महाभारतम्-12-शांतिपर्व-367
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पुलिनवासिना ब्राह्मणेन स्वस्य फलाद्याहारं प्रार्थयतां नागीयानामवधिनिर्देशपूर्वकं प्रतिनिवर्तनम्।। 1।।
भीष्म उवाच। | 12-367-1x |
स वनानि विचित्राणि तीर्थानि च सरांसि च। अभिगच्छन्क्रमेण स्म कंचिन्मुनिमुपस्थितः।। | 12-367-1a 12-367-1b |
तं स तेन यथोद्दिष्टं नागं विप्रेण ब्राह्मणः। पर्यपृच्छद्यथान्यायं श्रुत्वैव च जगाम सः।। | 12-367-2a 12-367-2b |
सोऽभिगम्य यथान्यायं नागायतनमर्थवित्। प्रोक्तवानहमस्मीति भोःशब्दालंकृतं वचः।। | 12-367-3a 12-367-3b |
तत्तस्य वचनं श्रुत्वा रूपिणी धर्मवत्सला। दर्शयामास तं विप्रं नागपत्नी पतिव्रता। | 12-367-4a 12-367-4b |
सा तस्मै विधिवत्पूजां चक्रे धर्मपरायणा। स्वागतेनागतं कृत्वा किं करोमीति चाब्रवीत्।। | 12-367-5a 12-367-5b |
ब्राह्मण उवाच। | 12-367-6x |
विश्रान्तोऽभ्यर्चिंतश्चास्मि भवत्या श्लक्ष्णया गिरा। द्रष्टुमिच्छामि भवति देवं नागमनुत्तमम्।। | 12-367-6a 12-367-6b |
एतद्धि परमं कार्यमेतन्मे परमप्सितम्। अनेन चार्थेनास्म्यद्य संप्राप्तः पन्नगाश्रमम्।। | 12-367-7a 12-367-7b |
नागभार्योवाच। | 12-367-8x |
आर्यः सूर्यरथं वोढुं गतोऽसौ मासचारिकः। सप्ताष्टभिर्दिनैर्विप्र दर्शयिष्यत्यसंशयम्।। | 12-367-8a 12-367-8b |
एतद्विदितमार्यस्य विवासकरणं तव। भर्तुर्भवतु किंचान्यत्क्रियतां तद्वदस्व मे।। | 12-367-9a 12-367-9b |
ब्राह्मण उवाच। | 12-367-10x |
अनेन निश्चयेनाहं साध्वि संप्राप्तवानिह। प्रतीक्षन्नागमं देवि वत्स्याम्यस्मिन्प्रहावने।। | 12-367-10a 12-367-10b |
संप्राप्तस्यैव चाव्यग्रमावेद्योऽहमिहागतः। मयाभिगमनं प्राप्तो वाच्यश्च वचनं त्वया।। | 12-367-11a 12-367-11b |
अहमप्यत्र वत्स्यामि गोमत्याः पुलिने शुभे। कालं परिमिताहारो यथोक्तं परिपालयन्।। | 12-367-12a 12-367-12b |
ततः स विप्रस्तां नागीं समाधाय पुनःपुनः। वेदवित्पुलिनं नद्याः प्रययौ ब्राह्मणर्भषः।। | 12-367-13a 12-367-13b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि सप्तषष्ट्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 367।। |
12-367-9 विवासकरणं प्रवासकारणम्।।
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