महाभारतम्-12-शांतिपर्व-175
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति दारिद्र्यधनिकत्वयोः क्रमेणार्थानर्थसाधनत्वे प्रमाणतया शम्याकगीताया अनुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-175-1x |
धनिनश्चाधना ये च वर्तयन्ति स्वतन्त्रिणः। सुखदुःखागमस्तेषां कः कथं वा पितामह।। | 12-175-1a 12-175-1b |
भीष्म उवाच। | 12-175-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। शम्याकेन विमुक्तेन गीतं शान्तिगतेन च।। | 12-175-2a 12-175-2b |
अब्रवीन्मां पुरा कश्चिद्ब्राह्मणस्त्यागमाश्रितः। क्लिश्यमानः कुदारेण कुचेलेन बुभुक्षया।। | 12-175-3a 12-175-3b |
उत्पन्नमिह लोके वै जन्मप्रभृति मानवम्। विविधान्युपवर्तन्ते दुःखानि च सुखानि च।। | 12-175-4a 12-175-4b |
तयोरेकतरो मार्गो यदेनमुपसन्नयेत्। न सुखं प्राप्य संहृष्येन्नासुखं प्राप्य संज्वरेत्।। | 12-175-5a 12-175-5b |
न वै चरसि यच्छ्रेय आत्मनो वा न रंस्यसे। अकामात्माऽपि हि सदा धुरमुद्यम्य चैव ह।। | 12-175-6a 12-175-6b |
अकिञ्चनः परिपतन्सुखमास्वादयिष्यसि। अकिञ्चनः सुखं शेते समुत्तिष्ठति चैव ह।। | 12-175-7a 12-175-7b |
आकिञ्चन्यं सुखं लोके पथ्यं शिवमनामयम्। अनमित्रपथो ह्येष दुर्लभः सुलभः सताम्।। | 12-175-8a 12-175-8b |
अकिञ्चनस्य शुद्धस्य उपपन्नस्य सर्वतः। अवेक्षमाणस्त्रील्लोँकान्न तुल्यमिह लक्षये।। | 12-175-9a 12-175-9b |
आकिञ्चन्यं च राज्यं च तुलया समतोलयम्। अत्यरिच्यत दारिद्र्यं राज्यादपि गुणाधिकम्।। | 12-175-10a 12-175-10b |
आकिञ्चन्ये च राज्ये च विशेषः सुमहानयम्। नित्योद्विग्नो हि धनवान्मृत्योरास्यगतो यथा।। | 12-175-11a 12-175-11b |
नैवास्याग्निर्न चादित्यो न मृत्युर्न च दस्यवः। प्रभवन्ति धनं हर्तुमितरे स्युः कुतः पुनः।। | 12-175-12a 12-175-12b |
तं वै सदा कामचरमनुपस्तीर्णशायिनम्। बाहूपधानं शाम्यन्तं प्रशंसन्ति दिवौकसः।। | 12-175-13a 12-175-13b |
धनवान्क्रोधलोभाभ्यामाविष्टो नष्टचेतनः। तिर्यग्दृष्टिः शुष्कमुखः पापको भ्रुकुटीमुखः।। | 12-175-14a 12-175-14b |
निर्दशन्नधरोष्ठं च क्रुद्धो दारुणभाषिता। कस्तमिच्छेत्परिद्रष्टुं दातुमिच्छति चेन्महीम्।। | 12-175-15a 12-175-15b |
श्रिया ह्यभीक्ष्णं संवासो मोहयत्यविचक्षणम्। सा तस्य चित्तं हरति शारदाभ्रमिवानिलः।। | 12-175-16a 12-175-16b |
अथैनं रूपमानश्च धनपानश्च विन्दति। अभिजातोऽस्मि सिद्धोऽस्मि नास्मि केवलमानुषः। इत्येभिः कारणैस्तस्य त्रिभिश्चित्तं प्रमाद्यति।। | 12-175-17a 12-175-17b 12-175-17c |
संप्रसक्तमना भोगान्विसृज्य पितृसंचितान्। परिक्षीणः परस्वानामादानं साधु मन्यते।। | 12-175-18a 12-175-18b |
तमतिक्रान्तमर्यादमाददानं ततस्ततः। प्रतिषेधन्ति राजानो लुब्धा मृगमिवेषुभिः।। | 12-175-19a 12-175-19b |
एवमेतानि दुःखानि तानि तानीह मानवम्। विविधान्युपवर्तन्ते गात्रसंस्पर्शजान्यपि।। | 12-175-20a 12-175-20b |
तेषां परमदुःखानां बुद्ध्या भैषज्यमाचरेत्। लोकधर्मं समाज्ञाय ध्रुवाणामध्रुवैः सह।। | 12-175-21a 12-175-21b |
नात्यक्त्वा सुखमाप्नोति नात्यक्त्वा विन्दते परम्। नात्यक्त्वा चाभयः शेते त्यक्त्वा सर्वं सुखी भवेत्।। | 12-175-22a 12-175-22b |
इत्येतद्धास्तिनपुरे ब्राह्मणेनोपवर्णितम्। शम्याकेन पुरा मह्यं तस्मात्त्यागः परो मतः।। | 12-175-23a 12-175-23b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि पञ्चसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 175।। |
12-175-1 स्वतन्त्रिणः स्वशास्त्रानुसारिणः।। 12-175-2 तेन शम्याकेन यद्गीतं तन्मां प्रति कश्चिदब्रवीदिति द्वयोः संबन्धः। शंपाकेनेह मुक्तेन इति झ. पाठः।। 12-175-3 कुचेलेन कुवस्त्रेण। निर्धनत्वादन्नाच्छादनहीन इत्यर्थः।। 12-175-5 उपसंनयेत् संप्राप्नुयात्। तयोरेकतरे मार्गे यदेनमभिसंनयेदिति झ. पाठः। तत्र अभिसंनयेद्दैवं यदि प्रापयेत्तर्हि न संहृष्येदित्यादिना संबन्धः।। 12-175-7 अकिञ्चनः दरिद्रः। परितः पतन् गच्छन्। अनिकेतश्चरन्नित्यर्थः।। 12-175-8 पथ्यं मोक्षमार्गादनपेतम्। अनमित्रपथः शत्रुवर्जितः पन्थाः। दुर्लभः कामिनाम्।। 12-175-9 उपपन्नस्य वैराग्यसंपन्नस्य।। 12-175-12 नैवास्याग्निर्न चारिष्ट इति प्रभवन्ति धनत्यागाद्विमुक्तस्य निराशिषः इति च झ. पाठः।। 12-175-13 अनुपस्तीर्णे शय्याहीने भूतले शेते तम्। उपधानं शीर्षोपधानम्।। 12-175-17 अभिजात उत्तमवंश्यः त्रिभिर्धनरूपकुलैः।। 12-175-18 भोगान् भोग्यधनादीन विसृज्य व्ययीकृत्य।। 12-175-19 प्रतिषेधन्ति दण्डयन्ति। लुब्धा व्याधाः।। 12-175-20 संस्पर्शजानि दाहच्छेदादीनि।। 12-175-21 भैषज्यं प्रतीकारमाचरेत्।। 12-175-23 शम्याकेन पुरा गीतमित्यध्याहारेण योजना।।
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