महाभारतम्-12-शांतिपर्व-051
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भीष्मेण कृष्णंप्रति स्वस्य शस्त्रसंछिन्नशरीरतया धर्मकथनापाटवप्रकटनम्।। 1।। कृष्णेन भीष्माय शरीरदार्ढ्यादिप्रदानम्।। 2।। ततः सायं सर्वेषां स्वस्वस्थानगमनम्।। 3।।
वैशंपायन उवाच। | 12-51-1x |
ततः कृष्णस्य तद्वाक्यं धर्मार्थसहितं हितम्। श्रुत्वा शान्तनवः कृष्णं प्रत्युवाच कृताञ्जलिः।। | 12-51-1a 12-51-1b |
लोकनाथ महाबाहो शिव नारायणाच्युत। तव वाक्यमुपश्रुत्य हर्षेणास्मि परिप्लुतः।। | 12-51-2a 12-51-2b |
किंचाहमभिधास्यामि वाक्पते तव सन्निधौ। यदा वाचोगतं सर्वं तव वाचि समाहितम्।। | 12-51-3a 12-51-3b |
यच्च किंचित्कृतं लोके कर्तव्यं क्रियते च यत्। त्वत्तस्तन्निः सृतं देव लोके बुद्धिमतो हिते।। | 12-51-4a 12-51-4b |
कथयेद्देवलोकं यो देवराजसमीपतः। धर्मकामार्थमोक्षाणां सोऽर्थं ब्रूयात्तवाग्रतः।। | 12-51-5a 12-51-5b |
शराभितापाद्व्यथितं मनो मे मधुसूदन। गात्राणि चावसीदन्ति न च बुद्धिः प्रसीदति।। | 12-51-6a 12-51-6b |
न च मे प्रतिभा काचिदस्ति किंचित्प्रभाषितुम्। पीड्यमानस्य गोविन्द विपानलसमैः शरैः।। | 12-51-7a 12-51-7b |
बलं मे प्रजहातीव प्राणाः सत्वरयन्ति च। मर्माणि परितप्यन्ति भ्रान्तचित्तस्तथा ह्यहम्।। | 12-51-8a 12-51-8b |
दौर्बल्यात्सज्जते वाङ्भे स कथं वक्तुमुत्सहे। साधु मे त्वं प्रसीदस्व दाशार्हकुलवर्धन।। | 12-51-9a 12-51-9b |
तत्क्षमस्व महाबाहो न ब्रूयां किंचिदच्युत।। त्वत्सन्निधौ च सीदेद्धि वाचस्पतिरपि ब्रुवन्।। | 12-51-10a 12-51-10b |
न दिशः संप्रजानामि नाकाशं न च मेदिनीम्। केवलं तव वीर्येण तिष्ठामि मधुसूदन।। | 12-51-11a 12-51-11b |
स्वयमेव भवांस्तस्माद्धर्मराजस्य यद्धितम्। तद्ब्रवीत्वाशु सर्वेषामागमानां त्वमागमः।। | 12-51-12a 12-51-12b |
कथं त्वयि स्थिते कृष्णे शाश्वते लोककर्तरि। प्रब्रूयान्मद्विधः कश्चिद्गुरौ शिष्य इव स्थिते।। | 12-51-13a 12-51-13b |
वासुदेव उवाच। | 12-51-14x |
उपपन्नमिदं वाक्यं कौरवाणां धुरन्धरे। महावीर्ये महासत्वे स्थिरे सर्वार्थदर्शिनि।। | 12-51-14a 12-51-14b |
यच्च मामात्थ गाङ्गेय बाणघातरुजं प्रति। गृहाणात्र वरं भीष्म मत्प्रसादकृतं प्रभो।। | 12-51-15a 12-51-15b |
न ते ग्लानिर्न ते मूर्च्छा न तापो न च ते रुजा। प्रभविष्यन्ति गाङ्गेय क्षुत्पिपासे न चाप्युत।। | 12-51-16a 12-51-16b |
ज्ञानानि च समग्राणि प्रतिभास्यन्ति तेऽनघ। न च ते क्वचिदासत्तिर्बुद्धेः प्रादुर्भविष्यति।। | 12-51-17a 12-51-17b |
सत्वस्थं च मनो नित्यं तव भीष्म भविष्यति। रजस्तमोभ्यां निर्मुक्तं घनैर्मुक्त इवोडुराट्।। | 12-51-18a 12-51-18b |
