महाभारतम्-12-शांतिपर्व-024
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व्यासेन युधिष्ठिरंप्रति राजधर्मकथनपर्वकं राज्यपालनचोदना।। 1।।
वैशंपायन उवाच। | 12-24-1x |
पुनरेव महर्षिस्तं कृष्णद्वैपायनोऽर्थवत्। अजातशत्रुं कौन्तेयमिदं वचनमब्रवीत्।। | 12-24-1a 12-24-1b |
अरण्ये वसतां तात भ्रातॄणां ते मनिस्विनाम्। मनोरथा महाराज ये तत्रासन्युधिष्ठिर।। | 12-24-2a 12-24-2b |
तानि मे भरतश्रेष्ठ प्राप्नुवन्तु महारथाः। प्रशाधि पृथिवीं पार्थ ययातिरिव नाहुषः।। | 12-24-3a 12-24-3b |
अरण्ये दुःखवसतिरनुभूता तपस्विभिः। दुःखस्यान्ते नरव्याघ्र सुखान्यनुभवन्तु वै।। | 12-24-4a 12-24-4b |
धर्ममर्थं च कामं च भ्रातृभिः सह भारत। अनुभूय ततः पश्चात्प्रस्थाताऽसि विशांपते।। | 12-24-5a 12-24-5b |
अर्थिनां च पितृणां च देवतानां च भारत। आनृण्यं गच्छ कौन्तेय ततः स्वर्गं गमिष्यसि।। | 12-24-6a 12-24-6b |
सर्वमेधाश्चमेधाभ्यां यजस्व कुरुनन्दन। ततः पश्चान्महाराज गमिष्यसि परां गतिम्।। | 12-24-7a 12-24-7b |
भ्रातृंश्च सर्वान्क्रतुभिः संयोज्य बहुदक्षिणैः। संप्राप्तः कीर्तिमतुलां पाण्डवेय गमिष्यसि।। | 12-24-8a 12-24-8b |
विझस्ते पुरुषव्याघ्र वचनं कुरुसत्तम। शृणुष्वैवं यथा कुर्वन्न धर्माच्च्यवसे नृप।। | 12-24-9a 12-24-9b |
आददानस्य विजयं विग्रहं च युधिष्ठिर। समानधर्मकुशलाः स्थापयन्ति नरेश्वर।। | 12-24-10a 12-24-10b |
`प्रत्यक्षमनुमानं च उपमानं तथाऽऽगमः। अर्थापत्तिस्तथैतिह्यं संशयो निर्णयस्तथा।। | 12-24-11a 12-24-11b |
आकार इङ्गितं चैव गतिश्चेष्टा च भारत। प्रतिज्ञा चैव हेतुश्च दृष्टान्तोपनयस्तथा।। | 12-24-12a 12-24-12b |
उक्तिर्निगमनं तेषां प्रमेयं च प्रयोजनम्। एतानि साधनान्याहुर्बहुवर्गप्रसिद्धये।। | 12-24-13a 12-24-13b |
प्रत्यक्षमनुमानं च सर्वेषां योनिरुच्यते। प्रमाणज्ञो हि शक्नोति दण्डयोनौ विचक्षणः। अप्रमाणवता नीतो दण्डो हन्यान्महीपतिम्।। | 12-24-14a 12-24-14b 12-24-14c |
देशकालप्रतीक्षी यो दस्यून्मर्षयते नृपः। शास्त्रजां बुद्धिमास्थाय युज्यते नैनसा हि सः।। | 12-24-15a 12-24-15b |
आदाय बलिषङ्भागं यो राष्ट्रं नाभिरक्षति। प्रतिगृह्णाति तत्पापं चतुर्थांशेन भूमिपः।। | 12-24-16a 12-24-16b |
निबोध च यथाऽऽतिष्ठन्धर्मान्न च्यवते नृपः। निग्रहाद्धर्मशास्त्राणामनुरुद्ध्यन्नपेतभीः। कामक्रोधावनादृत्य पितेव समदर्शनः।। | 12-24-17a 12-24-17b 12-24-17c |
दैवेनाभ्याहतो राजा कर्मकाले महाद्युते। न साधयति यत्कर्म न तत्राहुरतिक्रमम्।। | 12-24-18a 12-24-18b |
