महाभारतम्-12-शांतिपर्व-145
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पत्नीचोदितेन कपोतेन शुष्कपर्णैः पावकसंदीपनेन व्याधस्य शैत्यापनोदनपूर्वकं पुनः स्वेन तदभीष्टकरणप्रतिज्ञा।। 1।। तेन तस्य क्षुन्निवृत्तिप्रार्थने फलादिकं किमप्यलभमानेन कपोतेन स्वमांसेन तदीयक्षुत्परिजिहीर्षयाऽग्नौ प्रवेशनम्।। 2।।
भीष्म उवाच। | 12-145-1x |
सपत्न्या वचनं श्रुत्वा धर्मयुक्तिसमन्वितम्। हर्षेण महता युक्तो वाक्यं व्याकुललोचनः।। | 12-145-1a 12-145-1b |
तं वै शाकुनिकं दृष्ट्वा विधिदृष्टेन कर्मणा। स पक्षी पूजयामास यत्नात्तं पक्षिजीविनम्।। | 12-145-2a 12-145-2b |
उवाच स्वागतं तेऽद्य ब्रूहि किं करवाणि ते। सतांपश्च न कर्तव्यः स्वगृहे वर्तते भवान्।। | 12-145-3a 12-145-3b |
तद्ब्रवीतु भवान्क्षिप्रं किं करोमि किमिच्छसि। प्रणयेन ब्रवीमि त्वां त्वं हि नः शरणागतः।। | 12-145-4a 12-145-4b |
अरावप्युचितं कार्यमातिथ्यं गृहमागते। छेत्तुमप्यागते छायां नोपसंहरते द्रुमः।। | 12-145-5a 12-145-5b |
शरणागतस्य कर्तव्यमातिथ्यं हि प्रयत्नतः। पञ्चयज्ञप्रवृत्तेन गृहस्थेन विशेषतः।। | 12-145-6a 12-145-6b |
पञ्चयज्ञांस्तु यो मोहान्न करोति गृहाश्रमी। तस्य नायं न च परो लोको भवति धर्मतः।। | 12-145-7a 12-145-7b |
तद्ब्रूहि मां सुविस्रब्धो यत्त्वं वाचा वदिष्यसि। तत्करिष्याम्यहं सर्वं मा त्वं शोके मनः कृथाः।। | 12-145-8a 12-145-8b |
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा शकुनेर्लुब्धकोऽब्रवीत्। बाधते खलु मां शीतं संत्राणं हि विधीयताम्।। | 12-145-9a 12-145-9b |
एवमुक्तस्तनः पक्षी पर्णान्यास्तीर्य भूतले। यथा शुष्काणि यत्नेन ज्वलनार्थं द्रुतं ययौ।। | 12-145-10a 12-145-10b |
स---वाऽङ्गारकर्मान्तं गृहीत्वाऽग्निमथागमत्। तथा शुष्केषु पर्णेषु पावकं सोऽप्यदीपयत्।। | 12-145-11a 12-145-11b |
स--प्तं महत्कृत्वा तमाह शरणागतम्। ----- सुविस्रब्धः स्वगात्राण्यकुतोभयः।। | 12-145-12a 12-145-12b |
-- तथोक्तस्तथेत्युक्त्वा लुब्धो गात्राण्यतापयत्। अग्निप्रत्यागतप्राणस्ततः प्राह विहंगमम्।। | 12-145-13a 12-145-13b |
हर्षेण महताऽऽविष्टो वाक्यं व्याकुललोचनः। तथेमं शकुनिं दृष्ट्वा विधिदृष्टेन कर्मणा।। | 12-145-14a 12-145-14b |
दत्तमाहारमिच्छामि त्वया क्षुद्बाधते हि माम्। स तद्वचः प्रतिश्रुत्य वाक्यमाह विहंगमः।। | 12-145-15a 12-145-15b |
न मेऽस्ति विभवो येन नाशयेयं क्षुधां तव। उत्पन्नेन हि जीवामो वयं नित्यं वनौकसः।। | 12-145-16a 12-145-16b |
संचयो नास्ति चास्माकं मुनीनामिव कानने। इत्युक्त्वा तं तदा तत्र विवर्णवदनोऽभवत्।। | 12-145-17a 12-145-17b |
कथं नु खलु कर्तव्यमिति चिन्तापरस्तदा। बभूव भरतश्रेष्ठ गर्हयन्वृत्तिमात्मनः।। | 12-145-18a 12-145-18b |
मुहूर्ताल्लब्धसंज्ञस्तु स पक्षी पक्षिघातिनम्। उवाच तर्पयिष्ये त्वां मुहूर्तं प्रतिपालय।। | 12-145-19a 12-145-19b |
इत्युक्त्वा शुष्कपर्णैस्तु समुज्ज्वाल्य हुताशनम्। हर्षेण महताऽऽविष्टः कपोतः पुनरब्रबीत्।। | 12-145-20a 12-145-20b |
ऋषीणां देवतानां च पितृणां च महात्मनाम्। युतः पूर्वं मया धर्मो महानतिथिपूजने।। | 12-145-21a 12-145-21b |
कुरुष्वानुग्रहं सौम्य सत्यमेतद्ब्रबीमि ते। निश्चिता खलु मे बुद्धिरतिथिप्रतिपूजने।। | 12-145-22a 12-145-22b |
ततः कृतप्रतिज्ञो वै स पक्षी प्रहसन्निव। तमग्निं त्रिः परिक्रम्य प्रविवेश महामतिः।। | 12-145-23a 12-145-23b |
अग्निमध्ये प्रविष्टं तु लुब्धो दृष्ट्वा च पक्षिणम्। चिन्तयामास मनसा किमिदं वै मया कृतम्।। | 12-145-24a 12-145-24b |
अहो मम नृशंसस्य गर्हितस्य स्वकर्मणा। अधर्मः सुमहान्धोरो भविष्यति न संशयः।। | 12-145-25a 12-145-25b |
एवं बहुविधं भूरि विललाप स लुब्धकः। गर्हयन्स्वानि कर्माणि द्विजं दृष्ट्वा तथाऽऽगतम्।। | 12-145-26a 12-145-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि पञ्चचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 145।। |
12-145-3 संकोचश्च न कर्तव्य इति थ. पाठः।। 12-145-11 अङ्गारकर्मान्तं कर्मारगृहसमीपम्।।
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