीष्म उवाच। | 12-211-70x |
इत्येवमुक्त्वा भगवान्सुपर्णः पक्षिराट् प्रभुः। आमन्त्र्य जननीं मे वै तत्रैवान्तरधीयत।। | 12-211-70a 12-211-70b |
तस्माद्राजेन्द्र सर्वात्मा वासुदेवः प्रधानकृत्। ज्ञानेन भक्त्या सुलभो नान्यथेति मतिर्मम।।' | 12-211-71a 12-211-71b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि एकादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 211।। |
- क्षयमध्यायो ध. पुस्क एव दृश्यते।
शांतिपर्व-210 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-212 |