तरसा बुद्धिपूर्वं वा निग्राह्या एव शत्रवः। पापैः सह न संदध्याद्राज्यं पुण्यं च कारयेत्।। | 12-24-19a 12-24-19b |
शूराश्चार्याश्च सत्कार्या विद्वांसश्च युधिष्ठिर। गोमिनो धनिनश्चैव परिपाल्या विशेषतः।। | 12-24-20a 12-24-20b |
व्यवाहरेषु धर्मेषु योक्तव्याश्च बहुश्रुताः। `प्रमाणज्ञा महीपाल न्यायशास्त्रावलम्बिनः।। | 12-24-21a 12-24-21b |
वेदार्थतत्त्वविद्राजंस्तर्कशास्त्रबहुश्रुताः। मन्त्रे च व्यवहारे च नियोक्तव्या विजानता।। | 12-24-22a 12-24-22b |
तर्कशास्त्रकृता बुद्धिर्धर्मशास्त्रकृता च या। दण्डनीतिकृता चैव त्रैलोक्यमपि साधयेत्।। | 12-24-23a 12-24-23b |
नियोज्या वेदतत्त्वज्ञा यज्ञकर्मसु पार्तिव। वेदज्ञा ये च शास्त्रज्ञास्ते च राजन्सुबुद्धयः।। | 12-24-24a 12-24-24b |
आन्वीक्षकीत्रयीवार्तादण्डनीतिषु पारगाः। ते तु सर्वत्र योक्तव्यास्ते च बुद्धेः परं गताः।। ' | 12-24-25a 12-24-25b |
गुणयुक्तेऽपि नैकस्मिन्विश्वसेत विचक्षणः।। | 12-24-26a |
अरक्षिता दुर्विनीतो मानी स्तब्धोऽभ्यसूयकः। एनसा युज्यते राजा दुर्दान्त इति चोच्यते।। | 12-24-27a 12-24-27b |
ये रक्ष्यमाणा हीयन्ते दैवेनृभ्याहता नृप। तस्करैश्चापि हीयन्ते सर्वं तद्राजकिल्विषम्।। | 12-24-28a 12-24-28b |
सुमन्त्रिते सुनीते च सर्वतश्चोपपादिते। पौरुषे कर्मणि कृते नास्त्यधर्मो युधिष्ठिर।। | 12-24-29a 12-24-29b |
विच्छिद्यन्ते समारब्धाः सिद्ध्यन्ते चापि दैवतः। कृते पुरुषकारे तु नैनः स्पृशति पार्थिवम्।। | 12-24-30a 12-24-30b |
अत्र ते राजशार्दूल वर्तयिष्ये कथामिमाम्। यद्वृत्तं पूर्वराजर्षेर्हयग्रीवस्य पाण्डव।। | 12-24-31a 12-24-31b |
शत्रून्हत्वा हतस्याजौ शूरस्याक्लिष्टकर्मणः। असहायस्य संग्रामे निर्जितस्य युधिष्ठिर।। | 12-24-32a 12-24-32b |
यत्कर्म वै निग्रहे शात्रवाणां योगश्चाग्र्यः पालने मानवानाम्। कृत्वा कर्म प्राप्य कीर्ति स युद्धा द्वाजिग्रीवो मोदते स्वर्गलोके।। | 12-24-33a 12-24-33b 12-24-33c 12-24-33d |
संत्यक्तात्मा समरेष्वाततायी शस्त्रैश्छिन्नो दस्युभिर्वध्यमानः। अश्वग्रीवः कर्मशीलो महात्मा संसिद्धार्थो मोदते स्वर्गलोके।। | 12-24-34a 12-24-34b 12-24-34c 12-24-34d |
धनुर्यूपो रशना ज्या शरः स्रु क्स्रुवः खड्गो रुधिरं यत्र चाज्यम्। रथो वेदी कामजो युद्धमग्नि श्चातुर्होत्रं चतुरो वाजिमुख्याः।। | 12-24-35a 12-24-35b 12-24-35c 12-24-35d |
हुत्वा तस्मिन्यज्ञवह्नावथारी न्पापान्मुक्तो राजसिंहस्तरस्वी। प्राणान्हुत्वा चावभृथे रणे स वाजिग्रीवो मोदते देवलोके।। | 12-24-36a 12-24-36b 12-24-36c 12-24-36d |