यद्यच्च धर्मसंयुक्तमर्थयुक्तमथापि च। चिन्तयिष्यसि तत्राग्र्या बुद्धिस्तव भविष्यति।। | 12-51-19a 12-51-19b |
इमं च राजशार्दूल भूतग्रामं चतुर्विधम्। चक्षुर्दिव्यं समाश्रित्य द्रक्ष्यस्यमितविक्रम।। | 12-51-20a 12-51-20b |
चतुर्विधं प्रजाजालं संयुक्तो ज्ञानचक्षुषा। भीष्म द्रक्ष्यसि तत्त्वेन जले मीन इवामले।। | 12-51-21a 12-51-21b |
वैशंपायन उवाच। | 12-51-22x |
ततस्ते व्याससहिताः सर्व एव महर्षयः। ऋग्यजुःसामसहितैर्वचोभिः कृष्णमार्चयन्।। | 12-51-22a 12-51-22b |
ततः सर्वार्तवं दिव्यं पुष्पवर्षं न भस्तलात्। पपात यत्र वार्ष्णेयः सगाङ्गेयः सपाण्डवः।। | 12-51-23a 12-51-23b |
वादित्राणि च सर्वाणि जगुश्चाप्सरसां गणाः। न चाहितमनिष्टं च किंचित्तत्र व्यदृश्यत।। | 12-51-24a 12-51-24b |
ववौ शिवः सुखो वायुः सर्वगन्धवहः शुचिः। शान्तायां दिशिशन्ताश्च प्रावदन्मृगपक्षिणः।। | 12-51-25a 12-51-25b |
ततो मुहूर्ताद्भगवान्सहस्रांशुर्दिवाकरः। दहन्वनमिवैकान्ते प्रतीच्यां प्रत्यदृश्यत।। | 12-51-26a 12-51-26b |
ततो महर्षयः सर्वे समुत्थाय जनार्दनम्। भीष्ममामन्त्रयांचक्रू राजानं च युधिष्ठिरम्।। | 12-51-27a 12-51-27b |
ततः प्रणाममकरोत्केशवः सहपाण्डवः। सात्यकिः स़ञ्जयश्चैव स च शारद्वतः कृपः।। | 12-51-28a 12-51-28b |
ततस्ते धर्मनिरताः सम्यक् तैरभिपूजिताः। श्वः समेष्याम इत्युक्त्वा यथेष्टं त्वरिता ययुः।। | 12-51-29a 12-51-29b |
तथैवामन्त्र्य गाङ्गेयं केशवः पाण्डवास्तथा। प्रदक्षिणमुपावृत्य रथानारुरुहुः शुभान्।। | 12-51-30a 12-51-30b |
ततो रथैः काञ्चनचित्रकूबरै र्महीधराभैः समदैश्च दन्तिभिः। हयैः सुपर्णैरिव चाशुगामिभिः पदातिभिश्चात्तशरासनादिभिः।। | 12-51-31a 12-51-31b 12-51-31c 12-51-31d |
ययौ रथानां पुरतो हि सा चमू स्तथैव पश्चादतिमात्रसारिणी। पुरश्च पश्चाच्च यथा महानदी तमृक्षवन्तं गिरिमेत्य नर्मदा।। | 12-51-32a 12-51-32b 12-51-32c 12-51-32d |
ततः पुरस्ताद्भगवान्निशाकरः। समुत्थितस्तामभिहर्षयंश्चमूम्। दिवाकरापीतरसा महौषधीः पुनः स्वकेनैव गुणेन योजयन्।। | 12-51-33a 12-51-33b 12-51-33c 12-51-33d |
ततः पुरं सुरपुरसंमितद्युति प्रविश्य ते यदुवृषपाण्डवास्तदा। यथोचितान्भवनवरान्समाविशन् श्रमान्विता मृगपतयो गुहा इव।। | 12-51-34a 12-51-34b 12-51-34c 12-51-34d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि एकपञ्चाशोऽध्यायः।। 51।। |
12-51-3 वाचोगतं वाचां विषयः सर्वोऽपि तव वाचि वेदे।। 12-51-4 हिते प्रिये। लोके देवलोके इह परत्र च। तत्सर्वं त्रैकालिकम्। त्वत्तो निःसृतमिति उक्तेर्थे हेतुरुक्तः।। 12-51-12 आगमानां समागममिति ट. ड. पाठः।। 12-51-17 आसत्तिरवसन्नता।।
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