राष्ट्रं रक्षन्बुद्धिपूर्वं नयेन संत्यक्तात्मा यज्ञशीलो महात्मा। सर्वांल्लोकान्व्याप्य कीर्त्या मनस्वी वाजिग्रीवो मोदते देवलोके।। | 12-24-37a 12-24-37b 12-24-37c 12-24-37d |
दैवीं सिद्धिं मानुषीं दण्डनीतिं योगन्यासैः पालयित्वा महीं च। तस्माद्राजा धर्मशीलो महात्मा वाजिग्रीवो मोदते देवलोके।। | 12-24-38a 12-24-38b 12-24-38c 12-24-38d |
विद्वांस्त्यागी श्रद्दधानः कृतज्ञ स्त्यक्त्वा लोकं मानुषं कर्म कृत्वा। मेधाविनां विदुषां संमतानां तनुत्यजां लोकमाक्रम्य राजा।। | 12-24-39a 12-24-39b 12-24-39c 12-24-39d |
सम्यग्वेदान्प्राप्य शास्त्राण्यधीत्य सम्यग्राज्यं पालयित्वा महात्मा। चातुर्वर्ण्यं स्थापयित्वा स्वधर्मे वाजिग्रीवो मोदते देवलोके।। | 12-24-40a 12-24-40b 12-24-40c 12-24-40d |
जित्वा संग्रामान्पालयित्वा प्रजाश्च सोमं पीत्वा तर्पयित्वा द्विजाग्र्यान्। युक्त्या दण्डं धारयित्वा प्रजानां युद्धे क्षीणे मोदते देवलोके।। | 12-24-41a 12-24-41b 12-24-41c 12-24-41d |
वृत्तं यस्य श्लाघनीयं मनुष्याः सन्तो विद्वांसोऽर्हयन्त्यर्हणीयम्। स्वर्गं जित्वा वीरलोकानवाप्य सिद्धिं प्राप्तः पुण्यकीर्तिर्महात्मा।। | 12-24-42a 12-24-42b 12-24-42c 12-24-42d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि चतुविंशोऽध्यायः।। 24।। |
12-24-1 वचनं हिंसाप्रधानः क्षत्रधर्मो मे मास्त्वित्येवंरूपम्।। 12-24-10 आददानस्य परस्वापहर्तुः। समानधर्मः अविषमो धर्मस्तत्र कुशलाः स्थापयन्ति अवश्यकर्तव्यतया व्यवस्थापयन्ति।। 12-24-15 मर्षयते दस्यूनपि न हन्ति। एनसा तज्जेन पापेन।। 12-24-17 धर्मशास्त्राणां निग्रहादतिलङ्घनाज्जातादधर्माद्धेतोश्र्यवते। तानि अनुरुध्यन्नपेतभीश्च भवति।। 12-24-19 राष्ट्रपण्यं न कारयेति ड. थ. पाठः।। 12-24-20 गोमिनो गोमन्तः।। 12-24-27 स्तब्धो मान्यानमानयन्। अभ्यसूयको गुणेषु दोषदृष्टिः।। 12-24-28 दैवेन अवर्षणादिना।। 12-24-33 यत्कर्म कर्तव्यं तत्कर्म कृत्वेति संबन्धः।। 12-24-35 कामजः क्रोधो युद्धमूलभूतोऽग्निः। चातुर्होत्रं ब्रह्माद्याः ऋत्विजः चतुरश्चत्वारः।। 12-24-37 संत्यक्तात्मा त्यक्ताहकारः।। 12-24-38 योगः क्रियायामुत्साहो न्यासा अभिमानत्यागास्तैर्युक्तां दैवी सिद्धिं यज्ञादिक्रियामन्यदीयां मानुषीं च सिद्धिं दण्डनीतिं महीं च पालयित्वेति योजना। स्वयं च यज्ञशीलः।। 12-24-39 मानुषं लोकमिति संबन्धः। तनुत्यजां प्रयागादौ।।
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